सहारनपुर। plush graveyard : यदि आपको सैर करने का शौक है तो एक बार इस आलीशान कब्रिस्तान में भी आईए। घबराने की जरुरत नहीं है। यहां पर आपको को कई ऐसे स्मारक मिलेंगे, जो आपके मन को भा जाएंगे। शमशान घाट अथवा कब्रिस्तान के नाम पर डरना अब बीते जमाने की बात हो गई है। अंधविश्वासों को दरकिनार कर अब उस स्थान को भी महत्व मिलने लगा है, जहां जीवन के अंतिम पड़ाव के बाद प्रत्येक मानव की देह को जाना पड़ता है। आत्मा अमर है, किंतु शरीर नहीं। तभी तो अपने धर्मानुसार अंतिम क्रिया कर पंचतत्व में विलीन किए जाने की व्यवस्था मानव धर्म द्वारा की गई है।
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निष्प्राण मानव शरीर की अंतिम क्रिया का ऐसा ही ऐतिहासिक स्थल है रुड़की (उत्तराखंड) में अंग्रेजों का कब्रिस्तान, जिसे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा राष्ट्रीय स्मारक के रुप में संरक्षित किया जा रहा है। यहां पहुंचने पर बिल्कुल महसूस नहीं होता कि आप कब्रिस्तान में हैं। यह कब्रिस्तान किसी भव्य पार्क से कम नजर नहीं आता है। संरक्षित स्मारक होने के नाते इसकी सीमाओं से 100 मीटर तथा उससे परे 200 मीटर तक के क्षेत्र में खनन प्रक्रिया व संनिर्माण पर रोक लगाई गई है। रुड़की शहर में गंग नहर किनारे स्थित विशाल क्षेत्र में फैले इस अंग्रेजों के कब्रिस्तान में यूं तो एक हजार से अधिक छोटी बड़ी कब्र हैं, लेकिन कुछ कब्र ऐसी हैं, जो भुलाए नहीं भूलती हैं।
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किसी भव्य पार्क से कम नहीं है यह कब्रिस्तान
इतिहास के जानकार श्रीगोपाल नारसन ने बताया कि एक अंग्रेज ब्रिगेडियर की पुत्री मोना की अल्पायु में 23 अप्रैल 1919 को हुई दुखद मौत को यहां एक स्मारक के रुप में संजोया गया है। इसी प्रकार फ्लोरेंस मैरी जो 18 दिसंबर 1907 को मात्र 16 साल की आयु में चल बसी थीं के भव्य स्मारक को देखते ही आंखे नम हो जाती हैं। अंग्रेजों का यह ऐतिहासिक कब्रिस्तान 204 साल से भी अधिक पुराना है और समय का साक्षी है। जिसमें वे ब्रिटिश अधिकारी समाए हैं, जिनकी अंग्रेजी शासनकाल में तूती बोलती थी। इनमें से एक आनरेरी ब्रिगेडियर रायल इंजीनियर्स जेआर चिस्टनी, जो मात्र 36 साल की आयु में ही दुनिया को अलविदा कह गए थे। इसी प्रकार लेफ्टिनेंट जनरल सर हैराल्ड विलियम , जो कि रायल इंजीनियर्स के में रहते हुए दुनिया को छोड़ कर चले गए थे, उनकी कब्र को भव्य स्मारक का रुप दिया गया है और कब्रिस्तान का आकर्षण है।
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अंग्रेजी शासकों की कब्र बनी हैं भव्य स्मारक
अक्सर सुबह की सैर करने के लिए कब्रिस्तान पहुंचने वाले रुड़की निवासी घनश्याम बादल ने बताया कि चाहे 1 दिसंबर 1866 को गुजरे बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप के डेविड लिप्सन हो, या फिर 30 अक्टूबर 1894 में एक आदसे में मौत के आगोश में समाए विलियम, टीएस क्लिक, जेई बुरे, सी वाईमेन आदि के संयुक्त स्मारक, ये सभी रुड़की में ब्रिटिश अधिकारियों के वर्चस्व की याद दिलाते हैं। भले ही भारत आजाद होने पर अंग्रेज अपने वतन को लौट गए हों, लेकिन भारत में शासन के दौरान हमेशा के लिए बिछडे उनके अपनों की कब्र आज भी स्मारक के रुप में इतिहास की तस्वीर प्रस्तुत करती नजर आती है।
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पुरातत्व विभाग दे रहा है आपको निमंत्रण
फिलहाल इस स्मारक को पुरातत्व विभाग अपने तरीके से सजा रहा है, ताकि अंग्रेजों का कब्रिस्तान देखने के लिए पर्यटक भी यहां आ सके। वह बताते हैं कि एक ओर जहां कब्रिस्तान में स्थित हरे भरे पेड़ और पुष्पों के पौधे मन और तन को शांति प्रदान करते हैं, स्वच्छ हवा प्रदान करते हैं, वहीं कब्रिस्तान के बाहर सड़क पार करते ही गंगनहर भी मन को शांति प्रदान करती है। गंगनहर की पटरी पर आने वाले सैलानी भी इस कब्रिस्तान में सैर के लिए आते हैं।
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बताया जाता है कि अंग्रेजों का कब्रिस्तान की देखरेख पुरातत्व विभाग द्वारा की जाती है। उसी विभाग के माध्यम से इसका समय समय पर सौंदर्यकरण कराया जाता रहता है। इस कब्रिस्तान में अनेकों ब्रिटिश शासन से जुड़े अधिकारियों व कर्मचारियों के परिजनों की कब्र है। स्थानीय स्तर पर वह भी व्यवस्थाओं का जायजा लेने पहुंच जाते हैं। अभी भ इस कब्रिस्तान में शवों को दफनाया जाता है। सुरक्षा की दृष्टि से दर्शक को केवल खाली हाथ ही भीतर प्रवेश की अनुमति है। कैमरा अथवा मोबाइल आदि ले जाना पूरी तरह से प्रतिबंधित है।
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