प्रथम अध्याय – शौनकजी के साधन विषयक प्रश्न पूछने पर सूतजी का उन्हें शिव पुराण की उत्कृष्ट महिमा सुनाना
श्रीशौनकजी ने पूछा – महाज्ञानी सूतजी ! आप सम्पूर्ण सिद्धांतों के ज्ञाता है। प्रभो ! मुझ से पुराणों के कथाओं के सारतत्व विशेष रूप से वर्णन कीजिये। ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त होने वाले विवेक की वृद्धि कैसे होती है? तथा साधु पुरुष किस प्रकार अपने काम, क्रोध आदि मानसिक विकारों का निवारण करते है? इस घोर कलिकाल में जीव प्रायः असुर स्वभाव के हो गए हैं। उस जीव समुदाय को शुद्ध (दैवीसंपति से युक्त) बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है? आप इस समय मुझे ऐसा कोई शास्वत साधन बताइये, जो कल्याणकारी वस्तुओं में सबसे उत्कृष्ट एवं परम मंगलकारी हो तथा पवित्र करने वाले उपायों में भी सबसे उत्तम पवित्रकारी उपाय हो। तात! वह साधन ऐसा हो, जिसके अनुष्ठान से शीघ्र ही अन्तःकरण की विशेष शुद्धि हो जाये तथा उसमें निर्मल चित्तवाले पुरुषों को सदा के लिए शिव की प्राप्ति हो जाये।
अब सूतजी कहते हैं — मुनिश्रेष्ठ शौनक ! तुम धन्य हो, क्योंकि तुम्हारे ह्रदय में पुराण कथा सुनने का विशेष प्रेम एवं लालसा है। इसलिए मैं शुद्ध बुद्धि से विचारकर तुमसे परम उत्तम शास्त्र का वर्णन करता हूँ। वत्स ! यह सम्पूर्ण शास्त्रों के सिद्धांत से संपन्न, भक्ति आदि को बढ़ाने वाला, तथा शिव को संतुष्ट करने वाला है। कानों के लिए रसायन अमृत स्वरूप तथा दिव्य है, तुम उसे श्रवण करो। मुने ! वह परम उत्तम शास्त्र है — शिव पुराण, जिसका पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही प्रवचन किया था। यह काल रूपी सर्प से प्राप्त होने वाले महान त्रास का विनाश करने वाला उत्तम साधन है। गुरुदेव व्यास ने सनतकुमार मुनि का उपदेश पाकर बड़े आदर से इस पुराण का संक्षेप में ही प्रतिपादन किया है। इस पुराण के प्रणय का उदेश्य है– कलयुग में उत्पन होने वाले मनुष्यों के परम हित का साधन।
यह शिव पुराण बहुत ही उतम शास्त्र है। इसे इस भुतल पर शिव का वाक्मय स्वरुप समझना चाहिए। और सब प्रकार से इसका सेवन करना चाहिये । इसका पठन और श्रवण सर्वसाधारणरुप है। इससे शिव भक्ति पाकर श्रेष्टतम स्थितियों में पहुंचा हुआ मनुष्य शीघ्र ही शिव पद को प्राप्त कर लेता है। इसलिए सम्पूर्ण यत्न करके मनुष्यों ने इस पुराण को पढ़ने की इच्छा की है – अथवा इसके अध्ययन को अभीष्ट साधन माना है। इसी तरह इसका प्रेम पूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाला है। भगवान शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके अंत में शिव लोक को प्राप्त होता है।
यह शिव पुराण नामक ग्रन्थ चौबीस हजार श्लोकों से युक्त है। इसकी सात संहितायें है। मनुष्य को चाहिए कि वो भक्ति, ज्ञान, वैराग्य से संपन्न हो बडे आदर से इसका श्रवण करे। सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य शिवपुराण परब्रम्हा परमात्मा के समान विराजमान है और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है। जो निरंतर अनुसन्धान पूर्वक शिव पुराण को बोलता है या नित्य प्रेमपूर्वक इसका पाठ मात्र करता है वह पुण्यात्मा है — इसमें संशय नहीं है। जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष अंतकाल में भक्तिपूर्वक इस पुराण को सुनता है, उसपर अत्यंत प्रसन्न हुए भगवान महेश्वर उसे अपना पद (धाम) प्रदान करते हैं। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक इस शिव पुराण की पूजा करता है वह इस संसार मे संपूर्ण भोगों को भोगकर अन्त में भगवान शिव के पद को प्राप्त कर लेता है। जो प्रतिदिन आलस्यरहित हो रेशमी वस्त्र आदि के वेष्टन से इस शिव पुराण का सत्कार करता है, वह सदा सुखी रहता है। यह शिव पुराण निर्मल तथा भगवान का सर्वस्व है; जो इसलोक और परलोक मे भी सुख चाहता हो, उसे आदर के साथ प्रयत्नपुर्वक इसका सेवन करना चाहिये। यह निर्मल एवं उतम शिव पुराण धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रुपी चार पुरुषार्थों को देने वाला है। अतः सदा इसका प्रेमपुर्वक श्रवण एवं इसका विशेष पाठ करना चाहिये।
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शिव पुराण के श्रवण से देवराज को शिवलोक की प्राप्ति (अध्याय-2)
श्रीशौनक जी ने कहा – महाभाग सूतजी ! आप धन्य है, परमार्थ तत्व के ज्ञाता है, आपने कृपा करके हम लोगों को यह दिव्य कथा सुनाई है। भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है, यह बात आज हमने आपकी कृपा से निश्चय पूर्वक समझ ली। सूतजी! कलयुग में इन कथाओं के द्वारा कौन कौन से पापी शुद्ध होते है? उन्हें कृपा पूर्वक बताइये और इस जगत को कृतार्थ कीजिये।
अब सूत जी बोलते हैं – मुने ! जो मनुष्य पापी, दुराचारी, खल तथा काम क्रोध आदि में निरंतर लिप्त रहले वाले हैं, वो भी इस पुराण के श्रवण पाठन से शुद्ध हो जाते हैं। इसी विषय में जानकर मुनि इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके श्रवण मात्र से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है।
पहले की बात है, कही किरातों के नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जो ज्ञान में अत्यन्त दुर्बल, दरिद्र, रस बेचने वाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था। वह स्नान, संध्या आदि कर्मो से भ्रष्ट हो गया था एवं वैश्यावृति में तत्पर रहता था। उसका नाम था देवराज। वह अपने ऊपर विश्वास करने वाले लोगों को ठगा करता था। उसने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्र तथा दुसरों को भी अपने बहानों से मारकर उन सबका धन हड़प लिया था। परन्तु उस पापी का थोडा सा भी धन धर्म के काम में नहीं लगा। वह वेश्यागामी तथा सब प्रकार से आचारभ्रष्ट था।
एक दिन वह घुमता घामता प्रतिष्ठानपुर (झुसी – प्रयाग ) में जा पहुंचा। वहाँ उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुत से साधू महात्मा एकत्र हुए थे। देवराज उस शिवालय मे ठहर गया, किन्तु वहाँ उसे ज्वर आ गया। उस ज्वर से उसको बहुत पीड़ा होने लगी। वहाँ एक ब्राह्मण देव शिव पुराण की कथा सुना रहे थे। ज्वर में पडा हुआ देवराज ब्राह्मण के मुखारविन्द से निकली हुई उस शिव कथा को निरंतर सुनता रहा। एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यन्त पीड़ित होकर चल बसा। यमराज के दुत आये और उसे पाशों में बांधकर बलपुर्वक यमपुरी ले गये। इतने में ही शिवलोक से भगवान शिव के पार्षदगण आ गये। उनके गौर अंग कर्पुर के समान उज्जवल थे, हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से चमक रहे थे और रुद्राक्ष की मालाएँ उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थी। वे सब के सब क्रोध पूर्वक यमपुरी गए और यमराज के दूतों को मारपीट कर बारम्बार धमकाकर उन्होंने देवराज को उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यंत अद्भुत विमान पर बैठाकर जब वे शिव दूत कैलास जाने को उद्धत हुए, उस समय यमपुरी में भारी कोलाहल मच गया। उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये। साक्षात दूसरे रुद्रों के समान प्रतीत होने वाले उन चारों दूतों को देखकर धर्मज्ञ धर्मराज उनका विधिपूर्वक पूजन किया और और ज्ञान दृष्टि से देख कर सारा वृतांत जान लिया। उन्होंने भय के कारण भगवान शिव के उन महात्मा दूतों से कोई बात नहीं पूछी। उलटे उन सब की पूजा एवं प्रार्थना की। तत्पश्चात वे शिव दूत कैलाश को चले गए और वहां पहुंचकर उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर शिव के हाथ में दे दिया।
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चंचुला का पाप से भय एवं संसार से वैराग्य अध्याय – 3
शौनकजी कहते हैं — महाभाग सूतजी ! आप सर्वज्ञ है। महामते ! आपकी कृपा प्रसाद से मैं बारम्बार कृतार्थ हुआ। इस इतिहास को सुनकर मेरा मन अत्यंत आनंद में निमग्न हो रहा है। अतः अब भगवन शिव में प्रेम बढ़ाने वाली शिव सम्बंधित दूसरी कथा को भी कहिये।
अब सूतजी कहते है – शौनक ! सुनो, मैं तुम्हारे सामने गोपनीय कथावस्तु का भी वर्णन करुंगा, क्योंकि तुम शिव भक्तों में अग्रगण्य तथा वेद वेदताओं में श्रेष्ठ हो।
समुद्र के निकटवर्ती प्रदेशों मे वाष्कल नामक एक ग्राम है। जहाँ वैदिक धर्म से च्युत महापापी द्विज निवास करते हैं, वे सब के सब बड़े दुष्ट है। उनका मन दूषित विषय भोगों में ही लगा रहता है। वे न देवों पर विश्वास करते है न भाग्य पर। वे सभी बड़े कुटिल वृति वाले हैं। किसानी करते और भांति भांति के घातक अस्त्र शस्त्र रखते हैं। वे व्यभिचारी और खल है। ज्ञान, वैराग्य तथा सधर्म का सेवन ही मनुष्यों के लिए परम पुरुषार्थ है – वे इस बात को बिलकुल नहीं जानते है। वे सभी पशु बुद्धि वाले है। ( जहां के द्विज ऐसे बुद्धि वाले हो वहाँ के अन्य वर्णों के बारे में क्या कहा जाय ) अन्य वर्णों के लोग भी उन्ही की भांति कुत्सित विचार रखने वाले, स्वधर्म-विमुख एवं खल हैं। वे सदा कुकर्म में लगे रहते और नित्य विषयभोगों मे ही डुबे रहते हैं। वहाँ की सभी औरतें भी कुटिल स्वभाव की, स्वेछचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचार वाली और व्यभीचारणी हैं। वे सदव्यवहार तथा सदाचार से सर्वथा शुन्य हैं। इस प्रकार वहाँ दुष्टों का ही निवास है।
उस वाष्कल नामक ग्राम में किसी समय एक बिन्दुग नामक ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधर्मी था। दुरात्मा और महापापी था। यद्यपि उसकी पत्नी बहुत सुन्दर थी, तो भी वो कुमार्ग पर ही चलता था। उसकी पत्नी का नाम चंचुला था, जो सदा उतम धर्म के पालन मे लगी रहती थी। तो भी वह दुष्ट ब्राह्मण उसे छोड़कर वैश्यागामी हो गया था। इस तरह कुकर्म में लगे हुए उस बिन्दुग के बहुत वर्ष व्यतीत हो गये। उसकी पत्नी चंचुला काम से पीड़ित होने पर भी स्वधर्म नाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई। परन्तु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वो भी दुराचारणी हो गयी।
इस तरह दुराचार में डुबे हुए उन मूढ़ चित्त वाले पति -पत्नी का बहुत सा समय व्यर्थ बित गया। तदन्नतर शुद्रजातिय वेश्या का पति बना हुआ वह दुषित बुद्धि वाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मरकर नरक में जा पड़ा। बहुत दिनों तक नरक का दुख भोग कर वह मुढ बुद्धि पापी विन्ध्य पर्वत पर भयंकर पिचाश हुआ।
इधर उस दुराचारी पति बिन्दुग के मर जाने पर वह मूढ ह्रदया चंचुला बहुत समय तक अपने पुत्रों के साथ अपने घर में ही रही।
एक दिन दैवयोग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह अपने भाई – बन्धुओं के साथ गोकर्ण प्रदेश में गयी। तीर्थयात्रियों के संग से उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थ के जल में स्नान किया। फिर वह साधारणतया (मेला देखने कि दृष्टि से) बन्धुजनों के साथ यत्र तत्र घुमने लगी। घुमती-घामती किसी देव मंदिर में गयी और वहाँ उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मण के मुख से भगवान शिव की परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उतम पौराणिक कथा सुनी। कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि जो स्त्री पुरुषों के साथ व्यभिचार करती है, वो मरने के बाद यमलोक जाती है। तब यमराज के दूत उनकी योनि में तपे हुए लोहे का परिध डालते है।” पौराणिक ब्राह्मण के मुख से ये वैराग्य बढ़ाने वाली कथा सुनकर चंचुला भय से व्याकुल होकर वहाँ पर कांपने लगी। कथा समाप्त हुई और सुनने वाले सब लोग बाहर चले गये। तब वह भयभीत नारी एकान्त में शिव पुराण कथा बोलने वाले ब्राह्मण देव से बोली – हे ब्राह्मण देव ! मैं अपने धर्म को नहीं जानती थी। इसलिये मेरे द्वारा बडा दुराचार हुआ है। स्वामिन् ! मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये। आज आपके वैराग्य रस से ओत प्रोत इस प्रवचन को सुनकर मुझे बडा भय लग रहा है। मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है । मुझ मुढ चित्त वाली पापीनी को धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दा के योग्य हूँ। कुत्सित विषयो में फंसी हुई हूँ और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ। हाय ! न जाने किस किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पड़ेगा और वहां कौन कौन बुद्धिमान पुरुष कुमार्ग में मन लगने वाली मुझ पापिनी का साथ देगा। मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मैं कैसे देखूंगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बांधेंगे तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकुंगी। नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े -टुकड़े किये जायेंगे, उस समय विशेष दुःख देने वाली उस महायतना को वहां मैं कैसे सहूंगी ? हाय ! मैं मरी गयी ! मैं जल गयी ! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकार से नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरह से पाप में ही डूबी रही हूँ। ब्राह्मण! आप ही मेरे गुरु, आप ही माता और आप ही पिता है। आपकी शरण में आई हूँ, मुझ दीन अबला पर आप ही उद्धार कीजिये।
अब सूत जी कहते है – शौनक ! इस प्रकार खेद और वैराग्य से युक्त चंचुला ब्राह्मण देवता के चरणों में गिर गयी। तब उन बुद्धिमान ब्राह्मण ने उसे कृपा पूर्वक उठाया और इस प्रकार कहा।
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चंचुला की प्रार्थना से ब्राह्मण का उसे पूरा शिव पुराण सुनाना (अध्याय 4)
ब्राह्मण बोले – नारी ! सौभाग्य की बात है कि भगवान शिव की कृपा से शिवपुराण की इस वैराग्य युक्त कथा को सुनकर तुम्हें समय पर चेत हो गया है। ब्राह्मणपत्नी ! तुम डरो मत। भगवान शिव की शरण में जाओ। शिव की कृपा से सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे भगवान शिव की कीर्तिकथा से युक्त उस परम वास्तु का वर्णन करूँगा, जिससे तुम्हे सदा सुख देने वाली उत्तम गति प्राप्त होगी। शिव की उत्तम कथा सुनने से ही तुम्हारी बुद्धि पश्चाताप से युक्त एवं शुद्ध हो गयी है। साथ ही तुम्हारे मन में विषयों के प्रति वैराग्य हो गया है। पश्चाताप ही पाप करने वाले पापियों के लिए सबसे बड़ा प्रायश्चित है। सदरुषों ने सब के लिए पश्चाताप को ही सब पापों का शोधक बताया है, पश्चाताप से ही सब पापोंं की शुद्धि होती है। जो पश्चाताप करता है, वही वास्तव में पापों का प्रायश्चित करता है; क्योंकि सतरुषों ने समस्त पापोंं की शुद्धि के लिए प्रायश्चित का उपदेश किया है, वह सब पश्चाताप से संपन्न हो जाता है। जो पुरुष विधि पूर्वक प्रायश्चित करके निर्भय हो जाता है, पर अपने कुकर्म के लिए पश्चाताप नहीं करता, उसे प्रायः उत्तम गति प्राप्त नहीं होती है। परन्तु जिसे अपने कुकृत्य पर हार्दिक पश्चाताप होता है, वह अवश्य उत्तम गति का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। इस शिव पुराण की कथा सुनने से जैसे चित की शुद्धि होती है, वैसे दूसरे उपयो से नहीं होती।
जैसे दर्पण साफ करने पर निर्मल हो जाता है , उसी प्रकार इस शिव पुराण की कथा से चित्त अत्यंत शुद्ध हो जाता है – इस में संशय नहीं है। मनुष्यों के शुद्ध चित में जगदम्बा पार्वती सहित भगवान शिव विराजमान रहते हैं। इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्री साम्ब सदाशिव के पद को प्राप्त होता है। इस उत्तम कथा का श्रवण समस्त मनुष्यों के लिए कल्याण का बीज है। अतः यथोचित ( शास्त्रोक्त ) मार्ग से इसकी आराधना अथवा सेवा करनी चाहिए। यह भवबंधन रूपी रोग का नाश करने वाली है। भगवान शिव की कथा को सुनकर फिर अपने हृदय में उसका मनन एवं निधि ध्यासन करना चाहिए। इससे पूर्णतः चित शुद्धि हो जाती है। चित शुद्धि होने से महेश्वर की भक्ति अपने दोनों पुत्रों ( ज्ञान और वैराग्य ) के साथ निश्चय ही प्रकट होती है। तत्पश्चात महेश्वर के अनुग्रह से दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। जो मुक्ति से वंचित है; उसे पशु समझना चाहिए; क्योंकि उसका चित माया के बंधन में आसक्त है। वह निश्चय ही संसार बंधन से मुक्त नहीं हो पाता।
ब्राह्मणपत्नी ! इसलिए तुम विषयों से मन को हटा लो और भक्ति भाव से इस भगवान शंकर की पावन कथा को सुनो। परमात्मा शंकर की इस कथा को सुनने से तुम्हारे चित की शुद्धि होगी और इससे तुम्हे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। जो निर्मल चित से भगवान शिव के चर्णारविंदों का चिंतन करता है, उसकी एक ही जन्म में मुक्ति हो जाती है। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँँ।
अब सूतजी कहते है – शौनक ! इतना कहकर वो श्रेष्ठ शिव भक्त ब्राह्मण चुप हो गए, उनका हृदय करुणा से आद्र हो गया था। वे शुद्ध चित्त महात्मा भगवान शिव के ध्यान में मग्न हो गए। उसके बाद बिन्दुग की पत्नी चंचुला मन ही मन प्रसन्न हो उठी। ब्राह्मण का उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रों में आनंद के आंसू छलक आये थे। वह ब्राह्मण पत्नी चंचुला हर्ष भरे ह्रदय से उन श्रेष्ठ ब्राह्रण के दोनो चरणों में गिर पडी। और हाथ जोड़ कर बोली – मैं कृतार्थ हो गयी। तत्पश्चात उठकर वैराग्य युक्त उतम बुद्धिवाली स्त्री, जो अपने पापोंं के कारण आतंकित थी, उस महान शिवभक्त ब्राह्मण से हाथ जोड़कर गदगद वाणी में बोली।
चंचुला ने कह – ब्राह्मण ! शिवभक्तो में श्रेष्ठ ! स्वामिन! आप धन्य है, परमार्थदर्शी हैं। और सदा परोपकार मे लगे रहते हैंं। इसलिये श्रेष्ठ साधु पुरुषों में प्रशंसा के योग्य हैंं। साधो ! मैं नरक के समुन्द्र में गिर रही हूँँ। आप मेरा उद्धार किजिये, उद्धार कीजिये। पौराणिक अर्थतत्व से संपन्न जिस सुन्दर शिव पुराण कि कथा को सुनकर मेरे मन मेंं संपूर्ण विषयों से वैराग्य उत्पन्न हो गया है। उसी इस शिवपुराण को सुनने के लिये मेरे मन मे बडी श्रद्धा हो रही है।
अब सूतजी कहते हैं – ऐसा कहकर, हाथ जोड़कर उनका अनुग्रह पाकर चंचुला उस शिव पुराण की कथा को सुनने की इच्छा मन में लिये उन ब्राह्मण देवता की सेवा में तत्पर हो वहाँँ रहने लगी। तदनन्तर शिव भक्तोंं मे श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धि वाले ब्राह्मण देवता ने उसी स्थान पर उस स्त्री को शिव पुराण की उतम कथा सुनाई। इस प्रकार उस गोकर्ण नामक स्थान में उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मण से उसने शिवपुराण की परम उतम कथा सुनी, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बढाने वाली तथा मुक्ति प्रदान करने वाली है। उस परम उत्तम कथा को सुनकर ब्राह्मणपत्नी अत्यंत कृतार्थ हो गयी। उसका चित शुद्ध हो गया। फिर भगवान शिव के अनुग्रह से उसके हृदय में शिव के सगुण रूप का चिंतन होने लगा। इस प्रकार उसने भगवान शिव में लगी रहने वाली उत्तम बुद्धि पाकर शिव के सचिदानंद स्वरूप का बारम्बार चिंतन आरम्भ किया। तत्पश्चात समय के पुरे होने पर भक्ति,ज्ञान और वैराग्य से युक्त हुई चंचुला ने अपने शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया। इतने में ही त्रिपुरशत्रु भगवान शिव का भेजा हुआ एक दिव्य विमान द्रुत गति से वहां पहुंचा, जो उनके अपने गणों से संयुक्त और भांति भांति के शोभा साधनों से सम्पन्न था। चंचुला उस विमान पर आरूढ़ हुई और भगवन शिव के श्रेष्ठ पार्षदों ने उसे तत्काल शिवपुरी में पहुंचा दिया। उसके सारे मल धूल गए थे। वह दिव्यरूपिणी दिव्याग्ना हो गयी थी। उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे। मस्तक पर अर्ध चंद्राकर का मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणोंं से विभूषित थी। शिवपुरी में पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेवजी को देखा। सभी मुख्य मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। गणेश, भृंगी, नन्दीश्वर तथा वीरभद्रेश्वर आदि उनकी सेवा में उत्तम भक्ति भाव से उपस्थित थे। उनकी अंगकांति करोड़ोंं सूर्यों की भांति प्रकाशित हो रही थी। कंठ में नीला चिन्ह शोभा पाता था। पांच मुख और प्रतेक मुख में तीन -तीन नेत्र थे। मस्तक पर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था। उन्होंने अपने वामांग भाग में गौरा देवी को बैठा रखा था, जो विद्युत– पुंज के सामान प्रकाशित थी। गौरीपति महादेवजी की कान्ति कपूर के सामान गौर थी। उनका सारा शरीर स्वेत भस्म से भासित था। शरीर पर स्वेत वस्त्र शोभा दे रहे थे। इस प्रकार परम उज्जवल भगवान शंकर का दर्शन कर के वह ब्राह्मण पत्नी चंचुला बहुत प्रसन्न हुई। अत्यंत प्रीतियुक्त होकर उसने बड़ी उतावली के साथ भगवान शिव को बारम्बार प्रणाम किया। फिर हाथ जोड़कर वह बड़े प्रेम,आनंद और संतोष से युक्त हो विनीत भाव से खड़ी हो गयी। उसके नेत्रों से आनन्दाश्रुओंं की अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया। उस समय भगवती पार्वती और भगवान शंकर ने उसे बड़ी करुणा के साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टि से उसकी और देखने लगे। पार्वती जी ने तो दिव्य रूप धारणी बिन्दुगप्रिया चंचुला को प्रेम पूर्वक अपनी सखी बना लिया। वह उस परमानन्दघन ज्योतिस्वरूप सनातन धाम में अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्य से संपन्न हो अक्षय सुख का अनुभव करने लगी।
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बिन्दुग का पिचाशयोनि से उद्धार करना (अध्याय-5)
चंचुला बोली – गिरिराज नन्दनी ! स्कन्दमाता उमा। मनुष्योंं ने सदा आपका सम्मान किया है। समस्त सुखोंं को देने वाली शम्भुप्रिये ! आप ब्रह्मस्वरुपिणी है। विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा सेव्य है। आप ही सगुणा और निर्गुणा है तथा आप आनन्दस्वरुपिणी आघा प्रकृति हैं। आप ही संसार की सृष्टि ,पालन और संहार करने वाली है। तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैंं। ब्रह्म, विष्णु और महेश्वर – इन तीनों देवताओंं का निवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करने वाली पराशक्ति आप ही हैं।
अब सूतजी कहते है – शौनक ! जिसे सदगति प्राप्त हो चूकी थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी। उसके नेत्रोंं में प्रेम के आँसू उमड़ आये थे। तब करुणा से भरी शंकर प्रिया भक्तवत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को संबोधित करके इस प्रकार कहा – पार्वती जी बोली – सखी चंचुले ! सुन्दरी ! मैं तुम्हारी इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो क्या वर मांगती हो ? तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी न देने योग्य नहीं हैं।
चंचुला बोली – निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँँ हैं, उनकी कैसी गति हुई है – यह मैंं नहींं जानती ! कल्याणमयी दिनवत्सले ! मैं अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँँ, वैसा ही उपाय कीजिये। महेश्वरी ! महादेवी ! मेरे पति एक शुद्र जातिय वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप में ही डुबे रहते थे। उनकी मौत मुझसे पहले हो गयी थी, ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए। गिरिजा बोली – बेटी ! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बड़ा पापी था। उसका अंतःकरण बहुत ही दुषित था। वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामूढ मरने के बाद नरक में अनगिनत बर्षो तक नरक में नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बन के बैठा है। इस समय वह पिचाश अवस्था में है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है। वह दुष्ट वहींं वायु पीकर रहता और वहींं सदा सब प्रकार कष्ट सहता है।
अब सूूतजी कहते है – शौनक ! गौरी देवी की यह बात सुनकर उतम व्रत का पालन करने वाली चंचुला पति के महान दुःख से दुःखी हो गयी। फिर मन को स्थिर कर के उस ब्राह्मन पत्नि ने व्यथित ह्रदय से महेश्ववरी को प्रणाम कर के पुनः पुछा।
चंचुला बोली – महेश्वरी! महादेवी! मुझपर कृपा कीजिये और दूषित कर्म करने वाले मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर उीजिये। देवी, कुत्सित बुद्धि वाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उतम गति प्राप्त हो सकती है, यह शीघ्र बताइये। आपको नमस्कार है।
पार्वतीजी ने कहा – तुम्हारा पति अगर शिव पुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पार कर के उत्तम गति का भागी हो सकता है।
अमृत के समान मधुर अक्षरोंं से युक्त गौरी देवी का वह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उन्हे बारंबार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापोंं की शुद्धि तथा उतम गति कि प्राप्ति के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना की कि, ” मेरे पति को शिवपुराण सुनाने कि व्यवस्था होनी चाहिये ” उस ब्राह्रणपत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी को बडी दया आ गयी। उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान शिव की उतम कीर्ति का गान करने वाले गन्धर्वराज तुम्बरु को बुलाकर उनसे प्रसन्नता पुर्वक इस प्रकार कहा – तुम्बरो ! तुम्हारी भगवान शिव में प्रीति हैं। तुम मेरे मन की बातोंं को जानकर मेरे अभिष्ट कार्यों को सिद्ध करने वाले हो। इसलिये मैंं तुमसे एक बात कहती हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी इस सखी के साथ शीघ्र ही विन्ध्यपर्वत पर जाओ। वहाँँ एक महाघोर और भयंकर पिचाश रहता है। उसका वृतांत तुम आरम्भ से ही सुनो। मैंं तुमसे प्रसन्नतापुर्वक सब कुछ बताती हूँँ। पूर्व जन्म मेंं वह पिशाच बिन्दुग नामक ब्राह्मण था। मेरी इस सखी चंचुला का पति था, परन्तु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया। स्नान – सन्ध्या आदि नित्यकर्म छोड़कर अपवित्र रहने लगा। क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मूढता छा गयी थी – वह कर्तव्याकर्तव्य में विवेक नहीं कर पाता था। अभक्ष्य भक्षण, सज्जनोंं से द्वेष और दुषित वस्तुओं का दान लेना – यही उसका स्वभाविक कर्म बन गया था। वह अस्त्र-शस्त्र लेकर हिंसा करता, बायें हाथ से खाता, दीनों को सताता और क्रूरता पूर्वक पराये घरोंं मे आग लगा देता था। चाण्डालोंं से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या के सम्पर्क मेंं रहता था। बडा दुष्ट था। वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग कर के दुष्टोंं के संग मे ही आनंद मानता था। वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही फंसा रहा। फिर अंतकाल आने पर उसकी मौत हो गयी। वह पापियों के भोगस्थान घोर यमपुर मेंं गया और वहाँँ बहुत से नरकोंं का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विन्ध्यपर्वत पर पिशाच बना हुआ है। वही वह दुष्ट पापोंं का फल भोग रहा है। तुम उसके आगे यत्न पूूर्वक शिवपुराण की उस दिव्य कथा का प्रवचन करो, जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापोंं का नाश करने वाली है। शिव पुराण कि कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म है। उससे उसका हृदय शीघ्र ही समस्त पापोंं से शुद्ध हो जायेगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा। उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिचाश को मेरी आज्ञा से विमान पर बैठा कर तुम भगवान शिव के समीप ले आओ।
अब सूूतजी कहते है – शौनक ! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बरु मन – ही – मन बडे प्रसन्न हुए। उन्होने अपने भाग्य की सराहना की। तत्पश्चात उस पिचाश की सती साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के प्रिये मित्र तुम्बुरु वेगपूर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये, जहाँँ वह पिचाश रहता था। वहाँँ उन्होनेंं उस पिशाच को देखा। उसका शरीर विशाल था। ठोढी बडी थी। वह कभी हंसता, कभी रोता, कभी उछलता था। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। भगवान शिव की उत्तम कृति का गान करने वाले महावली तुम्बुरु ने उस भयंकर पिशाच को पाशो मे बांध लिया। तदन्नतर तुम्बुरु ने शिवपुराण कि कथा बांंचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मंडप आदि की रचना की। इतने मे ही सम्पुर्ण लोकोंं मेंं बडे वेग से यह प्रचार हो गया कि देवी पार्वती की आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिव पुराण की उतम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरु विन्ध्यपर्वत पर गये हैं। फिर तो उस कथा के सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि भी शीघ्र ही वहाँँ जा पहुंचे। आदरपूर्वक शिव पुराण सुनने के लिये आये हुए लोगोंं का उस पर्वत पर बड़ा अद्भुत और कल्याणकारी समाज जुट गया। फिर तुम्बरु ने उस पिशाच को पासों में बांधकर आसन पर बैठाया और हाथ में वीणा लेकर गौरी -पति की कथा का आरंभ किया। पहली अर्थात विधेश्वर संहिता से लेकर सातवीं वायु संहिता तक महात्मय सहित शिवपुराण की कथा का उन्होंने स्पष्ट वर्णन किया। सातों संहिताओं सहित शिवपुराण का आदरपूर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पूर्ण रुप से कृतार्थ हो गये। उस परमपुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापोंं को धोकर उस पैशाचिक शरीर को त्याग दिया। फिर तो शीघ्र ही उसका रुप द्विव्य हो गया। अंगकान्ती गौर वर्ण की हो गयी। शरीर पर स्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार से सुशोभित आभुषण उसको अंगो को उद्धासित करने लगे। वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखर रुप हो गया। इस प्रकार दिव्य देहधारी रुप होकर श्रीमान बिन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वं भी पार्वतीवल्लभ भगवान शिव का गुनगान करने लगा। उसकी स्त्री को इस प्रकार से सुशोभित देख वे सभी देवर्षि बड़े विस्मित हुए। उनका चित परमानन्द से परिपूर्ण हो गया। भगवान महेश्वर का वह अद्भुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम कृतार्थ हो प्रेमपुर्वक श्री शिव का यशोगान करते हुए अपने अपने धाम को चले गये। दिव्यरुपधारी श्रीमान बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपुर्वक आकाश में स्थित हो बडी शोभा पाने लगे।
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गुणोंं का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शीघ्र ही शिवधाम में जा पहुंचा। वहाँ भगवान महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापूर्वक बिन्दुग का बडा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया। उसकी पत्नी चंचुला पार्वतीजी की सखी हो गयी। उस घनीभुत ज्योति स्वरुप परमानन्दमय सनातनधाम मे अविचल निवास पाकर वे दोनों दम्पति परम सुखी हो गये।
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शिवपुराण के श्रवण की विधि, पालन करने योग्य नियमों का वर्णन (अध्याय-6)
शौनक जी कहते हैं – महाप्राज्ञ ! व्यासशिष्य सूतजी । आपको नमस्कार है। आप धन्य है, शिव भक्तों में श्रेष्ठ हैंं। आपके महान गुण वर्णन करने योग्य हैं। अब आप कल्याणमय शिवपुराण कथा श्रवण की विधि बताइये, जिससे सभी श्रोताओं को उतम फल की प्राप्ति हो सके।
अब सूतजी कहते है – मुने शौनक ! अब मैं तुम्हे संपूर्ण फल की प्राप्ति के लिये शिवपुराण के श्रवन की विधि बता रहा हू्ँँ। पहले किसी ज्योतिष को बुलाकर दान मान से संतुष्ट करके अपने सहयोगी लोगोंं के साथ बैठकर बिना किसी विघ्न-बाधा के कथा की समाप्ति होने के उद्देश्य से शुद्ध मुहुर्त का अनुसंधान कराये और प्रयत्न पूर्वक देश देश में स्थान स्थान पर यह संदेश भेजे कि— हमारे यहा शिवपुराण की कथा होने वाली है। अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले लोगोंं को कथा सुनने के लिये अवश्य पधारना चाहिये। कुछ लोग भगवान श्रीहरि की कथा से बहुत दूर पड़ गये हैंं। कितने ही स्त्री, शुद्र आदि भगवान शंकर के कथा कीर्तन से वंचित रहते हैंं। उन सबको भी सूचना हो जाये, ऐसा प्रबंध करना चाहिये। जिस देश मेंं जो भगवान शिव के भक्त होंं तथा शिव कथा के लिये कीर्तन और श्रवण के लिये उत्सुक होंं, उन सबको आदर पूर्वक बुलवाना चाहिये और आये हुए लोगोंं का सब प्रकार से आदर सत्कार करना चाहिये। शिवमंदिर में, तीर्थ में, वनप्रान्त में अथवा घर में शिवपुराण की कथा सुनने के लिये उतम स्थान का निर्माण करना चाहिये। केले के पेड़ के खम्भोंं से सुशोभित एक ऊँँचा कथा मंडप तैयार करायेंं। उसे सब ओर फल फूूल आदि से तथा सुन्दर चंदोवे से अलंकृत करेंं और चारोंं ओर ध्वजा पताका लगाकर तरह तरह के सामानोंं से सजाकर सून्दर शोभा सम्पन्न बना देंं। भगवान शिव के प्रति सब प्रकार से उतम भक्ति करनी चाहिये। वहींं सब तरह से आन्नद का विधान करने वाले हैंं। परमात्मा भगवान शंकर के लिये दिव्य आसन जा निर्माण करना चाहिये तथा कथावाचक के लिये भी एक ऐसा दिव्य आसन बनाना चाहिये, जो उनके लिये सुखद हो सके। मुने ! नियमपुर्वक कथा सुनने वाले श्रोताओं के लिये भी यथायोग्य सुन्दर स्थानोंं की व्यवस्था करनी चाहिये। अन्य लोगों के लिये साधारण स्थान ही रखना चाहिये। जिसके मुख से निकली हुई वाणी देहधारियों के लिये कामधेनु के समान अभिष्ट फल देने वाली होती है, उस पुराणवेता विद्वान वक्ता के प्रति तुच्छ बुद्धि कभी नहीं करनी चाहिये। संसार मेंं जन्म तथा गुणोंं के कारण बहुत से गुरु होते है। पर उन सब मेंं पुराणोंं के ज्ञाता विद्वान ही परम गुरु माना गया है। पुराणवेता पवित्र, दक्ष, शांत इर्ष्या पर विजय पाने वाला, साधु और दयालु होने चाहिये। ऐसा प्रवचन कुशल विद्वान इस पुण्यमयी कथा को कहे। सुर्योदय से आरंभ करके साढ़े तीन पहर तक उत्तम बुद्धि वाले विद्वान पुरुष को शिवपुराण की कथा उतम रीति से बाँचनी चाहिये। मध्यान्ह काल में दो घडी तक कथा बंद रखनी चाहिये, जिससे कथा कीर्तन से अवकाश पाकर लोग मल – मुत्र का त्याग कर सके। कथा प्रारम्भ के दिन से एक दिन पहले व्रत ग्रहण करने के लिए वक्ता को क्षौर करा लेना चाहिए। जिन दिनों कथा हो रही हो, उन दिनों प्रयत्नपूर्वक प्रातः काल का सारा नित्यकर्म कम समय में ही कर लेना चाहिये। वक्ता के पास उसकी सहायता के लिये एक दूसरा वैसा ही विद्वान स्थापित करना चाहिये। वह भी सब प्रकार के संशयों को निवृत करने मेंं समर्थ और लोगोंं को समझाने में कुशल होंं। कथा मेंं आने वाले विघ्नोंं को दूर करने के लिये गणेश जी का पूजन करें। कथा के स्वामी भगवान शिव की तथा विशेषतः शिवपुराण की पुस्तक की भक्ति भाव से पुजा करे। तत्पश्चात उतम बुद्धि वाला श्रोता तन मन से शुद्ध एवं प्रसन्नचित हो आदरपूर्वक शिवपुराण की कथा को सुने। जो वक्ता और श्रोता अनेक प्रकार के कर्मो मेंं भटक रहे हो, काम आदि छह विकारों से युक्त हो, स्त्री में आसक्ति रखते हो और पाखंड पूर्ण बाते कहते हो, वे पुण्य के भागी नहीं होते। जो लौकिक चिंता तथा धन, घर एवं पुत्र आदि की चिंता को छोड़ कथा में मन लगाये रहते हैं, उन शुद्ध बुद्धि वाले पुरुषोंं को उतम फल की प्राप्ति होती है। जो श्रोता श्रद्धा और भक्ति से युक्त होते हैंं, दुसरे कर्मो में मन नहीं लगाते और मौन,पवित्र एवं उद्वेगशून्य होते हैं, वे ही पुण्य के भागी होते हैंं।
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महात्मय अंतिम अध्याय (1-7)
सूतजी बोलते है — शौनक ! अब शिवपुराण सुनने का व्रत लेने वाले पुरुषोंं के लिये जो नियम हैंं उसे भक्तिपूर्वक सुनो। नियमपूर्वक इस श्रेष्ठ कथा को सुनने से बिना किसी विघ्न-बाधा के उतम फल की प्राप्ति होती है। जो लोग दीक्षा से रहित है, उनका कथा श्रवण में अधिकार नहीं है। अतः मुने ! कथा सुनने की इच्छा वाले सब लोगोंं को पहले वक्ता से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। जो लोग नियम से कथा सुने, उनको ब्राह्रचर्य से रहना, भूमि पर सोना, पत्तल में खाना और प्रतिदिन कथा समाप्त होने पर ही अन्न ग्रहण करना चाहिये। जिसमेंं शक्ति हो वो पुराण की समाप्ति तक उपवास करके शुद्धता पूर्वक भक्तिभाव से शिवपुराण को सुने। इस कथा का व्रत लेने वाले पुरुष को प्रतिदिन एक ही बार हविष्यान्न भोजन करना चाहिए। जिस प्रकार से कथा श्रवण का नियम सुखपूर्वक साध सके, वैसा ही करना चाहिए। गरिष्ठ अन्न, दाल, जला अन्न, सेम, मसूर, भवदुषित तथा बासी अन्न को खाकर कथाव्रती पुरुष कभी कथा न सुने। जिसने कथा का व्रत ले रखा हो, वह पुरुष प्याज, लहसुन, हींग, गाजर, मादक वस्तु तथा अमीष कही जाने वाली वस्तुओंं को त्याग दें। कथा का व्रत लेने वाला पुरुष काम, क्रोध आदि छह विकारोंं को, ब्राह्मणों की निन्दा को तथा पतिव्रता और साधु-संतोंं की निन्दा को भी त्याग दे। कथाव्रती पुरुष प्रतिदिन सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा हार्दिक उदारता – इन सदगुणोंं को सदा अपनाये रहेंं। श्रोता निष्काम हो या सकाम, वह नियमपुर्वक कथा सुने। सकाम पुरुष अपनी अभिष्ट कामना को प्राप्त करता है और निष्काम पुरुष मोक्ष को पा लेता है। दरिद्र, क्षय रोगी, पापी, भाग्यहीन तथा संतानरहित पुरुष भी इस उतम कथा को सुने। काक, बन्ध्या आदि जो सात प्रकार प्रकार की दुष्टा स्त्रियाँँ हैंं, वे तथा जिसका गर्भ गिर जाता हो – इन सभी को शिवपुराण कि उत्तम कथा को सुननी चाहिये। मुने ! स्त्री हो या पुरुष, सबको यत्नपूर्वक विधि विधान से शिवपुराण की यह उतम कथा सुननी चाहिये।
महर्षे ! इस तरह शिवपुराण की कथा के पाठ एवं श्रवण संबन्धित यज्ञोत्सव की समाप्ति होने पर श्रोताओंं को भक्ती एवं प्रयत्नपूर्वक भगवान शिव कि पूजा की भांति पुराण पुस्तक की भी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर विधिपूर्वक वक्ता की भी पूजा करना आवश्यक है। पुस्तक को आच्छादित करने के लिये नवीन एवं सुन्दर बस्ता बनावेंं और उसे बांंधने के लिये ढृढ़ एवं दिव्य डोरी लगावे। फिर उसका विधिवत पूजन करेंं। मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार महान उत्स्व के साथ पुस्तक और वक्ता की विधिवत पूजा करके वक्ता की सहायता के लिये स्थापित हुए पंडित का भी उसी के अनुसार धन आदि के द्वारा उससे कुछ कम ही सत्कार करेंं। वहां आये हुए ब्राह्मणों को अन्न – धन आदि का दान करेंं। साथ ही गीत, वाद्य, और नृत्य आदि के द्वारा महान उत्सव रचायेंं। यदि श्रोता विरक्त हो तो उसके लिये कथा समाप्ति के दिन विशेष रुप से उस गीता का पाठ करना चाहिये, जिसे श्री रामचन्द्रजी के प्रति भगवान शिव ने कहा था। यदि श्रोता ग्रहस्थ हो तो उस बुद्धिमान को उस श्रवणकर्म कि शान्ति के लिये शुद्ध हविष्य द्वारा होम करना चाहिये। मुने ! रुद्रसंहिता के प्रत्येक श्लोक द्वारा होम करना उचित है अथवा गायत्री मंत्र से होम करना चाहिये; क्योंंकि यह पुराण वास्तव मे गायत्रीमय ही है। अथवा शिवपंचाक्षर मूल मंत्र से हवन करना उचित है। हवन करने की शक्ति न हो तो विद्वान पुरुष यथाशक्ति हवनिये हविष्य का ब्राह्मण को दान करेंं। न्युनातिरिक्ता रुप दोष की शान्ति के लिये भक्तिपूर्वक शिवसहस्त्र नाम का पाठ अथवा श्रवण करे। इससे सब कुछ सफल होता है, इसमे संशय नहीं है; क्योंंकि तीनोंं लोकोंं मेंं उस से बढ़कर कोइ वस्तु नहींं है। कथा – श्रवण सम्बन्धित व्रत कि पूर्णता कि सिद्धि के लिये ग्यारह ब्राह्मणों को मधु मिश्रित खीर, भोजन करायेंं और उन्हे दक्षिणा देंं। मुने ! यदि शक्ति हो तो तीन तोले सोने का एक सुन्दर सिंहासन बनवायेंं और उसपर उतम अक्षरों से लिखी अथवा लिखायी हुई शिवपुराण की पोथी विधिपूर्वक स्थापित करेंं। तत्पश्चात पुरुष उसकी आह्वान आदि विविध उपचारोंं से पूजा करके दक्षिणा चढायेंं। फिर जितेन्द्रियेंं आचार्य का वस्त्र आभुषण एवं गन्ध आदि से पूजन करके दक्षिणा सहित वह पुस्तक उन्हें समर्पित कर देंं। उत्तम बुद्धिवाला श्रोता इस प्रकार भगवान शिव के संतोष के लिये पुस्तक का दान करेंं। इस पुराण के उस दान के प्रभाव से भगवान शिव का अनुग्रह पाकर पुरुष भवबंधन से मुक्त हो जाता है। इस तरह विधि विधान का पालन करने पर श्रीसम्पन्न शिवपुराण सम्पूर्ण फल को देनेवाला तथा भोग और मोक्ष का दाता होता है।
मुने ! शिवपुराण का वह सारा महत्व, जो सम्पूर्ण अभिष्टोंं को देने वाला है, मैंने तुम्हें कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो? श्रीमान शिवपुराण सब पुराणोंं के भाल का तिलक माना गया है। यह भगवान शिव को अत्यंत प्रिये, रमणीय तथा भय रोग का निवारण करने वाला है। जो सदा भगवान शिव का ध्यान करते हैं, जिनकी वाणी भगवान शिव के गुणोंं की स्तुति करती हैंं, और जिनके दोनों कान उनकी कथा सुनती हैंं, इस जीव जगत मे उन्ही का जन्म लेना सफल है। वे निश्चय ही संसार सागर से पार हो जाते हैंं। भिन्न भिन्न प्रकार के समस्त गुण जिनके सच्चिदानन्दमय स्वरुप का कभी स्पर्श नही करते, जो अपनी महिमा से जगत के बाहर और भीतर भासमान है तथा जो मन के बाहर और भीतर वाणी एवं मनोवृतिरूप में प्रकाशित होते हैं, उन अनन्त आनन्दघनरुप परम शिव की मैंं शरण लेता हूँ।
श्री शिवपुराण महात्मय समाप्त : ओम नमः शिवाय:
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