अध्याय —1 : प्रयाग में सूतजी से मुनियोंं का तुरन्त पाप नाश करने वाले साधन के विषय में प्रश्न
जो आदि और अन्त में (और मध्य में भी) नित्य मंगलमय है, जिनकी समानता अथवा तुलना कहींं भी नहींं है, जो आत्मा के स्वरुप को प्रकाशित करने वाले देवता (परमात्मा) हैंं, जिनके पाँच मुख है, और जो खेल ही खेल में अनायास जगत की रचना, पालन और संहार तथा अनुग्रह एवं तिरोभावरुप पाँँच प्रबल कर्म करते रहते हैंं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर अमर ईश्वर अम्बिकापति भगवान शंकर का मैंं मन -ही- मन चिन्तन करता हूँँ।
व्यास जी कहते हैं – जो धर्म का महान क्षेत्र है और जहाँँ गंगा यमुना का संगम हुआ है, उस परमपुण्यमय प्रयाग मेंं, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है। सत्यव्रत मेंं तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी महाभाग महात्मा मुनियोंं ने एक विशाल ज्ञानयज्ञ का आयोजन किया। उस ज्ञानयज्ञ का समाचार सुनकर पौराणिक शिरोमणी व्यास शिष्य महामुनी सूतजी वहाँ मुनियोंं का दर्शन करने के लिये आये। सूतजी को आते देखकर सब मुनि हर्ष से खिल उठे और अत्यन्त प्रसन्नचित हो उन्होनेंं उनका विधिवत स्वागत सत्कार किया। तत्पश्चात उन प्रसन्न महात्माओंं ने उनकी विविध स्तुति करके विनयपूूर्वक हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा —
सर्वज्ञ विद्वान रोमहर्षणजी ! आपका भाग्य बड़ा भारी है, इसी से आपने व्यास जी के मुख से अपनी प्रसन्नता के लिये ही संपूर्ण पुराण विद्या प्राप्त की है। इसलिए आप आश्चर्यस्वरुप कथाओं के भंडार है — ठीक उसी तरह, जैसे रत्नाकार समुद्र बड़े बड़े सारभूत रत्नोंं का आगार है। तीनों लोकोंं में भूत, वर्तमान और भविष्य तथा और भी जो कोइ वस्तु है; वह आप से अज्ञात नहीं है। आप हमारे सौभाग्य से इस यज्ञ का दर्शन करने के लिये यहाँँ पधारे हैंं और इसी हमारा कुछ कल्याण करने वाले हैं, क्योंंकि आपका आगमन निरर्थक नहीं हो सकता। हमने पहले भी आपसे शुभाशुभ तत्व का वर्णन सुना है; किन्तु उससे हमे तृप्ति नहीं होती; हमेंं उसे सुनने की बारंबार इच्छा होती है। उतम बुद्धिवाले सूतजी इस समय हमें एक ही बात सुननी है। यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होने पर भी आप उस विषय का वर्णन करेंं। घोर कलयुग आने पर मनुष्य पूण्यकर्म से दुर रहेगें। दुराचार मेंं फस जायेगें और सब के सब सत्य भाषण से मुह फेर लेंगे, दूसरोंं की निन्दा मेंं तत्पर रहेगें। पराये धन को हड़प लेने की इच्छा करेंगें। उनका मन परायी स्त्रियों में आसक्त रहेगा तथा वे दूसरे प्राणियोंं की हिंसा करेंगे। अपने शरीर को ही आत्मा समझेंगे। मूढ, नास्तिक और पशुबुद्धि रखने वाले होंगे,माता पिता से द्वेष करेंगे। ब्राह्मण लोभरुपी ग्राह के ग्रास बन जायेंगे। वेद बेचकर जीविका चलायेंगे। धन का उपार्जन करने के लिये ही विद्या का अभ्यास करेंगे और मद से मोहित रहेंगे। अपनी जाति के कर्म छोड़ देंगे। प्रायः दूसरों को ठगेंगे, तीनों काल की सन्ध्योपासना से दूर रहेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य रहेंगे। समस्त क्षत्रिय भी स्वधर्म का त्याग करने वाले होंगे। कुसंगी, पापी और व्यभिचारी होंगे। उनमे शौर्य का अभाव होगा। वे कुत्सित शौर्य कर्म से जीविका चलायेंगे, शुद्रोंं का सा बर्ताव करेंगे और उनका चित्त काम में नहीं लगेगा। वैश्य संस्कार-भष्ट, स्वधर्मत्यागी, कुमार्गी, धनोपार्जन-परायण तथा नाप तौल अपनी कुत्सित विचार का परिचय देने वाले होंगे। इसी तरह शूद्र ब्राह्मणों के आचार में तत्पर होंगे, अर्थात वे अपना कर्म धर्म छोड़कर उज्जवल वेष-भूषा से विभुषित हो व्यर्थ घुमेंगे। वे स्वभावतः ही अपने धर्म का त्याग करने वाले होंगे। उनके विचार धर्म के प्रतिकूल होंगे। वे कुटिल और द्विज निन्दक होंगे। यदि धनी हुए तो कुकर्म मे लग जायेंगे। विद्वान हुए तो वाद -विवाद करने वाले होंगे। अपने को कुलिन मानकर चारो वर्णो के साथ वैवाहिक संबन्ध स्थापित करेंगे, समस्त वर्णो को अपने सम्पर्क से भ्रष्ट करेंगे। वे लोग अपनी अधिकार सीमा से बाहर जाकर द्विजोचित सत्कर्मो का अनुष्ठान करने वाले होंगे। कलयुग की स्त्रियां प्रायः सदाचार से भ्रष्ट और सदा पति का अपमान करने वाली होगी। सास-ससुर से द्रोह करेंंगी। किसी से भय नहीं मानेंंगी। मलिन भोजन करेंगी। कुत्सित हाव-भाव मे तत्पर होंगी। उनका शील-स्वभाव बहुत ही बुरा होगा और वे और अपने पति की सेवा से सदा ही विमुख रहेंगी।
सूतजी ! इस प्रकार जिसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है, जिन्होंने अपने धर्म का त्याग कर दिया है, ऐसे लोगों को इहलोक और परलोक में उतम गति कैसे प्राप्त होंगी — इसी चिन्ता से हमारा मन सदा व्याकुल रहता है। परोपकार के समान दुसरा कोइ धर्म नहीं है। अतः जिस छोटे से छोटे उपाय से इन सब पापोंं का तत्काल नाश हो जाये, उसे इस समय कृृपा पूर्वक बताइयें; आप समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता हैंं।
अब व्यासजी बोलते हैं– उन भावितात्मा मुनियोंं की यह बात सुनकर सूतजी मन -ही-मन भगवान शिव का स्मरण करके उनसे इस प्रकार बोले —
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अध्याय—2 : शिवपुराण का परिचय
सूतजी कहते है- साधु महात्माओंं ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। आपका यह प्रश्न तीनोंं लोकोंं का हित करने वाला है। मैं गुरुदेव व्यास का स्मरण करके आप लोगोंं के स्नेहवश इस विषय का वर्णन करुंगा। आप आदरपुर्वक सुने। सबसे उतम जो शिवपुराण है, वह वेदान्त का सार सर्वस्व है तथा वक्ता और श्रोता का समस्त पापराशियोंं से उद्धार करने वाला है। इतना ही नहीं, वह परलोक में भी परमार्थ वस्तुओं को देने वाला है, कलि की कल्मषराशि का विनाश करने वाला है। उसमें भगवान शिव के उत्तम यश का वर्णन है। ब्राह्मणों ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को देने वाला यह पुराण सदा ही अपने प्रभाव की दृष्टि से वृद्धि या विस्तार को प्राप्त हो रहा है। विप्रवरोंं ! उस सर्वोतम शिवपुराण के अध्ययन मात्र से वे कलयुग के पाप में आसक्त जीव श्रेष्ठतम गति को प्राप्त हो जायेंगे। कलयुग के महान उत्पात भी तब तक जगत में निर्भय होकर विचरेंगे, जब तक यहाँँ शिव पुराण का उदय नहीं होगा। इसे वेद के तुल्य माना गया है। इस वेद कल्प पुराण का सबसे पहले भागवान शिव ने ही प्रणयन किया था। विद्येश्वर संहिता, रुद्र संहिता, विनायक संहिता, उमा संहिता, मातृ संहिता, एकादश रुद्रसंहिता, कैलाश संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, सहस्त्र-कोटिरुद्र संहिता, वायवीय संहिता तथा धर्मसंहिता, इस प्रकार इस पुराण के बारह भेद या खण्ड है। ये बारह संहितायें अत्यन्त पुण्यमयी मानी गयी है। ब्राह्मणों ! अब मैं उनके श्लोकों की संख्या बता रहा हूँँ। आप लोग वह सब आदरपूर्वक सुने। विद्येश्वर संहिता में दस हजार श्लोक हैंं। रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता और मातृसंहिता इनमें से प्रत्येक में आठ -आठ हजार श्लोक हैंं। ब्राह्मणों ! एकादसरुद्रसंहिता में तेरह हजार, कैलाशसंहिता में छह हजार, सतरूद्रसंहिता में तीन हजार, कोटिरुद्रसंहिता में नौ हजार, सहस्त्रकोटिरुद्रसंहिता में ग्यारह हजार, वायवीयसंहिता में चार हजार तथा धर्मसंहिता में बारह हजार श्लोक हैंं। इस प्रकार मूल शिवपुराण की श्लोकोंं की संख्या एक लाख है। परन्तु व्यासजी ने इसे चौबीस हजार श्लोकोंं में संक्षिप्त कर दिया है। पुराणोंं की क्रम संख्या के विचार से इस शिवपुराण का स्थान चौथा है। इसमें सात संहिताएं है।
पूर्वकाल में भगवान शिव ने श्लोक संख्या की दृष्टि से सौ करोड़ श्लोकोंं का एक ही पुुराण ग्रन्थ ग्रथित किया था। सृष्टि के आदि में निर्मित हुआ वह पुराण – साहित्य अत्यन्त विस्तृत था। फिर द्वापर आदि युगों में, द्वैपायन (व्यास) आदि महर्षियोंं ने जब पुराण का अठ्ठारह भागोंं में विभाजन कर दिया, उस समय संंपूर्ण पुराणोंं का संक्षिप्त स्वरुप केवल चार लाख श्लोकोंं का रह गया। उस समय उन्होंने शिवपुराण का चौबीस हजार श्लोकों में प्रतिपादन किया। यही इसके श्लोकोंं की संख्या है। यह वेद तुल्य पुराण सात संहिताओं में बंटा हुआ है। इसकी पहली संहिता का नाम विद्येश्वरसंहिता है, दूसरी रुद्रसंहिता समझनी चाहिये, तीसरे का नाम सतरूद्रसंहिता, चौथी का कोटीरुद्रसंहिता, पाँचवीं का उमासंहिता, छठी का कैलाशसंहिता और सातवीं का वायवीयसंहिता है। इस प्रकार यह सात संहितायें मानी गयी है। इन सात संहिताओं से युक्त यह द्विव्य शिवपुराण वेदोंं के तुल्य प्रमाणिक तथा सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है। यह निर्मल शिव पुराण भगवान शिव के द्वारा ही प्रतिपादित है। इसे शैवशिरोमणी भगवान व्यास ने संंक्षेप में संकलित किया है। यह समस्त जीव समुदाय के लिये उपकारक, त्रिबिधिक तापोंं का नाश करने वाला, तुलना रहित एवं सत्पुरुषोंं को कल्याण प्रदान करने वाला है। इसमे वेदान्त-विज्ञानमय, प्रधान तथा निष्कपट (निष्काम) धर्म का प्रतिपादन किया गया है। यह पुराण ईर्ष्या रहित अन्तःकरण वाले विद्वानोंं के जानने की वस्तु है । इसमेंं श्रेष्ठ मंत्र-समूहोंं का संकलन है। यथा धर्म, अर्थ और काम -इस त्रिवर्ग कि प्राप्ति के साधन का भी वर्णन है। यह उत्तम शिवपुराण सब पुराणोंं मे श्रेष्ठ है। वेद – वेदान्त में वैद्यरुप से विलसित परम वस्तु – परमात्मा का इसमें गान किया गया है। जो बड़े आदर से इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान शिव का प्रिय होकर परमगति को प्राप्त कर लेता है।
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अध्याय—3 : साध्य-साधन आदि का विचार तथा श्रवण, कीर्तन और मनन
व्यास जी कहते हैं — सूत जी यह वचन सुनकर वे सब महर्षि बोले –“अब आप हमें वेदान्तसार-सर्वस्वरूप अद्भुत-शिव पुराण की कथा सुनाइए।”
सूत जी ने कहा – आप सब महर्षिगण रोग-शोक से रहित कल्याणमय भगवान शिव का स्मरण करके पुराणप्रवर शिवपुराण की,जो वेदके सार तत्त्व से प्रकट हुआ है, की कथा सुनिए। शिव पुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य –इन तीनों का प्रीति पूर्वक गान किया गया है और वेदान्तवेद्य सध्द्स्तु का विशेष रूप से वर्णन है। इस वर्तमान कल्प में जब सृष्टिकर्म आरम्भ हुआ था, उन दिनों छह कुलों के महर्षि परस्पर वाद-विवाद करते हुए कहने लगे –“अमुक वस्तु सबसे उत्कृष्ट है और अमुक नहीं है।” उनके इस विवाद ने अत्यंत महान रूप धारण कर लिया। तब वे सब-के-सब अपनी शंका के समाधान के लिए सृष्टिकर्ता अविनाशी ब्रह्मा जी के पास गए और हाथ जोड़कर विनयभरी वाणी में बोले –“ हे प्रभो ! आप सम्पूर्ण जगत को धारण-पोषण करने वाले तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि सम्पूर्ण तत्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष कौन है ?”
ब्रह्माजी ने कहा – जहाँ से मन सहित वाणी उन्हें न पाकर लौट आती है तथा जिनसे ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र और इंद्र आदि से युक्त यह सम्पूर्ण जगत समस्त भूतों और इन्द्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है, वे ही ये देव, महादेव सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। ये ही सबसे उत्कृष्ट हैं। भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है। दूसरे किसी उपाय से कहीं इनका दर्शन नहीं होता। रूद्र, हरि, हर तथा अन्य देवेश्वर सदा उत्तम भक्ति भाव से उनका दर्शन करना चाहते हैं। भगवान शिव में भक्ति होने से मनुष्य संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। देवता के कृपाप्रसाद से उनमें भक्ति होती है और भक्ति से देवता का कृपाप्रसाद प्राप्त होता है। ठीक उसी तरह जैसे अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है। इसलिए तुम सब ब्रह्मर्षि भगवान शंकर का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिए भूतल पर जाकर वहां सहस्त्रों वर्षों तक चालू रहने वाले एक विशाल यज्ञ का आयोजन करो। इन यज्ञपति भगवान शिव की कृपा से वेदोक्त विद्या के सारभूत साध्य-साधन का ज्ञान होता है।
शिवपद की प्राप्ति ही साध्य है। उनकी सेवा है साधन है तथा उनके प्रसाद से जो जो नित्य-नैमित्तिक आदि फलों की और से नि:स्पृह होता है, वही साधक है। वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करके उनके महान फल को भगवान शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही परमेश्वर पद की प्राप्ति है। वही सालोक्य आदि के क्रम से प्राप्त होने वाली मुक्ति है। उन-उन पुरुषों की भक्ति के अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है। उस भक्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं, जिनका साक्षात महेश्वर ने ही प्रतिपादन किया है। उनमें से सार भूत साधन को संक्षिप्त करके, मैं बता रहा हूँ। कान से भगवान के नाम-गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका मनन –इन तीनों को महान साधन कहा गया है।
तात्पर्य यह है की महेश्वर का श्रवण, कीर्तन और मनन करना चाहिए – यह श्रुति का वाक्य हम सबके लिए प्रमाणभूत है। इसी साधन से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि में लगे हुए आप लोग परम साध्य को प्राप्त हों। लोग प्रत्यक्ष वस्तु को आँख से देखकर उनमेंं लिप्त होते हैं। परन्तु जिस वस्तु का कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता उसे श्रवणनेंद्रीय द्वारा जान-सुनकर मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए चेष्टा करता है। अतः पहला साधन श्रवण ही है, उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्व को सुन कर श्रेष्ठ बुद्धि वाला विद्वान पुरुष अन्य साधन-कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे। क्रमशः मनन पर्यंत इस साधन की अच्छी तरह साधना कर लेने पर उसके द्वारा सालोक्य आदि के क्रम से धीरे धीरे भगवान शिव का संयोग प्राप्त होता है। पहले सारे अंगों के रोग नष्ट हो जाते हैं। फिर सब प्रकार का लौकिक आनंद भी विलीन हो जाता है।
भगवान शंकर की पूजा, उनके नामों के जप तथा उनके गुण, रूप विलास और नामों का युक्ति परायण चित्त के द्वारा जो निरंतर प्रतिशोधन या चिंतन होता है, उसको मनन कहा गया है; वह महेश्वर की कृपा दृष्टि से उपलब्ध होता है।
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अध्याय— 4 : ब्रह्मकुमार सतनकुमार का ब्रह्मधाम को जाना
सूत जी कहते हैं – मुनीश्वरों ! इस साधन का महात्म्य बताने के प्रसंग में मैं आप लोगों के लिए एक प्राचीन वृत्तांत का वर्णन करूंगा, उसे ध्यान देकर आप सुनें। पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यास देव जी सरस्वती नदी के सुन्दर तट पर तपस्या कर रहे थे। एक दिन सूर्यतुल्य तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान सनतकुमार अकस्मात वहां जा पहुंचे। उन्होंने मेरे गुरु को वहां देखा। वे ध्यान में मग्न थे। उससे जगने पर उन्होंने ब्रह्मपुत्र सनतकुमार जी को अपने सामने उपस्थित देखा। देखकर वे बड़े वेग से उठे और उनके चरणों में प्रणाम करके मुनि ने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओं के बैठने योग्य आसन भी अर्पित किया, तब प्रसन्न हुए भगवान सनतकुमार विनीतभाव से खड़े हुए व्यास जी से गंभीर वाणी में बोले —
‘मुने ! तुम सत्य वस्तु का चिंतन करो वह सत्य पदार्थ भगवान शिव ही हैं, जो तुम्हारे साक्षात्कार के विषय होंगे। भगवान् शंकर का श्रवण, कीर्तन,मनन — ये तीन महत्व साधन कहे गए हैं। ये तीनों ही वेदसम्मत हैं। पूर्वकाल में दूसरे दूसरे साधनों के संभ्रम में पड़कर घूमता-घामता चंद्राचल पर जा पहुंचा और वहां तपस्या करने लगा। तदनंतर महेश्वर शिव की आज्ञा से भगवान नंदिकेश्वर वहां आये। उनकी मुझपर बड़ी दया थी। वे सबके साक्षी तथा शिव गणों के स्वामी भगवान नंदिकेश्वर मुझे स्नेहपूर्वक मुक्ति का उत्तम साधन बताते हुए बोले भगवान शंकर का श्रवण कीर्तन और मनन ये तीनों साधन वेद सम्मत हैं और मुक्ति के साक्षात कारण हैं; यह बात स्वयं भगवान शिव ने मुझसे कही है। अतः ब्रह्मण ! तुम श्रवण आदि तीनों साधनों का अनुष्ठान करो!’ व्यास जी से बारम्बार ऐसा कह कर अनुगामियों सहित ब्रह्मपुत्र सनतकुमार परम सुन्दर ब्रह्मधाम को चले गए। इस प्रकार पूर्वकाल के इस उत्तम वृत्तान्त का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है।
ऋषि बोले- सूत जी ! श्रवण आदि तीन साधनों को आपने मुक्ति का उपाय बताया है। किन्तु जो श्रवण आदि तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य किस उपाय का अवलंबन करके मुक्त हो सकता है। किस साधनभूत कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है ?
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अध्याय— 5 : महाशिवरात्रि पूजन व लिंगपूजन का महत्त्व बताना
नंदिकेश्वर कहते हैं – तदनन्तर वे दोनों – ब्रह्मा और विष्णु भगवान शंकर को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ उनके दायें-बायें भाग में चुपचाप खड़े हो गये। फिर उन्होंने वहाँ साक्षात प्रकट पूजनीय महादेवजी को श्रेष्ठ आसन पर स्थापित करके पवित्र पुरुष-वस्तुओं द्वारा उनका पूजन किया।
दीर्घकाल तक अविकृत भाव से सुस्थिर रहने वाली वस्तुओं को ‘पुरुष-वस्तु’ कहते हैं और अल्पकाल तक ही टिकनेवाली क्षणभंगुर वस्तुएँ ‘प्राकृत वस्तु’ कहलाती हैं। इस तरह वस्तु के ये दो भेद जानने चाहिये।(किन पुरुष-वस्तुओं से उन्होंने भगवान शिव का पूजन किया, यह बताया जाता हैं। )
हार, नुपुर, केयूर, किरीट, मणिमय कुंडल, यज्ञोपवित, उत्तरीय वस्त्र, पुष्प-माला, रेशमी वस्त्र, मुद्रिका, पुष्प, ताम्बुल, कपूर, चन्दन एवं अगुरुका अनुलेप, धूप, दीप, श्वेतछत्र, व्यंजन, ध्वजा, चँवर तथा अन्यान्य दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुँच से परे था, जो केवल पशुपति (परमात्मा) के ही योग्य थे और जिन्हें पशु (बद्धजीव) कदापि नहीं पा सकते थे, उन दोनों ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया। सबसे पहले वहाँ ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान शंकर की पूजा की। इससे प्रसन्न हो भक्तिपूर्वक भगवान शिव ने वहाँ नम्रभाव से खड़े हुए उन दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा –
महेश्वर बोले – पुत्रों ! आज का दिन एक महान दिन है। इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हूँ। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान – से – महान होगा। आज की यह तिथि ‘महाशिवरात्रि’ के नाम से विख्यात होकर मेरे लिये परम प्रिय होगी। इसके समय में जो मेरे लिंग (निष्कल – अंग – आकृति से रहित निराकार स्वरूप के प्रतीक ) वेर (सकल – साकाररूप के प्रतीक विग्रह) की पूजा करेगा, वह पुरुष जगत की सृष्टि और पालन आदि कार्य भी कर सकता हैं।
जो महाशिवरात्रि को दिन-रात निराहार एवं जितेन्द्रिय रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चलभाव से मेरी यथोचित पूजा करेगा, उसको मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। एक वर्ष तक निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह सारा केवल महाशिवरात्रि को मेरा पूजन करने से मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर हैं, उसी प्रकार यह महाशिवरात्रि तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि मेंं मेरी स्थापना आदि का मंगलमय उत्सव होना चाहिये।
पहले मैं जब ‘ज्योतिर्मय स्तम्भरूप से प्रकट हुआ था, वह समय मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा है। जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होने पर पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की ही झाँकी करता हैं, वह मेरे लिये कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है। उस शुभ दिन को मेरे दर्शनमात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ-साथ मेरा पूजन भी किया जाये तो इतना अधिक फल प्राप्त होता हैं कि उसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता।
वहाँ पर मैं लिंग रूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था। अत: उस लिंग के कारण यह भूतल ‘लिंगस्थान’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ। जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सके, इसके लिये यह अनादि और अनंत ज्योति:स्तम्भ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यंत छोटा हो जायगा। यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाये तो यह प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुडाने वाला है। अग्नि के पहाड़-जैसा जो यह शिवलिंग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान ‘ अरुणाचल’ नामसे प्रसिद्ध होगा। यहाँ अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान में निवास करने या मरने से जीवों का मोक्ष तक हो जायगा।
मेरे दो रूप है – ‘सकल’ और ‘निष्कल’। दूसरे किसी के ऐसे रूप नहीं हैं। पहले मैं स्तम्भरूप से प्रकट हुआ; फिर अपने साक्षात-रूपसे। ‘ब्रह्मभाव’ मेरा ‘निष्कल’ रूप है और ‘महेश्वरभाव’ ‘सकल’ रूप। ये दोनों मेरे ही सिद्ध रुप हैं। मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ। कला युक्त और अकल मेरे ही स्वरूप हैं। ब्रह्मरूप होने के कारण मैं ईश्वर भी हूँ। जीवों पर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है। ब्रह्मा और केशव ! मैं सबसे बृहत और जगत की वृद्धि करने वाला होने के कारण ‘ब्रह्म’ कहलाता हूँ। सर्वत्र समरूप से स्थित और व्यापक होने से मैं ही सबका आत्मा हूँ। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक (आत्मा या ईश्वर से भिन्न) जो जगत-सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं, मेरे अतिरिक्त दूसरे किसीके नहीं हैं; क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ। पहले मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिये ‘निष्कल’ लिंग प्रकट हुआ था। फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के निमित्त मैं साक्षात जगदीश्वर ही ‘सकल’ रूप में तत्काल प्रकट हो गया। अत: मुझ मेंं जो ईशत्त्व हैं, उसे ही मेरा सकल रूप जानना चाहिये तथा जो यह मेरा निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध करनेवाला है। यह मेरा ही लिंग (चिन्ह) है। तुम दोनों प्रतिदिन वहाँ रहकर इसका पूजन करो। यह मेरा ही स्वरुप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है। लिंग और लिंगी में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंग का महान पुरुषों को भी पूजन करना चाहिये। मेरे एक लिंग की स्थापना करने का यह फल बताया गया है कि उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है। यदि एक के बाद दूसरे शिवलिंग की भी स्थापना कर दी गयी, तब तो उपासक को फल रूप से मेरे साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है। प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण कर्म है। शिवलिंग के अभाव में सब ओर से सवेर (मुर्तियुक्त) होनेपर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता।
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अध्याय 6 से 9 : भगवान शिव के लिंग एवं साकार विग्रह की पूजा के रहस्य तथा महत्त्व
सूतजी कहते हैं – शौनक ! जो श्रवण, कीर्तन और मनन – इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थ न हो, वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके नित्य उसकी पूजा करे तो संसार-सागर से पार हो सकता है। वंचना अथवा छल न करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार धनराशि ले जाये और उसे शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति की सेवा के लिये अर्पित कर दे। साथ ही निरंतर उस लिंग एवं मूर्ति की पूजा भी करे। उसके लिये भक्ति भाव से मंडप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना करे तथा उत्सव रचाये। वस्त्र, गंध, पुष्प, धूप, दीप तथा पूजा और शाक आदि व्यंजनों से युक्त भांति-भांति के भक्ष्य भोजन अन्न नैवेद्य के रूप में समर्पित करे। छत्र, ध्वजा, व्यंजन, चामर तथा अन्य अन्गो सहित राजोपचार की भांति सब सामान भगवान शिव के लिंग एवं मूर्ति को चढायेंं। प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा यथाशक्ति जप करे। आह्वान से लेकर विसर्जनत्तक सारा कार्य प्रतिदिन भक्तिभाव से सम्पन्न करेंं। इस प्रकार शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति में भगवान शंकर की पूजा करने वाला पुरुष श्रवणादि साधनों का अनुष्ठान न करे तो भी भगवान शिव की प्रसन्नता सिद्धि प्राप्त कर लेता हैं। पहले के बहुत-से महात्मा पुरुष लिंग तथा शिवमूर्ति की पूजा करने मात्र से भवबंधन से मुक्त हो चुके हैं।
ऋषियों ने पूछा – मुर्ति में ही सर्वत्र देवताओं की पूजा होती हैं (लिंग में नहीं), परन्तु भगवान शिव की पूजा सब जगह मुर्ति में और लिंग में भी क्यों की जाती हैं ?
सूतजी ने कहा – मुनीश्वरों ! तुम्हारा यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यंत अद्भुत हैं। इस विषय में महादेवजी ही वक्ता हो सकते हैं। दूसरा कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता। इस प्रश्न के समाधान के लिये भगवान शिव ने जो जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरूजी के मुख से जिस प्रकार सुना है, उसी तरह क्रमश: वर्णन करूँगा। एकमात्र भगवान शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण ‘निष्कल’ (निराकार) कहे गये हैं। रूपवान होनेके कारण उन्हें ‘सकल’ भी कहा गया हैं। इसलिए वे सकल और निष्कल दोनों हैं। शिव के निष्कल – निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिंग भी निराकार ही प्राप्त हुआ हैं। अर्थात शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक हैं। इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता हैं अर्थात शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरुप का प्रतीक होता हैं। सकल और अकल (समस्त अंग-आकार-सहित निराकार) रूप होने से ही वे ‘ब्रह्म’ शब्द से कहे जानेवाले परमात्मा हैं। वही कारण हैं कि सब लोग लिंग (निराकार) और मूर्ति (साकार) दोनों में ही सदा भगवान शिव की पूजा करते हैं।
शिव से भिन्न जो दूसरे – दूसरे देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं। इसलिये कहीं भी उनके लिये निराकार लिंग नहीं उपलब्ध होता।
पूर्वकाल में बुद्धिमान ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार मुनि ने मंदराचल पर नंदिकेश्वर से इसी प्रकार का प्रश्न किया था।
सनत्कुमार बोले – भगवन ! शिव से भिन्न जो देवता हैं। उन सबकी पूजा के लिये सर्वत्र प्राय: वेर (मूर्ति) मात्र ही अधिक संख्या में देखा और सुना जाता हैं। केवल भगवान शिव की ही पूजा में लिंग और वेर दोनों का उपयोग देखने में आता हैं। अत: कल्याणमय नंदिकेश्वर ! इस विषय में जो तत्त्व की बात हो, उसे इस प्रकार बताइये, जिससे अच्छी तरह समझमें आ जाये।
नंदिकेश्वर ने कहा – निष्पाप ब्रह्मकुमार ! आपके इस प्रश्न का हम-जैसे लोगों के द्वारा कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता; क्योंकि यह गोपनीय विषय हैं और लिंग साक्षात ब्रह्म का प्रतीक है। तथापि आप शिवभक्त हैं। इसलिये इस विषय में भगवान शिव ने जो कुछ बताया है, उसे ही आपके समक्ष कहता हूँ। भगवान शिव ब्रह्मस्वरूप और निष्कल (निराकार) हैं; इसलिये उन्हीं की पूजा में निष्कल लिंग का उपयोग होता हैं। सम्पूर्ण वेदों का यही मत है।
सनतकुमार बोले – महाभाग योगीन्द्र ! आपने भगवान शिव तथा दूसरे देवताओं के पूजन में लिंग और वेर के प्रचार का जो रहस्य विभागपूर्वक बताया हैं, वह यथार्थ हैं। इसलिये लिंग और वेर की आदि उत्पत्ति का जो उत्तम वृत्तान्त हैं, उसी को मैं इस समय सुनना चाहता हूँ। लिंग के प्राकट्य का रहस्य सूचित करनेवाला प्रसंग मुझे सुनाइये।
इसके उत्तर में नंदीकेश्वर ने भगवान महादेव के निष्कल स्वरूप लिंग के आविर्भाव का प्रसंग सुनाना आरम्भ किया। उन्होंने ब्रह्मा तथा विष्णु के विवाद, देवताओं की व्याकुलता एवं चिंता, देवताओं का दिव्य कैलास-शिखर पर गमन, उनके द्वारा चंद्रशेखर महादेव का स्तवन, देवताओं से प्रेरित हुए महादेवजी का ब्रह्मा और विष्णु के विवाद-स्थल में आगमन तथा दोनों के बीच में निष्कल आदि-अंतरहित भीषण अग्निस्तम्भ के रूप में उनका आविर्भाय आदि प्रसंगों की कथा कही। तदनंतर श्रीब्रह्मा और विष्णु दोनों के द्वारा उस ज्योतिर्मय स्तम्भ की ऊँचाई और गहराई का थाह लेने की चेष्ठा एवं केतकी-पुष्प के शाप-वरदान आदि के प्रसंग भी सुनाये।
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अध्याय — 10 : पाँच कृत्यों का प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर-मन्त्र की महत्ता
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा – प्रभो ! सृष्टि आदि पाँच कृत्यों के लक्षण क्या है, यह हम दोनों को बताइये।
भगवान शिव बोले – मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन हैं, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ।
ब्रह्मा और अच्युत ! ‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’ – ये पाँच ही मेरे जगत-संबंधी कार्य है, जो नित्यसिद्ध है। संसार की रचना का जो आरम्भ हैं, उसी को सर्ग या ‘सृष्टि’ कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी ‘स्थिति’ है। उसका विनाश ही ‘संहार’ है। प्राणों के उत्क्रमण को ‘तिरोभाव’ कहते है। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा ‘अनुग्रह’ हैं। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करने वाले हैं। पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु हैं। वह सदा मुझ में ही अचल भाव से स्थिर रहता है। मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में , संहार अग्निमें, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित हैं। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती हैं। आग सबको जला देती हैं। वायु सबको एक स्थान से दुसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहित करता है। विद्वान पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये। इन पाँच कृत्यों का भार वहन करने के लिये ही मेरे पाँच मुख है। चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पाँचवाँ मुख है। पुत्रोंं ! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार मेरी विभूतिस्वरुप ‘रूद्र’ और ‘महेश्वर’ में दो अन्य उत्तम कृत्य-संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं। परन्तु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रूद्र और महेश्वर अपने कर्म को भूले नहीं हैं। इसलिए मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं।
मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूप भूप मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। वह महामंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ॐ ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला हैं। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। वह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव ‘ॐ’ नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम-रूपात्मक सारा जगत तथा वेद उत्पन्न स्त्री-पुरुष वर्ग रूप दोनों कुल इस प्रणव-मन्त्र से व्याप्त हैं। यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक हैं। इसी से पंचाक्षर-मन्त्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक हैं। वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमश: प्रकाश में आया है (‘ॐ नम:शिवाय’ यह पंचाक्षर-मन्त्र हैं)। इस पंचाक्षर-मन्त्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेदवाले हैं।
अ इ उ ऋ लू – ये पाँच मुलभुत स्वर हैं तथा व्यंजन भी पाँच – पाँच वर्णों से युक्त पाँच वर्गवाले हैं।
उसी से शिरोमंत्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए है और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं। उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है; परन्तु इस प्रणव एवं पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है। इस मन्त्र समुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं। मेरे सकल स्वरूप से सम्बन्ध रखनेवाले सभी मन्त्रराज साक्षात भोग प्रदान करने वाले और शुभकारक (मोक्षप्रद) हैं।
नंदिकेश्वर कहते हैं – तदनंतर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजी ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णु को पर्दा करनेवाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना कर कमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश किया। मन्त्र-तंत्र में बतायी हुई विधि के पालन पूर्वक तीन बार मन्त्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी। फिर उन शिष्यों ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने-आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोडकर उनके समीप खड़े हो उन देवेश्वर जगद्गुरु का स्तवन किया।
ब्रह्मा और विष्णु बोले – प्रभो ! आप निष्कलरूप हैं। आपको नमस्कार हैं। आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते है। आपको नमस्कार हैं। आप सबके स्वामी हैं। आपको नमस्कार हैं। आप सर्वात्मा को नमस्कार हैं अथवा सकल-स्वरुप आप महेश्वर को नमस्कार है। आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं। आपको नमस्कार हैं। आप प्रणव लिंग वाले हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करने वाले आपको नमस्कार हैं। आपके पाँच मुख है। आप परमेश्वर को नमस्कार है। पंच ब्रह्मस्वरुप पाँच कृत्य वाले आपको नमस्कार है। आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं। आपके गुण और शक्तियाँ अनंत हैं, आपको नमस्कार है। आपके सकल और निष्कल दो रूप है। आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है।
नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेज से।
नम: सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने।।
नम: प्रणववाच्याय नम: प्रणवलिंगिने।
नम: सृष्टयादिकों च नम: पंचमुलाय ते।।
पञ्चब्रह्मस्वरूपाय पंचकृत्याय ते नम:।
आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यमनन्तगुणशक्तये।।
सकलाकलरूपाय शम्भवे गुरवे नम:। (शिवपुराण वि.सं – १०/२८)
इन पद्योंद्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।
महेश्वर बोले – ‘आर्द्रा’ नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है। सूर्य की संक्रान्ति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव-जप कोटि गुने जप का फल देता है। ‘मृगशिरा’ नक्षत्र का अंतिम भाग तथा ‘पुर्नवसु’ का आदिम भाग पूजा, होम और तर्पण आदि के लिये सदा आर्द्रा के समान ही होता हैं – यह जानना चाहिये। मेरा या मेरे लिंग का दर्शन प्रभातकाल में ही – प्रात: और संगव (मध्यान्ह के पूर्व) काल में करना चाहिये। मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है। पूजा करनेवालों के लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊँचा हैं। इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को चाहिये कि वे वेर (मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर लिंग का ही पूजन करें। लिंग का ॐकार मन्त्र से और वेर का पंचाक्षर मन्त्र से पूजन करना चाहिये। शिवलिंग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवा कर उत्तम द्रव्यमय उपचारों में पूजा करनी चाहिये। इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है।
इस प्रकार उन दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव वहींं अन्तर्धान हो गये।
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अध्याय- 11 : शिवलिंग की स्थापना, उसके लक्षण और पूजन की विधि का वर्णन
ऋषियों ने पूछा – सूतजी ! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिये ? उसका लक्षण क्या है ? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिये, किस देश-काल में करनी चाहिये और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिये ?
सूतजी ने कहा – महर्षियों ! मैं तुम लोगों के लिये इस विषय का वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में नदी आदि के तट पर अपनी रूचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिये, जहाँ नित्य पूजन हो सके। पार्थिव द्रव्य से, अपनी रूचि के अनुसार क्ल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिव-लिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है। सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग की यदि पूजा की जाय तो वह तत्काल पूजा का फल देने वाला होता है। यदि चल प्रतिष्ठा
करनी हो तो इसके लिये छोटा-सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है और यदि अचलप्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा माना गया है। उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिये। शिवलिंग का पीठ मंडलाकार (गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खाट के पाये की भांति ऊपर-नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिये। ऐसा लिंग- पीठ महान फल देनेवाला होता है। पहले मिट्टी से, प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से
शिवलिंग का निर्माण हो, उसीसे उसका पीठ भी बनाना चाहिये। यही स्थावर (अचलप्रतिष्ठावाले) शिवलिंग की विशेष बात है। चर (चलप्रतिष्ठावाले) शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपादान होना चाहिये। किन्तु बाणलिंग के लिये यह नियम नहीं है। लिंग की लम्बाई निर्माण कर्ता या स्थापना करने वाले यजमान के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिये। ऐसे ही शिवलिंग को उत्तम कहा गया है। इससे कम लम्बाई हो तो फल में कमी आ जाती है, अधिक हो तो कोई दोष की बात नहीं हैं। चर लिंग में भी वैसा ही नियम है। उसकी लम्बाई कम-से-कम कर्ता के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिये। उससे छोटा होने पर अल्प फल मिलता है। किन्तु उससे अधिक होना दोष की बात नहीं है। यजमान को चाहिये कि वह पहले शिल्प शास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाये, जो देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो। उसका गर्भगृह बहुत ही सुंदर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो। उसे नौ प्रकार के रत्नों से विभूषित किया गया हो। उसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार होंं। जहाँ शिवलिंग की स्थापना करनी हो, उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत,मोती, मूँगा, गोमद और हीरा – इन नौ रत्नों को तथा अन्य महत्त्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मन्त्रों के साथ छोड़े। सद्योजात आदि पाँच वैदिक मन्त्रों द्वारा
(ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नम:।
भत्रे भवेनातिभवे भवस्व मां भनेभद्ववाय नम:।।
ॐ वामदेवाय नमो जेष्ठाय नम: श्रेष्ठाय नमो रुद्राय
नम: कालाय नम: कलविकरणाय नमो बलविकारानाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नम: सर्वभुतदमनाय नमो मनोंमश्वाय नम:। )
शिवलिंग का पाँच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की अनेक आहुतियाँ दे और परिवार सहित मेरी पूजा करके गुरुस्वरूप आचार्य को धन से तथा भाई-बंधुओं को मनचाही वस्तुओं से संतुष्ट करे। याचकों को जड (सुवर्ण, गृह एवं भू-सम्पत्ति) तथा चेतन
(गौ आदि) वैभव प्रदान करे। स्थावर-जंगम सभी जीवों को यत्नपूर्वक संतुष्ट करके एक गड्डे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के रत्न भरकर सद्योजातादि वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेवजी का ध्यान करे। तत्पश्चात नादघोष से युक्त महामंत्र ओंकार (ॐ) का उच्चारण करके उक्त गड्डे में शिवलिंग की स्थापना करके उसे पीठ से संयुक्त करे। इस प्रकार पीठयुक्त लिंग की स्थापना करके उसे नित्य-लेप (दीर्घकालतक टिके रहनेवाले मसाले) से जोडकर
स्थिर करे। इसीप्रकार वहाँ परम सुंदर वेर (मूर्ति) की भी स्थापना करनी चाहिये। सारांश यह कि भूमि संस्कार आदि की सारी विधि जैसी लिंग प्रतिष्ठा के लिये कही गयी है,स्थावर लिंग की सींचने आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिये और जंगम लिंग को आहार एवं जल आदि देकर तृप्त करना उचित है। उन स्थावर-जंगम जीवों को सुख पहुँचने में अनुरक्त होना भगवान् शिव का पूजन है, ऐसा विद्वान पुरुष मानते है। (यों चराचर जीवों को ही भगवान शंकर के प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिये।)
इस तरह महालिंग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका पूजन करे। अपनी शक्ति के
अनुसार नित्य पूजा करनी चाहिये तथा देवालय के पास ध्वजारोपण आदि करना चाहिये। शिवलिंग साक्षात शिव का पद प्रदान करनेवाला है। अथवा चर लिंग में षोडशोपचारों द्वारा यथोचित रीती से क्रमश: पूजन करे। यह पूजन भी शिवपद प्रदान करनेवाला है। आह्वान, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन, अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र एवं यज्ञोपवीत,गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल-समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन – ये सोलह उपचार हैं। अथवा अर्घ्य से लेकर नैवेद्य तक विधिवत पूजन करे। अभिषेक, नैवेद्य, नमस्कार और तर्पण- ये सब यथाशक्ति नित्य करे। इस तरह किया हुआ शिवका पूजन शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है। अथवा किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिंग में, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग में, देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग में, अपने-आप प्रकट हुए स्वयम्भूलिंग में तथा अपने द्वारा नूतन स्थापित हुए शिवलिंग में भी उपचार समर्पणपूर्वक जैसे-तैसे पूजन करने से या पूजन की सामग्री देने से भी मनुष्य ऊपर जो कुछ कहा गया हैं, वह सारा फल प्राप्त कर लेता हैं। क्रमश: परिक्रमा और नमस्कार करने से भी शिवलिंग शिवपद की प्राप्ति कराने वाला होता है। यदि निम्नपूर्वक शिवलिंग का दर्शनमात्र कर लिया जाय तो वह भी कल्याणप्रद होता है। मिटटी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेर-पुष्प,
फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से भी अपनी रूचि के अनुसार शिवलिंग बनाकर तदनुसार
उसका पूजन करे अथवा प्रतिदिन दस हजार प्रणव मंत्र का जप करे अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्त्र प्रणव का जप किया करे। यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति कराने वाला है, ऐसा जानना चाहिये। जपकाल में मकारांत प्रणव का उच्चारण मन की शुद्धि करने वाला होता है। समाधि में मानसिक जप का विधान है तथा अन्य सब समय भी उपांशु जप ( धीमें स्वर में उच्चारण करना की दूसरा कोई सुन न सके। ऐसे जप को उपांशु कहते हैं।) ही करना चाहिये। नाद और बिंदु से युक्त ओंकार के उच्चारण को विद्वान पुरुष ‘समानप्रणव’ कहते है। यदि प्रतिदिन
आदरपूर्वक दस हजार पंचाक्षर मन्त्र का जप किया जाये अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्त्र का ही जप किया जाय तो उसे शिवपद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये। ब्राह्मणों के लिये आदि में प्रणव से युक्त पंचाक्षर-मन्त्र अच्छा बताया गया है। कलश से किया हुआ स्नान, मन्त्र की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्यसे पवित्र अंत:करणवाला ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु – इन सबको उत्तम माना गया हैं। द्विजों के लिये ‘नम: शिवाय’ के उच्चारण का विधान है।
द्विजेतरों के लिये अंत में नम: पद के प्रयोग की विधि हैं अर्थात वे ‘शिवाय नम:’ इस मन्त्र का उच्चारण करें। स्त्रियों के लिये भी कहीं-कहीं विधिपूर्वक नमोऽन्त उच्चारण का ही विधान हैं अर्थात वे भी ‘शिवाय नम:’ का ही जप करें। कोई-कोई ऋषि ब्राह्मण की स्त्रियों के लिये नम: पूर्वक शिवाय के जप की अनुमति देते हैं अर्थात वे ‘नम: शिवाय’ का जप करें। पंचाक्षर मन्त्र का पाँच करोड़ जप करके मनुष्य भगवान् सदाशिव के समान हो जाता है। एक, दो, तीन अथवा चार करोड़ का जप करनेसे क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है।
अथवा मन्त्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक-पृथक एक- एक लाख जप करें अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ ही जितने अक्षर हों उतने लाख जप करें। इस तरह के जप को शिव पद की प्राप्ति कराने वाला समझना चाहिये। यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक सहस्त्र जप के क्रम से पंचाक्षर मन्त्र का दस लाख जप पूरा कर लिया जाय और प्रतिदिन ब्राह्मण-भोजन कराया जाय तो उस मन्त्र से अभीष्ट कार्य की सिद्धि होने लगती है।
ब्राह्मण को चाहिये कि वह प्रतिदिन प्रात:काल एक हजार आठ बार गायत्री का जप करे। ऐसा होने पर गायत्री क्रमश:शिव का पद प्रदान करनेवाली होती है। वेदमंत्रों और वैदिक सूक्तों का भी नियमपूर्वक जप करना चाहिये। वेदों का पारायण भी शिवपद की प्राप्ति कराने वाला हैं, ऐसा जानना चाहिये। अन्यान्य जो बहुत-से मन्त्र हैं,उनका भी जितने अक्षर हों, उतने लाख जप करें। इसप्रकार जो यथाशक्ति जप करता हैं, वह क्रमश: शिवपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। अपनी रूचि के अनुसार किसी एक मन्त्र को अपनाकर मृत्युपर्यन्त प्रतिदिन उसका जप करना चाहिये अथवा ‘ॐ’ इस मन्त्र का प्रतिदिन एक सहस्त्र जप करना चाहिये। ऐसा करनेपर भगवान शिवकी आज्ञा से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है।
जो मनुष्य भगवान् शिवके लिये फुलवाड़ी या बगीचे आदि लगता है तथा शिव के सेवाकार्य के लिये मन्दिर में झाड़ने-बुहारने आदि की व्यवस्था करता हैं, वह इस पुण्यकर्म को करके शिवपद प्राप्त कर लेता है। भगवान शिव के जो काशी आदि क्षेत्र हैं, उनमें भक्तिपूर्वक नित्य निवास करें। वह जड़, चेतन सभीको भोग और मोक्ष देनेवाला होता है। अत: विद्वान पुरुष को भगवान शिवके क्षेत्र में आमरण निवास करना चाहिये। पुण्यक्षेत्र में स्थित बावड़ी, कुआँ और पोखरे आदि को शिवगंगा समझना चाहिये। भगवान शिव का ऐसा ही वचन है। वहाँ स्नान, दान और जप करके मनुष्य भगवान शिवको प्राप्त कर लेता है। अत: मृत्युपर्यन्त शिव के क्षेत्र का आश्रय लेकर रहना चाहिये। जो शिव के क्षेत्र में अपने किसी मृत सम्बन्धी का दाह, दशाह, मासिक श्राद्ध, सपिण्डीकरण अथवा वार्षिक श्राद्ध करता है अथवा कभी भी शिव के क्षेत्र में अपने पितरों को पिंड देता है, वह तत्काल सब पापों से मुक्त हो जाता और अंत में शिवपद पाता है। अथवा शिवके क्षेत्र में सात, पाँच, तीन या एक ही रात निवास कर ले। ऐसा करनेसे भी क्रमश: शिवपद की प्राप्ति होती है। लोक में अपने-अपने वर्ण के अनुरूप सदाचार का पालन करनेसे भी मनुष्य शिवपद को प्राप्त कर लेता है। वर्णानुकूल आचरण से तथा भक्ति भाव से वह अपने सत्कर्म का अतिशय फल पाता हैं, कामना पूर्वक किये हुए अपने कर्म के अभीष्ट फल को शीघ्र ही पा लेता है। निष्कामभाव से किया हुआ सारा कर्म साक्षात शिवपद की प्राप्ति करनेवाला होता है।
दिन के तीन विभाग होते है – प्रात:, मध्यान्ह और सायान्ह। इन तीनों में क्रमश: एक-एक प्रकार के कर्म का सम्पादन किया जाता है। प्रात:काल को शास्त्रविहित नित्यकर्म के अनुष्ठान का समय जानना चाहिये। मध्यान्हकाल सकाम- कर्म के लिये उपयोगी हैं तथा सायंकाल शांंति- कर्म के उपयुक्त हैं, ऐसा जानना चाहिये।
इसी प्रकार रात्रि में भी समय का विभाजन किया गया है। रात के चार प्रहरों में से जो बीच के दो प्रहर हैं, उन्हें निशीधकाल कहा गया है। विशेषत: उसी काल में की हुई भगवान शिव की पूजा अभीष्ट फल को देनेवाली होती है – ऐसा जानकर कर्म करने वाला मनुष्य यथोक्त फलका भागी होता है। विशेषत: कलियुग में कर्म से ही फल की सिद्धि होती है। अपने-अपने अधिकार के अनुसार ऊपर कहे गये किसी भी कर्म के द्वारा शिवाराधना करने वाला पुरुष यदि सदाचारी है और पाप से डरता है तो वह उन-उन कर्मों का पूरा-पूरा फल अवश्य प्राप्त कर लेता है।
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अध्याय – 12 : मोक्षदायक पुण्य क्षेत्रों का वर्णन, तीर्थों में पाप से बचे रहने की चेतावनी
सूतजी बोले – विद्वान एवं बुद्धिमान महर्षियों ! मोक्षदायक शिव क्षेत्रों का वर्णन सुनो। तत्पश्चात मैं लोकरक्षा के लिये शिव सम्बन्धी आगमों का वर्णन करूँगा।
पर्वत, वन और काननों सहित इस पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन हैं। भगवान् शिव की आज्ञा से पृथ्वी सम्पूर्ण जगत को धारण करके स्थित है। भगवान् शिव ने भूतल पर विभिन्न स्थानों में वहाँ के निवासियों को कृपापूर्वक मोक्ष देने के लिये शिव क्षेत्र का निर्माण किया है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियों ने अपना वासस्थान बनाकर अनुगृहित किया है। इसलिए उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया हैं तथा अन्य बहुत-से तीर्थ क्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकों की रक्षा के लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं। तीर्थ और क्षेत्र में जाने पर मनुष्य को सदा स्नान, दान, और जप आदि करना चाहिये; अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषों का भागी होता हैं। जो मनुष्य इस भारतवर्ष के भीतर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह अपने पुण्य के फल से ब्रह्मलोक में वास करके पुण्य क्षय के पश्चात पुन: मनुष्य-योनि में ही जन्म लेता हैं। (पापी मनुष्य पाप करके दुर्गति में ही पड़ता हैं।) ब्राह्मणों ! पुण्यक्षेत्र में पाप कर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता हैं। अत: पुण्यक्षेत्र में निवास करते समय सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अथवा थोडा सा भी पाप न करें।
सिन्धु और शतद्रु (सतलज) नदी के तट पर बहुत-से पुण्यक्षेत्र हैं। सरस्वती नदी परम पवित्र और सात मुखवाली कही गयी हैं अर्थात उसकी साठ धाराएँ हैं। विद्वान पुरुष सरस्वती के उन-उन धाराओं के तटपर निवास करे तो वह क्रमश: ब्रह्मपद को पा लेता है। हिमालय पर्वत में निकली हुई पुण्य सलिला गंगा सौ मुखवाली नदी है, उसके तटपर काशी-प्रयाग आदि अनेक पुण्यक्षेत्र हैं। वहाँ मकर राशि के सूर्य होने पर गंगा की तटभूमि पहले से भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती हैं। शोणभद्र नदी की दस धाराएँ हैं, वह बृहस्पति के मकर राशि में आने पर अत्यंत पवित्र तथा अभीष्ट फल देनेवाला हो जाता हैं। उस समय वहां स्नान और उपवास करने से विनायक पद की प्राप्ति होती है। पुण्य सलिला महानदी नर्मदा के चौबीस मुख (स्त्रोत) हैं। उसमें स्नान तथा उसके तटपर निवास करनेसे मनुष्य को वैष्णव पद की प्राप्ति होती है। तमसा के बारह तथा रेवा के दस मुख हैं। परम पुण्यमयी गोदावरी के इक्कीस मुख बताये गये हैं। वह ब्रह्म हत्या तथा गोवध के पाप का भी नाश करनेवाली एवं रूद्रलोक देनेवाली हैं। कृष्णावेणी नदी का जल बड़ा पवित्र हैं। वह नदी समस्त पापों का नाश करनेवाली है। उसके अठाराह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है। तुंगभद्रा के दस मुख हैं। वह ब्रह्म लोक देनेवाली है। पुण्य सलिला सुवर्ण-मुखरी के नौ मुख कहे गये हैं। ब्रह्म लोक से लौटे हुए जीव उसी के तट पर जन्म लेते हैं। सरस्वती नदी, पम्पासरोवर, कन्याकुमारी अंतरीम तथा शुभकारक श्वेत नदी – ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं। इनके तटपर निवास करने से इन्द्र लोक की प्राप्ति होती है। सह्य पर्वत से निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है। उसके सत्ताईस मुख बताये गये हैंं। वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली है। उसके तट स्वर्ग लोक की प्राप्ति कराने वाले तथा ब्रह्मा और विष्णुका पद देनेवाले हैं। कावेरी के जो तट शैव क्षेत्र के अंतर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देने के साथ ही शिवलोक प्रदान करनेवाले भी हैं।
नैमिषारण्य तथा बद्रिकाश्रम में सूर्य और बृहस्पति के मेष राशि में आने पर यदि स्नान करे तो उस समय वहाँ किये हुए स्नान पूजन आदि को ब्रह्मलोक की प्राप्ति करनेवाला जानना चाहिये। सिंह और कर्क राशि में सूर्य की संक्राति होने पर सिन्धु नदी में किया हुआ स्नान तथा केदार तीर्थ के जल का पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना गया है। जब बृहस्पति सिंह राशि में स्थित हों, उस समय सिंह की संक्राति से युक्त भाद्रपद मास में यदि गोदावरी के जल में स्नान किया जाये तो वह शिवलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है, ऐसा पूर्वकाल में स्वयं भगवान शिव ने कहा था। जब सूर्य और बृहस्पति कन्या राशि में स्थित हों, तब यमुना और शौंणभद्र में स्नान करे। वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजी के लोक में महान भोग प्रदान करानेवाला होता हैं, यह महर्षियों की मान्यता है। जब सूर्य और बृहस्पति तुला राशि में स्थित हों, उस समय कावेरी नदी में स्नान करेंं। वह स्नान भगवान् विष्णु के वचन की महिमा से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला माना गया हैं। जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशि पर आ जायें, तब मार्गशीर्ष (अगहन) के महीने में नर्मदा में स्नान करने से श्रीविष्णु लोक की प्राप्ति हो सकती है। सूर्य और बृहस्पति के धनराशी में स्थित होने पर सुवर्ण मुखरी नदी में किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान करनेवाला होता हैं, जैसा कि ब्रह्माजी का वचन है। जब सूर्य और बृहस्पति मकर राशि में स्थित हों, उस समय माघ मास में गंगाजी के जल में स्नान करना चाहिये। ब्रह्माजी का कथन हैं कि वह स्नान शिवलोक के पश्चात ब्रह्मा और विष्णु के स्थानों में सुख भोगने पर अंत में मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। माघ मास में तथा सूर्य के कुम्भ राशि में स्थित होने पर फाल्गुन मास में गंगाजी के तटपर किया हुआ श्राद्ध, पिंडदान अथवा तिलोदक-दान पिता और नाना दोनों कुलों के पितरों की अनेकों पीढ़ियों का उद्धार करने वाला माना गया है। सूर्य और बृहस्पति जब मीन राशि में स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदी में किये गये स्नान की ऋषियों ने प्रशंसा की है। उन-उन महीनों में पूर्वोक्त तीर्थों में किया हुआ स्नान इंद्रपद की प्राप्ति कराने वाला होता हैं। विद्वान पुरुष गंगा अथवा कावेरी नदी का आश्रय लेकर तीर्थवास करे। ऐसा करने से तत्काल किये हुए पाप का निश्चय ही नाश हो जाता है।
रुद्रलोक प्रदान करनेवाले बहुत-से क्षेत्र हैं। ताम्रपर्णी और वेगवती – ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोक की प्राप्ति रूप फल देने वाली हैं। इन दोनों के तट पर कितने ही स्वर्गदायक क्षेत्र हैं। इन दोनों के मध्य में बहुत-से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं। वहाँ निवास करने वाला विद्वान पुरुष वैसे फल का भागी होता है। सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावना के साथ मन में दया भाव रखते हुए विद्वान पुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिये। अन्यथा उसका फल नहीं मिलता। पुण्य क्षेत्र में किया हुआ थोडा-सा पुण्य भी अनेक प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है। तथा वहाँ किया हुआ छोटा-सा पाप भी महान हो जाता है। यदि पुण्य क्षेत्र में रहकर ही जीवन बिताने का निश्चय हो तो उस पुण्य संकल्प से उसका पहले का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्य को ऐश्चर्यदायक कहा गया है। ब्राह्मणों ! तीर्थ वास जनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापों का नाश कर देता है। तीर्थ में किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है। वह कई कल्पोंं तक पीछा नहीं छोड़ता है।
पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति। पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं महद्न्यपि जायते।।
तत्कालं जीवनार्थचेत पुण्येन श्रयमेष्यति। पुण्यगैश्वर्य: प्राहु: कायिकं याचिकं तथा।।
मानसं च तथा पापं तादृशं नाश्येद द्विजा:। मानसं वज्रलेपं तुल्यकल्पकल्पानुगं तथा।। (शिवपुराण, विद्येश्वर संहिता १३ / ३६-३८)
वैसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता हैं, अन्यथा नहीं। वाचिक पाप जप से तथा कायिक पाप शरीर को सुखाने-जैसे कठोर तप से नष्ट होता हैं; अत: सुख चाहने वाले पुरुष को देवताओं की पूजा करते और ब्राह्मणों को दान देते हुए पाप से बचकर ही तीर्थ में निवास करना चाहिये।
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अध्याय— 13 : सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, संध्यावन्दन, प्रणव-जप, गायत्री-जप, दान, न्यायत: धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदि की विधि एवं महिमा का वर्णन
ऋषियों ने कहा – सूतजी ! अब आप शीघ्र ही हमें वह सदाचार सुनाइये, जिससे विद्वान पुरुष पुण्य लोकों पर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करनेवाले धर्ममय आचार तथा नरक का कष्ट देने वाले अधर्ममय आचारों का भी वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले – सदाचार का पालन करने वाला विद्वान ब्राह्मण ही वास्तव में ‘ब्राह्मण’ नाम धारण करने का अधिकारी है। जो केवल वेदोक्त आचारका पालन करने वाला एवं वेद का अभ्यासी हैं, उस बाह्मण की ‘विप्र’ संज्ञा होती है। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या – इनमेंं से एक-एक गुण से ही युक्त होने पर उसे ‘द्विज’ कहते हैं। जिसमें स्वरूप मात्रा से ही आचार का पालन देखा जाता हैं, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजा का सेवक (पुरोहित, मंत्री आदि) हैं, उसे ‘क्षत्रिय-ब्राह्मण’ कहते हैं। जो ब्राह्मण कृषि तथा वाणिज्य कर्म करने वाला है और कुछ-कुछ ब्राह्मणोंचित आचार का भी पालन करता हैं, वह ‘वैश्य-ब्राह्मण’ है तथा जो स्वयं ही ‘खेत जोतता (हल चलाता) हैं, उसे ‘शुद्र-ब्राह्मण’ कहा गया है।
जो दूसरों के दोष देखने वाला और परद्रोही हैं, उसे ‘चांडाल-द्विज’ कहते है। इसी तरह क्षत्रियों में भी जो पृथ्वी का पालन करता है, वह ‘राजा’ है। दूसरे लोग राजत्वहीन क्षत्रिय माने गये हैं। वैश्यों में भी जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है, वह ‘वैश्य’ कहलाता है। दूसरों को ‘वणिक’ कहते हैं। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा में लगा रहता हैं, वही वास्तव में ‘शुद्र’ कहलाता है। जो शुद्र हल जोतने का काम करता हैं, उसे ‘वृषल’ समझना चाहिये। सेवा, शिल्प और कर्षण से भिन्न वृत्ति का आश्रय लेनेवाले शुद्र ‘दस्यु’ कहलाते हैं। इस सभी वर्णों के मनुष्यों को चाहिये कि वे ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पूर्वाभिमुख हो सबसे पहले देवताओं का, फिर धर्मका, अर्थका, उसकी प्राप्ति के लिये उठाये जाने वाले क्लेशों का तथा आय और व्यय का भी चिन्तन करें।
रात के पिछले पहर को उषा:काल जानना चाहिये। उस अंतिम पहर का जो आधा या मध्यभाग है, उसे संधि कहते हैं। उस संधिकाल में उठकर द्विज को मल-मूत्र आदि का त्याग करना चाहिये। घर से दूर जाकर बाहर से अपने शरीर को ढके रखकर दिन में उत्तराभिमुख बैठकर मल-मूत्र का त्याग करे। यदि उत्तराभिमुख बैठने में कोई रुकावट हो तो दूसरी दिशा की ओर मुख करके बैठे। जल, अग्नि, ब्राह्मण आदि तथा देवताओं का सामना बचाकर बैठेंं। मलत्याग करके उठने पर फिर उस मल को न देखे। तदनन्तर जलाशय से बाहर निकाले हुए जल से ही गुदा की शुद्धि करे अथवा देवताओं, पितरों तथा ऋषियों के तीर्थों में उतरे बिना ही प्राप्त हुए जलसे शुद्धि करनी चाहिये। गुदा में सात, पाँच या तीन बार मिट्टी लगाकर उसे धोकर शुद्ध करे। लिंग में ककोड़े के फल के बराबर मिट्टी लेकर लगाये और उसे धो दे। परन्तु गुदा में लगाने के लिये एक पसर मिट्टी की आवश्यकता होती है। लिंग और गुदा की शुद्धि के पश्चात उठकर अन्यत्र जाये और हाथ—पैरों की शुद्धि करके आठ बार कुल्ला करे। जिस किसी वृक्ष के पत्ते से अथवा उसके पतले काष्ठ से जल के बाहर दतुअन करना चाहिये। उस समय तर्जनी अंगुलिका उपयोग न करे। यह दंत शुद्धि का विधान बताया गया है। तदनंतर जल सम्बन्धी देवताओं को नमस्कार करके मंत्र-पाठ करते हुए जलाशय में स्नान करेंं। ‘आपो हि ष्ठा ‘ इत्यादि मन्त्र से पाप-शक्ति के लिये सिर पर जल छिडकेंं तथा ‘यस्य क्षयाय’ इस मन्त्र को पढकर पैर पर जल छिडकेंं। इसे संधिप्रोक्षण कहते हैं। ‘आपो हि ष्ठा ‘ इत्यादि मन्त्र में तीन ऋचाएँ हैं और प्रत्येक ऋचा में गायत्री छंद के तीन-तीन चरण हैं। इनमें से प्रथम ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमश: पैर, मस्तक और ह्रदय में जल छिड़के। दूसरी ऋचा के तीन चरणों को पढकर क्रमश: मस्तक, ह्रदय और पैर में जल छिडके तथा तीसरी ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमश: ह्रदय, पैर और मस्तक का जल से प्रोक्षण करे। इसे विद्वान पुरुष ‘मन्त्र-स्नान’ मानते हैं। प्रात:काल ‘सुर्यश्व मा मनुश्व’ इत्यादि सुर्यानुवाक से तथा सायंकाल ‘अग्निश्व मा मन्युश्व’ इत्यादि अग्नि-सम्बन्धी अनुयाक से जल का आचमन करके पुनः जलसे अपने अंगों का प्रोक्षण करे। मध्यान्हकाल में भी ‘आप: पुनन्तु’ इस मन्त्र से आचमन करके पूर्ववत प्रोक्षण या मार्जन करना चाहिये। प्रात:काल की संध्योपासना में गायत्री मन्त्र का जप करके तीन बार ऊपर की ओर सूर्यदेव को अर्घ्य देने चाहिये। ब्राह्मणों ! मध्यान्हकाल में गायत्री मन्त्र के उच्चारण पूर्वक सूर्य को एक ही अर्घ्य देना चाहिये। फिर सायंकाल आने पर पश्चिम की ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वी पर ही सूर्य के लिये अर्घ्य दे (ऊपर की ओर नहीं)। प्रात:काल और मध्यान्ह के समय अंजलि में अर्घ्यजल लेकर अँगुलियों की ओर से सूर्यदेव के लिए अर्घ्य दे। फिर अँगुलियों के छिद्र से ढलते हुए सूर्य को देखे तथा उनके लिये स्वत: प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे। सायंकाल में सूर्यास्त से दो घड़ी पहले की हुई संध्या निष्फल होती हैं; क्योंकि वह सायं संध्या का समय नहीं हैं। ठीक समय पर संध्या करनी चाहिये, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है। यदि संध्यापासना किये बिना दिन बीत जाये तो प्रत्येक समय के लिये क्रमशः प्रायश्चित्त करना चाहिये। यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्याकाल के लिये नित्य-नियम के अतिरिक्त सौ गायत्री मन्त्र का अधिक जप करे। यदि नित्यकर्म के लुप्त हुए दस दिन से अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित्तरूप में एक लाख गायत्री का जप करना चाहिये। यदि एक मास तक नित्यकर्म छुट जाय तो पुन: अपना उपनयन संस्कार कराये।
अर्थ सिद्धि के लिये ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा और यम का तथा ऐसे ही अन्य देवताओं का भी शुद्ध जल से तर्पण करे। फिर तर्पण कर्म को ब्रह्मार्पण करके शुद्ध आचमन करे। तीर्थ के दक्षिण प्रशस्त मठ में, मंत्रालय में, देवालय में, घर में अथवा अन्य किसी नियत स्थान में आसन पर स्थिरता पूर्वक बैठकर विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि को स्थिर करे और सम्पूर्ण देवताओं को नमस्कार करके पहले प्रणव का जप करने के पश्चात गायत्री मन्त्र की आवृत्ति करे। प्रणव के ‘अ, उ, और म ‘ इन तीनों अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता हैं – इस बातको जानकर प्रणव (ॐ) का जप करना चाहिये। जपकाल में यह भावना करनी चाहिये कि ‘हम तीनों लोकों की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रूद्र की – जो स्वयं प्रकाश चिन्मय हैं – उपासना करते हैं। यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की वृत्त्तियों को, मन की वृत्तियों को तथा बुद्धिवृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करे।’ प्रणव के इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा चिन्तन करता हुआ जो इसका जप करता हैं,वह निश्चय ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। अथवा अर्थानुसंधान के बिना भी प्रणव का नित्य जप करना चाहिये। इससे ‘ब्राह्मणत्त्व की पूर्ति’ होती हैं। ब्राह्मणत्त्व की पूर्ति के लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रात:काल एक सहस्त्र गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये। मध्यान्ह काल में सौ बार और सायंकाल में अठ्ठाईस बार जप की विधि है। अन्य वर्ण के लोगों को अर्थात क्षत्रिय और वैश्य को तीनों संध्याओं के समय यथा साध्य गायत्री-जप करना चाहिये।
शरीर के भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, आज्ञा और सहस्त्रार – ये छ: चक्र हैं। इनमें मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक छहों स्थानों में क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं। इन सबमें ब्रह्मबुद्धि करके इनकी एकता का निश्चय करे और ‘वह ब्रह्म मैं हूँ’ ऐसी भावनापूर्वक प्रत्येक श्वास के साथ ‘सोहम्’ का जप करे। उन्हीं विद्येश्वर आदि की ब्रह्मरन्ध्र आदि में तथा इस शरीर से बाहर भी भावना करे। प्रकृति के विकार भूत महत्तत्त्व से लेकर पंचभूत पर्यन्त तत्त्वों से बना हुआ जो शरीर हैं, ऐसे सहस्त्रो शरीरों का एक-एक अजपा गायत्री के जप से एक-एक के क्रम से अतिक्रमण करके जीव को धीरे-धीरे परमात्मा से संयुक्त करे। यह जप का तत्त्व बताया गया है। सौ अथवा अठ्ठाईस मन्त्रोंं के जप से उतने ही शरीरों का अतिक्रमण होता है। इस प्रकार जो मन्त्रों का जप है, इसी को आदिक्रम से वास्तविक जप जानना चाहिये। सहस्त्र बार किया हुआ जप ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला होता हैं, ऐसा जानना चाहिये। सौ बार किया हुआ जप इन्द्रपद की प्राप्ति कराने वाला माना गया है। इससे अधिक समय तक नियम का उल्लंघन हो जाय तो पुन: नये सिरे से गुरु से नियम ग्रहण करे। ऐसा करने से दोषों की शान्ति होती है, अन्यथा वह रौरव नरक में जाता है। मुमुक्षु ब्राह्मण को तो सदा ज्ञान का ही अभ्यास करना चाहिये। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, अर्थ से भोग सुलभ होता है। फिर उस भोग से वैराग्य की सम्भावना होती है। धर्मपूर्वक उपार्जित धन से जो भोग प्राप्त होता है, उससे एक दिन अवश्य वैराग्य का उदय होता है। धर्म के विपरीत अधर्म से व्यार्जित हुए धन के द्वारा जो भोग प्राप्त होता है, उससे भोगों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धर्म से धन पाता है, तपस्या से उसे दिव्य लग्न की प्राप्ति होती है। कामनाओं का त्याग करने वाले पुरुष के अंत:करण की शुद्धि होती है। उस शुद्धि से ज्ञान का उदय होता है, इसमें संशय नहीं है।
सत्ययुग आदि में तप को ही प्रशस्त कहा गया हैं, किन्तु कलियुग में द्रव्य साध्य धर्म अच्छा माना गया है। सत्ययुग में व्यान से, त्रेता में तपस्या से और द्वापर में यज्ञ करनेसे, ज्ञान की सिद्धि होती है; परन्तु कलियुग में प्रतिमा की पूजा से ज्ञान लाभ होता है। अधर्म हिंंसा रूप है और धर्म सुख रूप है। अधर्म से मनुष्य दुःख पाता है और धर्म से वह सुख एवं अभ्युदय का भागी होता है। दुराचार से दुःख प्राप्त होता है और सदाचार से सुख (अत: भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये धर्म का उपार्जन करना चाहिये )। जो क्षत्रिय एक सहस्त्र कुटुंब को जीविका और आवास देता हैं, उसका वह कर्म इन्द्रलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है। दस हजार कुटुंंबों को दिया हुआ आश्रय दान ब्रह्मलोक प्रदान करता है। धनहीन पुरुष सदा तपस्या का उपार्जन करे; क्योंकि तपस्या और तीर्थ सेवन से अक्षय सुख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है।
अब मैं न्यायत: धनके उपार्जन की विधि बता रहा हूँ। न्यायोपार्जित धन का दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है। ज्ञान सिद्धि द्वारा सब पुरुषों को गुरुकृपा- मोक्षसिद्धि सुलभ होती है। मोक्ष से स्वरूप की सिद्धि (ब्रह्मरूप से स्थिति) प्राप्त होती है, जिससे मुक्त पुरुष परमानन्द का अनुभव करता है। गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वह धन-धान्यादि सब वस्तुओं का दान करे। वह तृषा-निवृत्ति के लिये जल तथा क्षुधारुपी रोग की शान्ति के लिये सदा अन्न का दान करे। खेत, धान्य, कच्चा अन्न तथा भक्ष्य, भोज्य, लेहा और चोप्य – ये चार प्रकार के सिद्ध अन्न दान करने चाहिये। जिसके अन्न को खाकर मनुष्य जब तक कथा-श्रवण आदि सद्धर्म का पालन करता हैं, उतने समय तक उसके किये पुण्यफल का आधा भाग दाता को मिल जाता हैं – उसमे संशय नहीं है। दान लेने वाला पुरुष दान में प्राप्त हुई वस्तुका दान तथा तपस्या करके अपने प्रति-प्रहजनित पापकी शुद्धि कर ले। अन्यथा उसे रौरव नरक में गिरना पड़ता है। अपने धन के तीन भाग करें – एक भाग धर्म के लिये, दूसरा भाग वृद्धि के लिये तथा तीसरा भाग अपने उपभोग के लिये। नित्य, नौमित्तिक और काम्य – ये तीनों प्रकार के कर्म धर्मार्थ रखे हुए धन से करे। साधक को चाहिये कि वह वृद्धि के लिये रखे हुए धन से ऐसा व्यापार करे, जिससे उस धन की वृद्धि हो तथा उपभोग के लिये रक्षित धन से हितकारक, परिमित एवं पवित्र भोग भोगे। खेती से पैदा किये हुए धन का दसवाँ अंश दान कर दे। इससे पाप की शुद्धि होती है। शेष धन से धर्म, बुद्धि एवं उपभोग करे; अन्यथा वह रौरव नरक में पड़ता है अथवा उसकी बुद्धि पापपूर्ण हो जाती है, या खेती ही चौपट हो जाती है। वृद्धि के लिये किये गये व्यापार में प्राप्त हुए धन का छठा भाग दान कर देने योग्य है। बुद्धिमान पुरुष अवश्य उसका दान कर दे।
विद्वान को चाहिये कि वह दूसरों के दोषों का वर्णन न करे। ब्राह्मणों ! दोष वश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को भी प्रकट न करे। विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के ह्रदय में रोष पैदा करनेवाली हो। ऐश्वर्य की सिद्धि के लिये दोनों संध्याओं के समय अग्निहोत्र कर्म अवश्य करे। जो दोनों समय अग्निहोत्र करने में असमर्थ हो, वह एक ही समय सूर्य और अग्नि को विधिपूर्वक दी हुई आहुति से संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य – इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्निको अर्पित करे। यदि हविष्यका अभाव हो तो प्रधान होममात्र करे। सदा सुरक्षित रहने वाली अग्नि को विद्वान पुरुष अजस्त्र की संज्ञा देते हैं। अथवा संध्याकाल में जपमात्र या सूर्य की वन्दनामात्र कर ले। आत्मज्ञान की इच्छावाले तथा धनार्थी पुरुषों को भी भी इस प्रकार विधिवत उपासना करनी चाहिये। जो सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर होते हैं, देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं, नित्य अग्निपूजा एवं गुरुपूजा में अनुरक्त होते हैं, तथा ब्राह्मणों को तृप्त किया करते हैं, वे सब लोग स्वर्गलोक के भागी होते हैं।
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अध्याय— 14 : अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन
ऋषियों ने कहा – प्रभो ! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्ति का हमारे समक्ष क्रमश: वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले – महर्षियों ! गृहस्थ पुरुष अग्नि में सायंकाल और प्रात:काल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता हैं, उसी को अग्नियज्ञ कहते हैं। जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधा का आधान ही अग्नियज्ञ है। वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें। ब्राह्मणों ! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करने वाले द्विजों का जब तक विवाह न हो जाय और वे ओपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तब तक उनके लिये अग्नि में समिधा की आहुति, व्रत आदि का पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य हैं (यही उनके लिये अग्नियज्ञ हैं )। द्विजो ! जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपने आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया हैं, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिये यही हवन या अग्नियज्ञ हैं कि ये विहित समय पर हितकर, परिमित और पवित्र अन्नका भोजन कर लें। ब्राह्मणों ! सायंकाल अग्नि के लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करने वाली होती हैं, ऐसा जानना चाहिये और प्रात:काल सूर्यदेव को दी हुई, आहुति आयुकी वृद्धि करने वाली होती हैं, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। दिनमें अग्निदेव सुर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। अत: प्रात:काल सूर्य को दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ के ही अंतर्गत है। इसप्रकार यह अग्नियज्ञ का वर्णन किया गया।
इंद्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में जो आहुति दी जाती हैं, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये। स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये। लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूड़ाकरण आदि संस्कार-निमित्तक हवन-कर्म है, उन्हें भी देवयज्ञ के ही अंतर्गत जानना चाहिये। अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनो। द्विज को चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिये निरंतर ब्रह्मयज्ञ करे। वेदों का जो नित्य अध्ययन या स्वाध्याय होता है, उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया हैं, प्रात: नित्यकर्म के अनन्तर सायंकाल तक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता हैं | उसके बाद रात मे इसका विधान नहीं है।
अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता हैं, इसे तुम लोग श्रद्धा से और आदरपूर्वक सुनो। सृष्टिके आरम्भ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्व समर्थ महादेवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिये वारों की कल्पना की। ये भगवान शिव संसार रूपी रोग को दूर करने के लिये वैद्य हैं। सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं। उन भगवान ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करने वाला है। तत्पश्चात अपनी माया शक्ति का वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करने वाला है। जन्मकाल में दुर्गति ग्रस्त बालक की रक्षा के लिये उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की। तत्पश्चात सर्व समर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोक रक्षक भगवान विष्णु का वार बनाया। इसके बाद सबके स्वामी भगवान शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिये आयु:कर्ता त्रिलोकस्त्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत के आयुष्य की सिद्धि हो सके। इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिये पहले पुण्य-पाप की रचना हो जाने पर उनके करने वाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिये भगवान शिव ने इंद्र और यम के वारों का निर्माण किया। ये दोनों वार क्रमश: भोग देने वाले तथा लोगों के मृत्यू भय को दूर करनेवाले हैं। इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःख के सूचक है, भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया। वे सब-के-सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मंडल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार या दिन के स्वामी सूर्य हैं। शक्ति सम्बन्धी वार के स्वामी सोम हैं। विष्णु वार के स्वामी बुध हैं। इन्द्रवार के स्वामी शुक्र और यमवार के स्वामी शनैश्वर हैं। अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देने वाली होती है।
सूर्य आरोग्य के और चंद्रमा सम्पत्ति के दाता हैं। मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं। बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं और शनैश्वर मृत्यु का निवारण करते हैं। ये सात वारों के क्रमश: फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रीति से प्राप्त होते हैं। अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देने वाले भगवान शिव ही हैं। देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयी। उन – उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार है। उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है। किसी वेदी पर प्रतिमा में, अग्निमें अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवा प्रकार है।
इनमे पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं। पूर्व-पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिये। दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग में और कुष्ठ रोग की शान्ति के लिये भगवान् सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनंतर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्ष तक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये। इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि रोगों का नाश हो जाता है। इष्टदेव के नाम मंत्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं। रविवार को सूर्यदेव के लिये, अन्य देवताओं के लिये तथा ब्राह्मणों के लिये विशिष्ट वस्तु अर्पित करे। यह साधन विशिष्ट फल देने वाला होता हैं तथा इसके द्वारा विशेषरूप से पापों की शान्ति होती है। सोमवार को विद्वान पुरुष सम्पत्ति की प्राप्ति के सपत्निक ब्राह्मणों को घृतपक्व अन्न का भोजन कराये। मंगलवार को रोगों की शान्ति के लिये काली आदि की पूजा करे तथा उड़द, मूँग एवं अदरक की दाल आदि से युक्त अन्न ब्राह्मणों को भोजन कराये। बुधवार को विद्वान पुरुष दधियुक्त अन्न से भगवान् विष्णु का पूजन करे। ऐसा करने से सदा पुत्र, मित्र और कलत्र आदि की पुष्ठि होती है। जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता हो, वह गुरूवार को देवताओं की पुष्ठी के लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीर से यजन-पूजन करे। भोगों की प्राप्ति के लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिये षडरस युक्त अन्न दे। इसीप्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिये सुंदर वस्त्र आदि का विधान करे। शनैश्वर अपमृत्यु का निवारण करनेवाला है। उस दिन बुद्धिमान पुरुष रूद्र आदि की पूजा करे। तिल के होम से, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को तिल मिश्रित अन्न भोजन कराये। जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फल का भागी होगा।
देवताओं के नित्य-पूजन, विशेष-पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण तर्पण आदि में एवं रवि आदि बारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होनेपर विभिन्न देवताओं के पूजन में सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान शिव ही उन-उन देवताओं के रूप में पूजित हो सब लोगों को आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं। देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनके तारतम्य क्रम का ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करने वाले लोगों को आरोग्य आदि फल देते हैं। शुभ (मांगलिक कर्म) के आरम्भ में और अशुभ (अंत्येष्टि आदि कर्म) के अंत में तथा जन्म-नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य आदि की समृद्धि के लिये सूर्य आदि ग्रहों का पूजन करे। इससे सिद्ध हैं कि देवताओं का यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है। ब्राह्मणों का देवयजन कर्म वैदिक मन्त्र के साथ होना चाहिए। शुद्र आदि दूसरों का देवयज्ञ तांत्रिक विधि से होना चाहिये। शुभ फल की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को सातों ही दिन अपनी शक्ति के अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये। निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदिके कष्ट-सहन) द्वारा और धनी धन के द्वारा देवताओं की आराधना करे। वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है और बारंबार पुण्यलोकों में नाना प्रकार के फल भोगकर पुन: इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है। धनवान पुरुष सदा भोग सिद्धि के लिये मार्ग में वृक्षादि लगाकर लोगों के लिये छाया की व्यवस्था करे। जलाशय (कुआ, बावली और पोखरे) बनवाये। वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिये पाठशाला का निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकार से भी धर्म का संग्रह करता रहे। धनी को यह सब कार्य सदा ही करते रहना चाहिये। समयानुसार पुण्य कर्मो के परिपाक से अंत:करण शुद्ध होने पर ज्ञान की सिद्धि हो जाती है। द्विजो ! जो इस अध्याय को सुनता, पढ़ता अथवा सुनने की व्यवस्था करता हैं, उसे देवयज्ञ का फल प्राप्त होता है।
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अध्याय 15 : देश, काल, पात्र और दान आदि का विचार
ऋषियों ने कहा – समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमश: देश, काल आदिका वर्णन करें।
सूतजी बोले – महर्षियों ! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध ग्रह समान फल देनेवाला होता हैं अर्थात अपने घरमें किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सम मात्रा में देनेवाले होते हैं। गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दस गुना फल देना है। जलाशय का तट उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपल वृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दस गुना फल देनेवाला होता है। देवालय को उससे भी दस गुने महत्त्व का स्थान जानना चाहिये। देवालय से भी दस गुना उत्कृष्ट हैं तीर्थनदी का तट और उससे भी दसगुना महत्त्व रखता हैं सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ। गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा – इन सात नदियों को सप्तगंगा कहा गया है। समुद्र के तट का स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र माना गया है और पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्र तट से भी दस गुना पावन है। सबसे अधिक महत्त्व का वह स्थान जानना चाहिये, जहाँ मन लग जाये।
यहाँ तक देश का वर्णन हुआ, अब कालका तारतम्य बताया जाता हैं – सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्ण फल देने वाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। त्रेतायुग में उसका तीन चौथाई फल मिलता है। द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयीं है। कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिये और आधा कलियुग बीतने पर उस चौथाई फल में से भी एक चतुर्थांस कम हो जाता है। शुद्ध अंत:करण वाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देने वाला होता है।
विद्वान ब्राह्मणों ! सूर्य-संक्रांति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दस गुना फल देनेवाला होता हैं, यह जानना चाहिये। उससे भी दस गुना महत्त्व उस कर्म का हैं, जो विषुव नामक (ज्योतिष के अनुसार वह समय जब कि सूर्य विषुव रेखा पर पहुँचता है और दिन तथा रात दोनों बराबर होते हैं। वर्ष में दो बार आता हैं – एक तो सौर चैत्रमास की नवमी तिथि या अंग्रेजी २१ मार्च को और दूसरा सौर आश्विन की नवमी तिथि या अंग्रेजी २२ सितंम्बर को।) योग में किया जाता है। दक्षिणायन आरम्भ होने के दिन अर्थात कर्क की संक्रान्ति में किये हुए पुण्यकर्म का महत्त्व विषुव से भी दस गुना माना गया है। उससे भी दस गुना मकर-संक्रान्ति में और उससे भी दसगुना चंद्रग्रहण में किये हुए पुण्य का महत्त्व है। सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम है। उसमें किये गये पुण्यकर्म का फल चंद्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्रा में होता हैं, इस बात को विज्ञ पुरुष जानते हैं। जगद्ररूपी सूर्य का राहूरूपी विष से संयोग होता हैं, इसलिये सूर्यग्रहण का समय रोग प्रदान करनेवाला है। अत: उस विष की शान्ति के लिये उस समय स्नान, दान और जप करेंं। यह काल विष की शान्ति के लिये उपयोगी होने के कारण पुण्यप्रद माना गया है। जन्म नक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्ति के दिन का समय सूर्यग्रहण के समान ही समझा जाता है। परन्तु महापुरुषों के संग का काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते-मानते हैं।
तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ यति – ये पूजा के पात्र हैं; क्योंकि ये पापों के नाश में कारण होते हैं। जिसने चौबीस लाख गायत्री का जप कर लिया हो, वह ब्राह्मण भी पुजा का उत्तम पात्र है। वह सम्पूर्ण फलों और भोगों को देने में समर्थ है। जो पतन से त्राण करता अर्थात नरक में गिरने से बचाता हैं, उसके लिये इसी गुण के कारण शास्त्र में ‘पात्र’ शब्द का प्रयोग होता है। यह दाता का पातक से त्राण करने के कारण ‘पात्र’ कहलाता है।
गायत्री अपने गायक का पतन से त्राण करती हैं; इसीलिये वह ‘गायत्री’ कहलाती है। जैसे इस लोक में जो धनहीन हैं, वह दूसरे को धन नहीं देता – जो यहाँ धनवान हैं, वह दूसरे को धन दे सकता हैं, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा हैं, वही दूसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता है। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया हैं, वही शुद्ध ब्राह्मण कहलाता है। इसलिये दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है। ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करने की पात्रता रखता है।
स्त्री हो या पुरुष – जो भी भूखा हो, वही अन्नदान का पात्र है। जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना माँगे ही दे दी जाय तो दाता को उस दान का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता हैं, ऐसी महर्षियों की मान्यता है। जो सवाल या याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दान आधा ही फल देनेवाला बताया गया है। अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला होता है। विप्रवरों ! जो जाति मात्र से ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता हैं, उसे दिया हुआ धन का दान दाता को इस भूतल पर दस वर्षो तक भोग प्रदान करनेवाला होता है। वही दान यदि वेद वेत्ता ब्राह्मण को दिया जाय तो वह स्वर्ग लोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षो तक दिव्य भोग देने वाला होता है। शील और उच्छ वृत्ति से लाया हुआ और गुरुदक्षिणा में प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है। उसका दान दाता को पूर्ण फल देनेवाला बताया गया है। क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापार से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता है। धर्म की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को जो धन, पिता एवं पति से मिला हुआ हो, उनके लिये वह उत्तम द्रव्य है।
गौ आदि बारह वस्तुओं का चैत्र आदि बारह महीनों में क्रमश: दान करना चाहिये। गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चाँदी, नमक, कोहड़ा और कन्या – ये ही वे बारह वस्तुएँ हैं। इनमें गोदान से कायिक, वाचिक और मानसिक पापों का निवारण तथा कायिक आदि पुण्य कर्मों की पुष्टि होती है। ब्राह्मणों ! भूमि का दान इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा (आश्रय) की प्राप्ति कराने वाला है। तिल का दान बलवर्धक एवं मृत्यु का निवारक होता है। सुवर्ण का दान जठराग्नि को बढाने वाला तथा वीर्यदायक है। घी का दान पुष्टिकारक होता है। वस्त्र का दान आयु की वृद्धि कराने वाला है, ऐसा जानना चाहिये। धान्य का दान अन्नदान मधुर भोजन की प्राप्ति कराने वाला होता है। चाँदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है। लवण का दान षडरस भोजन की प्राप्ति कराता है। सब प्रकार का दान सारी समृद्धि की सिद्धि के लिये होता है। विज्ञपुरुष कुष्मांड के दान को पुष्टिदायक मानते हैं। कन्या का दान आजीवन भोग देने वाला कहा गया है। ब्राह्मणों ! वह लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति कराने वाला है।
विद्वान पुरुष को चाहिये कि जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इन्दिर्यों की तृप्ति होती हैं, उनका सदा दान करेंं। श्रोत आदि दस इन्द्रियों के जो शब्द आदि दस विषय हैं, उनका दान किया जाय तो वे भोगों की प्राप्ति कराते हैं तथा दिशा आदि इन्द्रिय देवताओं को संतुष्ट करते हैं। वेद और शास्त्र को गुरुमुख से ग्रहण करके गुरु के उपदेश से अथवा स्वयं ही बोध प्राप्त करने के पश्चात जो बुद्धि का यह निश्चय होता हैं कि ‘कर्मों का फल अवश्य मिलता है’, इसी को उच्चकोटि की ‘आस्तिकता’ कहते हैं। भाई-बंधू अथवा राजा के भय से जो आस्तिकता-बुद्धि या श्रद्धा होती है, वह कनिष्ठ श्रेणी की आस्तिकता है। जो सर्वथा दारिद्र है, इसलिये जिसके पास सभी वस्तुओं का अभाव है, वह वाणी अथवा कर्म (शरीर) द्वारा यजन करे। मन्त्र, स्तोत्र और जप आदि को वाणी द्वारा किया गया यजन समझना चाहिये तथा तीर्थयात्रा और व्रत आदि को विद्वान पुरुष शारीरिक यजन मानते हैं। जिस किसी भी उपाय से थोडा या बहुत, देवतार्पण बुद्धि से जो कुछ भी दिया अथवा किया जाय, वह दान या सत्कर्म भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ होता है। तपस्या और दान – ये दो कर्म मनुष्य को सदा करने चाहिये तथा ऐसे गृह का दान करना चाहिये, जो अपने वर्ण (चमक-दमक या सफाई) और गुण (सुख-सुविधा) से सुशोभित हो। बुद्धिमान पुरुष देवताओं की तृप्ति के लिये जो कुछ देते हैं, वह अतिशय मात्रा में और सुख प्रकार के भोग प्रदान करनेवाला होता है। उस दान से विद्वान पुरुष इहलोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होने वाला भोग पाता है। ईश्वरार्पण बुद्धिसे यज्ञ-दान आदि कर्म करके मनुष्य मोक्ष फल का भागी होता है।
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अध्याय 16 : पृथ्वी आदि से निर्मित देव प्रतिमाओं के पूजन की विधि
ऋषियों ने कहा – साधुशिरोमणे ! अब आप पार्थिव प्रतिमा की पुजाका विधान बताइये, जिससे समस्त अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
सूतजी बोले – महर्षियों ! तुम लोगों ने बहुत उत्तम बात पूछी है। पार्थिव प्रतिमा का पूजन सदा सम्पूर्ण मनोरथों को देने वाला हैं तथा दुःख का तत्काल निवारण करने वाला है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम लोग उसको ध्यान देकर सुनो। पृथ्वी आदि की बनी हुई देय प्रतिमाओं की पूजा इस भूतल पर अभीष्टदायक मानी गयी है, निश्चय ही इसमें पुरुषों का और स्त्रियों का भी अधिकार है। नदी, पोखरे अथवा कुएँ में प्रवेश करके पानी के भीतर से मिट्टी ले आये। फिर गंध-चूर्ण के द्वारा उसका संशोधन करे और शुद्ध मंडप में रखकर उसे महीन पीसे और साने। इसके बाद हाथ से प्रतिमा बनाये और दूध से उसका सुंदर संस्कार करे। उस प्रतिमा में अंग-प्रत्यंग अच्छी तरह प्रकट हुए हो तथा वह सब प्रकार के अस्र-शस्त्रों से सम्पन्न बनायी गयी हो। तदनंतर उसे पद्मासन पर स्थापित करके आदर-पूर्वक उसका पूजन करे। गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिव की प्रतिमा का, शिव का एवं शिवलिंग का द्विज को सदा पूजन करना चाहिये। षोडशोपचार-पूजनजनित फल की सिद्धि के लिये सोलह उपचारों द्वारा पूजन करना चाहिये। पुष्प से प्रोक्षण और मन्त्र-पाठपूर्वक अभिषेक करे। अगहनी के चावल से नैवेद्य तैयार करेंं। सारा नैवेद्य एक कुडव (लगभग पावभर) होना चाहिये। घर में पार्थिव पूजन के लिये एक कुडव और बाहर किसी मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिंग के पूजन के लिये एक प्रस्थ (सेरभर) नैवेद्य तैयार करना आवश्यक हैं, ऐसा जानना चाहिये। देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग के लिये तीन सेर नैवेद्य अर्पित करना उचित हैं और स्वयं प्रकट हुए स्वयम्भू लिंग के लिये पाँच सेर। ऐसा करने पर पूर्ण फल की प्राप्ति समझनी चाहिये। इस प्रकार सहस्त्र बार पूजा करने से द्विज सत्य लोक को प्राप्त कर लेता है।
बारह अंगुल चौड़ा, इससे दूना और एक अंगुल अधिक अर्थात पचीस अंगुल लंबा तथा पन्द्रह अंगुल चौड़ा जो लोहे या लकड़ी का बना हुआ पात्र होता हैं, उसे विद्वान पुरुष ‘शिव’ कहते हैं। उसका आठवां भाग प्रस्थ कहलाता हैं, जो चार कुडव के बराबर माना गया है। मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिंग के लिये दस प्रस्थ, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग के लिये सौ प्रस्थ और स्वयम्भू शिवलिंग के लिये एक सहस्त्र प्रस्थ नैवेद्य निवेदन किया जाय तथा जल, तेल आदि एवं गंध द्रव्यों की भी यथा योग्य मात्रा रखी जाय तो यह उन शिवलिंगों की महापूजा बतायी जाती है।
देवता का अभिषेक करने से आत्म शुद्धि होती है, गंध से पुण्य की प्राप्ति होती है। नैवेद्य लगाने से आयु बढ़ती और तृप्ति होती है। धुप निवेदन करने से धन की प्राप्ति होती है। दीप दिखाने से ज्ञान का उदय होता हैं और ताम्बुल समर्पण करने से भोग की उपलब्धि होती है। इसलिए स्नान आदि छ: उपचारों को यत्नपूर्वक आर्पित करे। नमस्कार और जप – ये दोनों सम्पूर्ण अभीष्ट फल को देंनेवाले हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों को पूजा के अंत में सदा ही जप और नमस्कार करना चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि वह सदा पहले मन से पूजा करके फिर उन-उन देवताओं के लोकों की प्राप्ति होती है तथा उनके अवांतर लोक में भी यथेष्ट भोग की वस्तुएँ उपलब्ध होती है।
अब मैं देवपूजा से प्राप्त होनेवाले विशेष फलों का वर्णन करता हूँ। द्विजो ! तुम लोग श्रद्धापूर्वक सुनो। विघ्नराज गणेश की पूजा से भूलोक में उत्तम अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। शुक्रवार को, श्रावण और भाद्रपद मासों के शुक्ल-पक्ष की चतुर्थी को और पौषमास में शतभिषा नक्षत्र के आने पर विधि-पूर्वक गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। सौ या सहस्त्र दिनों में सौ या सहस्त्र बार पूजा करे। देवता और अग्नि में श्रद्धा रखते हुए किया जाने वाला उनका नित्य पूजन मनुष्यों को पुत्र एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है। वह समस्त पापों का शमन तथा भिन्न-भिन्न दुष्कर्मों का विनाश करने वाला है। विभिन्न वारों में की हुई शिव आदि की पूजा को आत्मशुद्धि प्रदान करने वाली समझना चाहिये। वार या दिन, तिथि, नक्षत्र और योगों का आधार है। समस्त कामनाओं को देने वाला हैं | उसमें वृद्धि और क्षय नहीं होता। इसलिये उसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानना चाहिये। सूर्योदय काल से लेकर सूर्योदय काल आने तक एक वार की स्थिति मानी गयी है जो ब्राह्मण आदि सभी वर्णों के कर्मों का आधार है। विहित तिथि के पूर्वभाग में की हुई देवपूजा मनुष्यों को पूर्ण भोग प्रदान करने वाली होती है।
यदि मध्यान्ह के बाद तिथि का आरम्भ होता है तो रात्रि युक्त तिथि का पूर्वभाग पितरों के श्राद्धादि कर्म के लिये उत्तम बताया जाता है। ऐसी तिथि का परभाग ही दिनसे युक्त होता हैं, अत: वही देवकर्म के लिये प्रशस्त माना गया है। यदि मध्यान्हकाल तक तिथि रहे तो उदयव्यापिनी तिथि को ही देवकार्य में ग्रहण करना चाहिये। इसी तरह शुभ तिथि एवं नक्षत्र आदि ही देवकार्य में ग्राह्य होते हैं। वार आदि का भलीभाँति विचार करके पूजा और जप आदि करने चाहिये। वेदों में पूजा-शब्द के अर्थ की इस प्रकार योजना की गयी हैं –
पुर्जायते अनेन इति पूजा। यह पूजा-शब्द की व्युत्पत्ति है। ‘पू:’ का अर्थ हैं भोग और फलकी सिद्धि – वह जिस कर्म से सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है। मनोवांछित वस्तु तथा ज्ञान – ये ही अभीष्ट वस्तुएँ हैं; सकाम भाव वाले को अभीष्ट भोग अपेक्षित होता हैं और निष्काम भाव वाले को अर्थ- पारमार्थिक ज्ञान। ये दोनों ही पूजा-शब्द के अर्थ है; इनकी योजना करने से ही पूजा-शब्द की सार्थकता है। इसप्रकार लोक और वेद में पूजा-शब्द का अर्थ विख्यात है। नित्य और नौमित्तिक कर्म कालान्तर में फल देते हैं; किन्तु काम्य कर्म का यदि भली भांति अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलद होता है। प्रतिदिन एक पक्ष, एक मास और एक वर्ष तक लगातार पूजन करने से उन-उन कर्मों के फल की प्राप्ति होती है और उनसे वैसे ही पापों का क्रमश: क्षय होता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को की हुई महागणपति की पूजा एक पक्ष के पापों का नाश करने वाली और एक पक्ष तक उत्तम भोगरूपी फल देने वाली होती है। चैत्रमास में चतुर्थी को की हुई पूजा एक मास तक किये गये पूजन का फल देने वाली होती है और जब सूर्य सिंह राशि पर स्थित हो, उस समय भाद्रपद मास की चतुर्थी को की हुई गणेशजी की पूजा एक वर्ष तक मनोवांछित भोग प्रदान करती है – ऐसा जानना चाहिये। श्रावण मास के रविवार को, हस्त नक्षत्र से युक्त सप्तमी तिथि को तथा माघ शुक्ल सप्तमी को भगवान सूर्य का पूजन करना चाहिये। जेष्ठ तथा भाद्रपदमासों के बुधवार को, श्रवण नक्षत्र से युक्त द्वादशी तिथि को तथा केवल द्वादशी को भी किया गया भगवान विष्णु का पूजन अभीष्ट सम्पत्ति को देने वाला माना गया है।
श्रावण मास में की जाने वाली श्रीहरि की पूजा अभीष्ट मनोरथ और आरोग्य प्रदान करने वाली होती है। अंगों एवं उपकरणों सहित पूर्वोक्त गौ आदि बारह वस्तुओं का दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, उसी को द्वादशी तिथि में आराधना द्वारा श्रीविष्णु की तृप्ति करके मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जो द्वादशी तिथि को भगवान विष्णु के बारह नामों द्वारा बारह ब्राह्मणों का षोडशोपचार पूजन करता है, वह उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओं के विभिन्न बारह नामों द्वारा किया हुआ, बारह ब्राह्मणों का पूजन उन-उन देवताओं को प्रसन्न करने वाला होता है।
कर्क की संक्रान्ति से युक्त श्रावण मास में नवमी तिथि को मृगशिरा नक्षत्र के योग में अम्बिका का पूजन करे। वे सम्पूर्ण मनोवांछित भोगों और फलों को देनेवाली है। ऐश्वर्य की इच्छा रखनेवाले पुरुष को उस दिन अवश्य उनकी पूजा करनी चाहिये।
आश्विनमास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देनेवाली है। उसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दर्शी को यदि रविवार पड़ा हो तो उस दिन का महत्त्व विशेष बढ़ जाता है। उसके साथ ही यदि आर्दा और महार्द्रा (सूर्यसंक्रान्ति से युक्त आर्द्रा) का योग हो तो उक्त अवसरों पर की हुई शिवपूजा का विशेष महत्त्व माना गया है।
माघ कृष्णा चतुर्दशी को की हुई शिवजी की पूजा सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देनेवाली है। वह मनुष्यों की आयु बढाती, मृत्यु-कष्ट को दूर हटाती और समस्त सिद्धियों की प्राप्ति कराती है। जेष्ठमास में चतुर्दशी को यदि महार्द्रा का योग हो अथवा मार्गशीर्षमास में किसी भी तिथि को यदि आर्द्रा नक्षत्र हो तो उस अवसर पर विभिन्न वस्तुओं की बनी हुई मुर्ति के रूप में शिव की जो सोलह उपचारों से पूजा करता है, उस पुण्यात्मा के चरणों का दर्शन करना चाहिये। भगवान शिव की पूजा मनुष्यों को भोग और मोक्ष देनेवाली है, ऐसा जानना चाहिये।
कार्तिक मास में प्रत्येक वार और तिथि आदि में महादेवजी की पूजा का विशेष महत्त्व है। कार्तिक मास आने पर विद्वान पुरुष दान, तप, होम, जप और नियम आदि के द्वारा समस्त देवताओं का षोडशोपचारों से पूजन करे। उस पूजन में देव-प्रतिमा, ब्राह्मण तथा मंत्रो का उपयोग आवश्यक है। ब्राह्मणों को भोजन कराने से भी वह पूजन-कर्म सम्पन्न होता है। पूजक को चाहिये कि वह कामनाओं को त्यागकर पीड़ा रहित (शांत)हो देवाराधन में तत्पर रहे।
कार्तिक मास में देवताओं का यजनपूजन समस्त भोगों को देने वाला, व्याधियों को हर लेने वाला तथा भूतों और ग्रहों का विनाश करने वाला है।
कार्तिक मास के रविवारों को भगवान सूर्य की पूजा करने और तेल तथा सूती वस्त्र देने से मनुष्यों के कोढ़ आदि रोगों का नाश होता है। हर्रे, काली मिर्च, वस्त्र और खीरा आदि का दान और ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा करने से क्षय के रोग का नाश होता है। दीप और सरसों के दान से मिरगी का रोग मिट जाता है।
कृत्तिका नक्षत्र से युक्त सोमवारों को किया हुआ शिवजी का पूजन मनुष्यों के महान दारिद्र्य को मिटाने वाला और सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाला है। घर की आवश्यक सामप्रियों के साथ गृह और क्षेत्र आदि का दान करने से भी उक्त फल की प्राप्ति होती है।
कृत्तिकायुक्त मंगलवारों को श्रीस्क्न्द का पूजन करने से तथा दीपक एवं घंटा आदि का दान देने से मनुष्यों को शीघ्र ही वाकसिद्धि प्राप्त हो जाती हैं, उनके मुँह से निकली हुई हर एक बात सत्य होती है।
कृत्तिका युक्त बुधवारों को किया हुआ श्रीविष्णु का यजन तथा दही भात का दान मनुष्यों को उत्तम सन्तान की प्राप्ति कराने वाला होता है।
कृत्तिका युक्त गुरुवारों को धन से ब्रह्माजी का पूजन तथा मधु, सोना और घी का दान करने से मनुष्यों के भोग-वैभव की वृद्धि होती है।
कृत्तिका युक्त शुक्रवारों को गजानन गणेशजी की पूजा करने से तथा गंध, पुष्प एवं अन्न का दान देने से मानवों के भोग्य पदार्थों की वृद्धि होती है। उस दिन सोना, चाँदी आदि का दान करने से वन्ध्या को भी उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है।
कृत्तिका युक्त शनिवारों को दिक्पालों की वन्दना, दिग्गजों, नागों और सेतुपालों का पूजन, त्रिनेत्रधारी रूद्र, पापहारी विष्णु तथा ज्ञानदाता ब्रह्मा का आराधन और धन्वन्तरि एवं दोनों अश्विनी कुमारों का पूजन करने से रोग, दुर्मृत्यु एवं अकाल मृत्यु का निवारण होता है तथा तात्कालिक व्याधियों की शान्ति हो जाती है। नमक, लोहा, तेल और उड़द आदि का त्रिकुट (सौंठ, पीपल और गोल मिर्च), फल, गंध और जल आदि का तथा घृत आदि द्रव-पदार्थों का और सुवर्ण, मोती आदि कठोर वस्तुओं का भी दान देने से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। इनमे से नमक आदि का मान कम-से-कम एक प्रस्थ (सेर) होना चाहिये और सुवर्ण आदि का मान कम-से-कम एक पल।
धन की संक्रांति से युक्त पौष मास में उष:काल में शिव आदि समस्त देवताओं का पूजन क्रमश: समस्त सिद्धियों की प्राप्ति करानेवाला होता है। इस पूजन में अगहनी के चावल से तैयार किये गये हविष्य का नैवेद्य उत्तम बताया जाता है। पौष मास में नाना प्रकार के अन्न का नैवेद्य विशेष महत्त्व रखता है।
मार्गशीर्ष मास में केवल अन्न का दान करने वाले मनुष्यों को ही सम्पूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति हो जाती है। मार्गशीर्ष मास में अन्नका दान करनेवाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते है। वह अभीष्ट-सिद्धि, आरोग्य, धर्म, वेद का सम्यक ज्ञान, उत्तम अनुष्ठान का फल, इहलोक और परलोक में महान भोग, अन्त में सनातन योग (मोक्ष) तथा वेदान्त ज्ञान की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो भोग की इच्छा रखनेवाला है, वह मनुष्य मार्गशीर्ष मास आने पर कम-से-कम तीन दिन भी उष:कालमें अवश्य देवताओं का पूजन करे और पौष मास को पूजन से खाली न जाने दे। उष:कालसे लेकर संगव काल तक ही पौषमास पूजन का विशेष महत्त्व बताया गया है। पौषमास में पूरे महीने भर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर द्विज प्रात:काल से मध्यांह काल तक वेदमाता गायत्री का जप करे। तत्पश्चात रात को सोने के समय तक पंचाक्षर आदि मन्त्रों का जप करे। ऐसा करने वाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है। द्विजेतर नर-नारियों को त्रिकाल स्नान और पंचाक्षर मन्त्र के ही निरंतर जप से विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इष्टमन्त्रों का सदा जप करने से बड़े-से-बड़े पापोंका भी नाश हो जाता है।
सारा चराचर जगत बिंदु-नादस्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह जगत शिव-शक्तिस्वरूप ही है। नाद बिन्दु का और बिंदु इस जगत का आधार है, ये बिंदु और नाद (शक्ति और शिव) सम्पूर्ण जगत के आधार रूप से स्थित है। बिंदु और नादसे युक्त सब कुछ शिवस्वरूप हैं; क्योंकि वही सबका आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश अथवा लय होता है। यही सकली करण है। इस सकली करण की स्थिति से ही सृष्टि काल में जगत का प्रादुर्भाव होता है, इसमें संशय नहीं है। शिवलिंग बिंदु नादस्वरुप है। अत: उसे जगत का कारण बताया जाता है। बिंदु देव हैं और नाद शिव, इन दोनों का संयुक्तरूप ही शिवलिंग कहलाता है। अत: जन्म के संकट से छुटकारा पाने के लिये शिवलिंग की पूजा करनी चाहिये। बिन्दुरुपा देवी उमा माता हैं और नादस्वरूप भगवान शिव पिता। इन माता-पिताके पूजित होने से परमानंद का लाभ लेने के लिये शिवलिंग का विशेषरूप से पूजन करे। देवी उमा जगत की माता है और भगवान शिव जगतके पिता। जो इनकी सेवा करता हैं, उस पुत्रपर इन दोनों माता-पिताकी कृपा नित्य अधिकाधिक बढती रहती है।
मात: देवी बिन्दुरुपा नादरूप: शिव पिता।।
पूजिताभ्यां पितृभ्यां तु परमानंद एव हि।
परमानंदलाभार्थ शिवलिंग प्रपूजयेत।
सा देवी जगतां माता स शिवो जगत: पिता।
पित्रों: शुश्रूष के नित्यं कृपधिक्यं हि वर्धते।। (शिवपुराण विद्येश्वर १६/९१-९३)
यह पूजक पर कृपा करके उसे अपना आंतरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। अत: मुनीश्वरो ! आंतरिक आनंद की प्राप्ति के लिये, शिवलिंग को माता-पिता का स्वरूप मानकर उसकी पूजा करनी चाहिये। भर्ग (शिव) पुरुषरूप हैं और भर्गा (शिवा अथवा शक्ति) प्रकृति कहलाती हैं। अव्यक्त आंतरिक अधिष्टानरूप गर्भ को पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आंतरिक अधिष्ठानभुत गर्भ को प्रकृति। पुरुष आदिगर्भ हैं, वह प्रकृतिरूप गर्भ से युक्त होने के कारण गर्भवान है; क्योंकि वही प्रकृतिका जंक है। प्रकृति में जो पुरुष का संयोग होता हैं, यही पुरुष से उसका प्रथम जन्म कहलाता है। अव्यक्त प्रकृति से महत्वत्वादि के क्रम से जो जगत का व्यक्त होना हैं, यही उस प्रकृति का द्वितीय जन्म कहलाता है। जीव पुरुष से ही बारंबार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता है। माया द्वारा अन्यरूप से प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है, जीव का शरीर जन्म काल से ही जीर्ण (छ: भाव विकारों से युक्त) होने लगता हैं, इसीलिये उसे ‘जीव’ संज्ञा दी गयी है। जो जन्म लेता और विविध पाशों द्वारा तनाव (बंधन) में पड़ता है, उसका नाम जीव है; जन्म और बंधन जीव शब्द का अर्थ ही है। अत: जन्म मृत्यु रूपी वन्धन की निवृत्ति के लिये जन्म के अधिष्ठानभुत मातृ-पितृस्वरुप शिवलिंग का पूजन करना चाहिये।
गाय का दूध, गाय का दही और गाय का घी – इन तीनों को पूजन के लिये शहद और शक्कर के साथ पृथक-पृथक भी रखे और इन सबको मिलाकर सम्मिलित रूप से पंचामृत भी तैयार कर ले। (इनके द्वारा शिवलिंग का अभिषेक एवं स्नान कराये ), फिर गाय के दूध और अन्न के मेल से नैवेद्य तैयार करके प्रणव मन्त्र के उच्चारण पूर्वक उसे भगवान् शिव को अर्पित करे। सम्पूर्ण प्रणव को ध्वनिलिंग कहते है। स्वयम्भूलिंग नादस्वरुप होने के कारण नादलिंग कहा गया है। यंत्र या अर्घा बिन्दुस्वरूप होने के कारण बिंदुलिंग के रूप में विख्यात है। उसमें अचलरूप से प्रतिष्ठित जो शिवलिंग हैं, वह मकार-स्वरुप है, इसलिये मकार लिंग कहलाता है। सवारी निकालने आदि के लिये जो चरलिंग होता है, वह उकार-स्वरुप होने से उकारलिंग कहा गया है तथा पूजा की दीक्षा देनेवाले जो गुरु या आचार्य हैं, उनका विग्रह अकार का प्रतिक होने से अकारलिंग माना गया है। इस प्रकार अकार, उकार, मकार, बिंदु, नाद और ध्वनि के रूप में लिंग के छ: भेद हैंं। इन छहों लिंगों की नित्य पूजा करने से साधक जीवनमुक्त हो जाता हैं, इसमें संशय नहीं है।
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अध्याय 17 : षडलिंगस्वरुप प्रणव का माहात्म्य, ॐकार और स्थूल रूप (पंचाक्षर मंत्र) का विवेचन, उसके जप की विधि एवं महिमा।
ऋषि बोले – प्रभो ! महामुने ! आप हमारे लिये क्रमशः षडलिंगस्वरुप प्रणव का माहात्म्य तथा शिवभक्त के पूजन का प्रकार बताइये।
सूतजी ने कहा – महर्षियों ! आप लोग तपस्या के धनी हैं, आपने यह बड़ा सुंदर प्रश्न उपस्थित किया है। किन्तु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं। तथापि भगवान शिव की कृपा से ही मैं इस विषय का वर्णन करूँगा। वे भगवान् शिव हमारी और आप लोगों की रक्षा का भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करे। ‘प्र ‘ नाम है प्रकृतिसे उत्पन्न संसार रूपी महासागर का। प्रणव इससे पार करने के लिये दूसरी (नव) नाव है। इसलिये इस ओंकार को ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं। ॐकार अपने जप करने वाले साधकों से कहता हैं – ‘प्र-प्रपंच, न- नहीं हैं, वल – तुमलोगों के लिये।’ अत: इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ओम’ को ‘प्रणव’ नामसे जानते हैं। इसका दूसरा भाव यों हैं – ‘प्र – प्रकषेण, न – नयेत, व – पुष्मान मोक्षम इति वा प्रणव:। अर्थात यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुँचा देगा।’ इस अभिप्राय से भी इसे ऋषि-मुनि ‘प्रणव’ कहते हैं। अपना जप करने वाले योगियों के तथा अपने मन्त्र की पूजा करने वाले उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है; इसलिये भी इसका नाम प्रणव है। उन माया रहित महेश्वर को ही नव अर्थात नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रकृष्ट रूप से नव अर्थात शुद्धस्वरुप हैं, इसलिये ‘प्रणव’ कहलाते हैं। प्रणव साभक को नव अर्थात नवीन (शिवस्वरूप) कर देता हैं ; इसलिये भी विद्वान पुरुष उसे प्रणव के नामसे जानते हैं। अथवा प्रकृष्टरूप से नव-दिव्य परमात्म ज्ञान प्रकट करता हैं, इसलिये वह प्रणव हैं।
प्रणव के दो भेद बताये गये हैं – स्थूल और सूक्ष्म। एक अक्षर रूप जो ‘ॐ’ है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और ‘नम: शिवाय’ इस पाँच अक्षर वाले मन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये। जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्ट रूप से व्यक्त हैं, वह स्थूल है। जीवमुक्त पुरुष के लिये सूक्ष्म प्रणव के जप का विधान है। वही उसके लिये समस्त साधनों का सार है। (यद्यपि जीवन मुक्त के क्योंकि वह सिद्धरुप हैं, तथापि दूसरों की दृष्टि में जब तक उसका शरीर रहता हैं, तब तक उसके द्वारा प्रणव-जप की सहज साधना स्वत: होती रहती है।) वह अपनी देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मन्त्र का जप और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्व का अनुसन्धान करता रहता है। जब शरीर नष्ट हो जाता हैं, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिवको प्राप्त कर लेता हैं – यह सुनिश्चित बात है। जो अर्थ का अनुसन्धान न करके केवल मन्त्र का जप करता हैं, उसे निश्चय ही योग की प्राप्ति होती है। जिसने छत्तीस करोड़ मंत्र का जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है। सूक्ष्म प्रणव के भी ह्रस्व और दीर्घ के भेद से दो रूप जानने चाहिये। अकार, उकार, मकार, बिंदु, नाद, शब्द, काल और कला – इनसे युक्त जो प्रणव हैं, उसे ‘दीर्घप्रणव’ कहते हैंं। वह योगियों के ही ह्रदय में स्थित होता है। मकार पर्यन्त जो ॐ हैं, वह अ व म – इन तीन तत्त्वों से युक्त है। इसी को ‘ह्रस्वप्रणव’ कहते हैं। ‘अ’ शिव हैं, ‘उ’ शक्ति हैं और मकार इन दोनों की एकता है। वह त्रितत्त्व रूप हैं, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणव का जप करना चाहिये। जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणवका जप अत्यंत आवश्यक है।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पाँच भुत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय – ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न होते हैं, वे दस प्रकार के पुरुष प्रवृत्त (अथवा प्रवृत्तिमार्गी) कहलाते हैं तथा जो निष्काम भाव से शास्त्र विहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त (अथवा निवृत्तिमार्गी) कहे गये हैं। प्रवृत्त पुरुषों को ह्रस्व प्रणव का ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषों को दीर्घ प्रणव का। व्याहतियों तथा अन्य मन्त्रों के आदि में इच्छानुसार शब्द और कला से युक्त प्रणव का उच्चारण करना चाहिये। वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ओंकार का उच्चारण करना चाहिये।
प्रणव का नौ करोड़ जप करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ का जप करने से वह पृथ्वी तत्व पर विजय पा लेता है। तत्पश्चात पुन: नौ करोड़ का जप करके वह जल-तत्त्व को जीत लेता है। पुनः नौ करोड़ जप से अभीतत्त्व पर विजय पाता है। तदनंतर फिर नौ करोड़ का जप करके वह वायु-तत्त्व पर विजयी होता है। फिर नौ करोड़ के जप से आकाश को अपने अधिकार में कर लेता है। इसी प्रकार नौ-नौ करोड़ का जप करके वह क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द पर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़ का जप करके अहंकार को भी जीत लेता है। इस तरह एक सौ आठ करोड़ प्रणव का जप करके उत्कृष्ट बोध को प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग का लाभ करता है। शुद्ध योग से युक्त होने पर वह जीवन मुक्त हो जाता हैं, इसमें संशय नहीं है। सदा प्रणव का जप और प्रणव रूपी शिव का ध्यान करते – करते समाधि में स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात शिव ही हैं, इसमें संशय नहीं है। पहले अपने शरीर में प्रणव के ऋषि, छंद और देवता आदि का न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये। अकारादि मातृका वर्णों से युक्त प्रणव का अपने अंगों में न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है। मन्त्रों के दशविद्य संस्कार, मातृका न्यास तथा षडध्वशोधन आदि के साथ सम्पूर्ण न्यास फल उसे प्राप्त हो जाता है। प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्तिसे मिश्रित भाववाले पुरुषों के लिये स्थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट साधक होता है।
क्रिया, तप और जप के योग से शिव योगी तीन प्रकार के होते हैं – जो क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं। जो धन आदि वैभवों से पूजा-सामग्री का संचय करके हाथ आदि अंगों से नमस्कारादि किया करते हुए इष्टदेव की पूजा में लगा रहता है, वह ‘क्रियायोगी’ कहलाता है। पूजामें संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता, बाह्य इन्दिर्यों को जीतकर वशमें किये रहता और मन को भी वश में करके परद्रोह आदि से दूर रहता है, वह ‘तपोयोगी’ कहलाता है। इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्ध भाव से रहता तथा समस्त काम आदि दोषों से रहित हो शांतचित्त से निरंतर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष ‘जपयोगी’ मानते हैं। जो मनुष्य सोलह प्रकार के उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदि के क्रम से उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
द्विजो ! अब मैं जप योग का वर्णन करता हूँ। तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। तपस्या करने वाले के लिये जप का उपदेश किया गया हैं; क्योंकि वह जप करते-करते अपने-आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है। ब्राह्मणों ! पहले ‘नम:’ पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्ति में ‘शिव’ शब्द हो तो पंच तत्त्वात्मक ‘नम:शिवाय’ मन्त्र होता है। इसे ‘शिव-पंचाक्षर’ कहते हैं। यह स्थूल प्रणवरूप है। इस पंचाक्षर के जप से ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। पंचाक्षर मन्त्र के आदि में ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये। द्विजो ! गुरु के मुख से पंचाक्षर मन्त्र का उपदेश पाकर जहाँ सुख पूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमि पर महीने के पूर्वपक्ष (शुक्ल) में (प्रतिपदासे) आरम्भ करके कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तक निरंतर जप करता रहे। माघ और भादों के महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। यह समय सब समयों से उत्तमोत्तम माना गया है। साधक को चाहिये कि प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्दिर्यों को वश में रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिता की नित्य सेवा करे। इस नियम से रहकर जप करने वाला पुरुष एक सहस्त्र जप से ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है। भगवान शिव का निरंतर चिन्तन करते हुए पंचाक्षर मन्त्र का पाँच लाख जप करे। जप काल में इस प्रकार ध्यान करे। कल्याणदाता भगवान् शिव कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चंद्रमा की कला से सुशोभित है। उनकी बायीं जांघ पर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैंं। वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान शिव की शोभा बढ़ा रहे हैं। महादेवजी अपने चार हाथों में मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभय की मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। इस प्रकार सदा सब पर अनुग्रह करने वाले भगवान् सदाशिव का बारंबार स्मरण करते हुए ह्दय अथवा सूर्यमंडल में पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्या का जप करे। उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे। (और दुष्कर्मसे बचा रहे )। जप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को प्रात:काल नित्यकर्म करके शुद्ध एवं सुंदर स्थान में शौच-संतोषादि नियमों से युक्त हो शुद्ध ह्रदय से पंचाक्षर मन्त्र का बारह सहस्त्र जप करे। तत्पश्चात पाँच सपत्निक ब्राह्मणों का, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हो, वरण करे। इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्य प्रवर का भी वरण करे और उसे साम्ब सदाशिव का स्वरूप समझे। ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात – इन पाँचों के प्रतीक स्वरुप पाँच ही श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण करने के पश्चात पूजन-सामग्री को एकत्र करके भगवान् शिव का पूजन आरम्भ करे। विधिपूर्वक शिव की पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे।
अपने गृह्यसूत्र के अनुसार सुखान्त कर्म करके अर्थात परिसमुहन, उपलेपन, उल्लेखन, मृद-उद्धरण और अभ्युक्षण – इन पंच भू-संस्कारों के पश्चात वेदी पर स्वाभिमुख अग्नि को स्थापित करके कुश कंडिका के अनन्तर प्रज्वलित अग्नि में आज्यभागान्त आहुति देकर प्रस्तुत होम का कार्य आरम्भ करे। कपिला गाय के घी से ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणों से एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये। होम कर्म समाप्त होने पर गुरु को दक्षिणा के रूप में एक गाय और बैल देने चाहिये। ईशान आदि के प्रतीक रूप जिन पाँच ब्राह्मणों का वरण किया गया हो, उनको ईशान आदि का स्वरुप ही समझे तथा आचार्य को साम्ब सदा-शिव का स्वरुप माने। इसी भावना के साथ उन सबके चरण मस्तक को सींधे। ऐसा करने से वह साथक अगणित तीर्थों में तत्काल स्नान करने का फल प्राप्त कर लेता है। उन ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक दशांश अन्न देना चाहिये। गुरुपत्नी से पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे। ईशानादि क्रम से उन सभी ब्राह्मणों का उत्तम अन्न से पूजन करके अपने वैभव विस्तार के अनुसार रुदाक्ष, वस्त्र, बड़ा और पुआ आदि अर्पित करे। तदनंतर बली देकर भरपूर भोजन कराये। इसके बाद देवेश्वर शिव से प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे। इस प्रकार पुरुश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्र को सिद्ध कर लेता है। फिर पाँच लाख जप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। तदनंतर पुन: पाँच लाख जप करने पर अतल से लेकर सत्यलोक तक चौदहों भुवनों पर क्रमशः अधिकार प्राप्त हो जाता है।
पृथ्वी आदि कार्य स्वरूप भूतों द्वारा पाताल से लेकर सत्यलोक पर्यन्त ब्रह्माजी के चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं। सत्यलोक से ऊपर क्षमा लोक तक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णु के लोक हैं। क्षमा लोक से ऊपर शुचिलोक पर्यन्त अठ्ठाइस भुवन स्थित हैं। शुचिलोक के अंतर्गत कैलास में प्राणियों का संहार करने वाले रुद्रदेव विराजमान हैंं। शुचिलोक से ऊपर अहिन्सालोक पर्यन्त छप्पन भुवनों की स्थिति है। अहिन्सा लोक का आश्रय लेकर जो ज्ञान-कैलास नामक नगर शोभा पाटा है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं। अहिंसा लोक के अंत में काल चक्र की स्थिति है। यहाँ तक महेश्वर के विराट स्वरुप का वर्णन किया गया। वहींं तक लोकों का तिरोधान अथवा लय होता है। उससे नीचे कर्मों का भोग है और उससे ऊपर ज्ञान का भोग। उसके नीचे कर्ममाया हैं और उसके ऊपर ज्ञानमाया।
कर्ममाया और ज्ञानमाया का तात्पर्य –
‘मांं’ का अर्थ हैं लक्ष्मी। उससे कर्म भोग यात – प्राप्त होता है। इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है। इसी तरह मांं अर्थात लक्ष्मी से ज्ञान भोग बात अर्थात प्राप्त होता है। इसिलिये उसे माया या ज्ञान माया कहा गया है। उपर्युक्त सीमा से नीचे ही नश्वर भोग है और ऊपर नित्य भोग। उससे नीचे ही तिरोधान अथवा ली है, ऊपर नहीं। वहाँ से नीचे ही कर्ममय पाशोंं द्वारा बंधन होता है। ऊपर बंधन का सदा अभाव है। उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैंं। उससे ऊपर के लोकों में निष्काम कर्म का ही भोग बताया गया है। बिंदुपूजा में तत्पर रहने वाले उपासक वहां से नीचे के लोकों में ही घूमते हैं। उसके ऊपर तो निष्काम भाव से शिवलिंग की पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं। जो एकमात्र शिव की उपासना में तत्पर है, वे उससे ऊपर के लोकों में जाते हैं। वहाँ से नीचे जीव कोटि है और ऊपर ईश्वर कोटि। नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त पुरुष। नीचे कर्मलोक हैं और ऊपर ज्ञानलोक। ऊपर मद और अहंकार का नाश करनेवाली नम्रता है, वहाँ जन्म जनित तिरोधान नहीं है। उसका निवारण किये बिना वहाँ किसी का प्रवेश सम्भव नहीं है। इस प्रकार तिरोधान का निवारण करने से वहाँ ज्ञान शब्द का अर्थ ही प्रकाशित होता है। आधि भौतिक पूजा करने वाले लोग उससे नीचे के लोकों में ही चक्कर काटते हैं। जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं, वे ही उससे ऊपर को जाते हैं।
जो सत्य-अहिंसा आदि धर्मों से मुक्त हो भगवान् शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे कालचक्र को पार कर जाते हैं। काल चक्रेश्वर की सीमा तक जो विराट महेश्वरलोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है। वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान रूप है। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया – ये चार पाद हैं। वह साक्षात शिवलोक के द्वारपर खड़ा है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं , वह वेद्ध्यनिरुपी शब्द से विभूषित है। आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है। क्रिया आदि धर्मरुपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदि में स्थित हैं – ऐसा जानना चाहिये। उस क्रिया रूप वृषभाकार धर्म पर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की जो अपनी-अपनी आयु हैं,उसीको दिन कहते हैंं। जहाँ धर्मरुपी वृषभ की स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है न रात्रि। वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं है। वहाँ फिर से कारण स्वरुप ब्रह्मा के कारण सत्यलोक पर्यंत चौदह लोक स्थित हैं, जो पांच भौतिक गंध आदि से परे हैंं। उनकी सनातन स्थिति है। सूक्ष्म गंध ही उनका स्वरुप है। उनसे ऊपर फिर कारण रूप विष्णु के चौदह लोक स्थित हैं। उनसे भी ऊपर फिर कारण रूपी रूद्र के अठ्ठाइस लोकों की स्थिति मानी गयी है। फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं। तदनंतर शिवसम्मत ब्रह्मचर्य लोक हैं और वहीँ पाँच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलास है, जहाँ पाँच मंडलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदि शक्ति से संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित है। उसे परमात्मा शिवका शिवालय कहा गया है। वही पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह – इन पाँचों कृत्योंमें प्रवीण हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्द स्वरुप है। वे सदा ध्यान रुपी धर्म में ही स्थित रहते हैं और सदा सब पर अनुग्रह किया करते हैं। वे स्वात्माराम हैं और समाधिरुपी आसन पर आसीन हो नित्य विराजमान होते हैं। कर्म एवं ध्यान आदि का अनुष्ठान करने से क्रमश: साधन पथ में आगे बढने पर उनका दर्शन साध्य होता है। नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मो द्वारा देवताओं का यजन करने से भगवान् शिव के समाराधन-कर्म में मन लगता है। क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करेंं। जिन्होंने शिवतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिन पर शिव की कृपा दृष्टि पढ़ चुकी हैं, वे सब मुक्त ही हैं – इसमें संशय नहीं है। आत्म स्वरूप से जो स्थिति है, वही मुक्ति है। एकमात्र अपने आत्मा में रमण या आनंद का अनुभव करना ही मुक्ति का स्वरुप है। जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरुपी श्रमों में भलीभाँति स्थित है, वह शिव का साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्व रूप मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से अशुद्धि को दूर कर देते हैं, उसी प्रकार कृपा करने में कुशल भगवान् शिव अपने भक्त के अज्ञान को मिटा देते हैं। अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर शिव ज्ञान स्वत: प्रकट हो जाता है। शिवज्ञान से अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्त्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्त्व की सम्यक सिद्धि हो जानेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।
इस तरह यहाँ जो कुछ बताया गया है। वह पहले मूझे गुरु परंपरा से प्राप्त हुआ था। तत्पश्चात मैंने पुन: नन्दीश्वर के मुख से इस विषय को सूना था। नंदिस्थान से परे जो सर्वश्रेष्ठ शिव-वैभव है, उसका अनुभव केवल भगवन शिव को ही है। साक्षात शिवलोक के उस वैभव का ज्ञान सब को शिव की कृपा से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं – ऐसा आस्तिक पुरुषों का कथन है।
साधक को चाहिये कि वह पाँच लाख जप करने के पश्चात भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिव भक्तों का पूजन करे। भक्त की पूजा से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। शिव और उनके भक्त में कोई भेद नहीं है। वह साक्षात शिव स्वरुप ही हैं। शिवस्वरुप मन्त्र को धारण करके वह शिव ही हो गया रहता है। शिवभक्त का शरीर शिवरूप ही है। अत: उसकी सेवा में तत्पर रहना चाहिये। जो शिव के भक्त हैं, वे लोक और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं। जो क्रमशः जितना-जितना शिवमंत्र का जप कर लेता है, उसके शरीर को उतना-ही-उतना शिव का सामीप्य प्राप्त होता जाता हैं, इसमें संशय नहीं है। शिवभक्त स्त्रीका रूप देवी पार्वती का ही स्वरूप है। वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवी का सानिध्य प्राप्त होता जाता है। साधक स्वयं शिव स्वरूप होकर पराशक्ति का पूजन करेंं। शक्ति, वेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिटटी आदि से इनकी आकृति का निर्माण करके प्राण प्रतिष्ठा पूर्वक निष्कपट भाव से इनका पूजन करेंं। शिवलिंग को शिव मानकर, अपने को शक्तिमय समझकर, शक्तिलिंग को देवी मानकर और अपने को शिवरूप समझकर, शिवलिंग को नादरूप तथा शक्ति को बिंदुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंग के प्रति उपप्रधान और प्रधान की भावना रखते हुए जो शिव और शक्ति का पूजन करता हैं, वह मूलरूप की भावना करने के कारण शिवरूप ही है। शिवभक्त शिव-मन्त्ररूप होने के कारण शिव के ही स्वरूप है। जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। जो शिवलिंगोंपासक शिवभक्त की सेवा आदि करके उसे आनंद प्रदान करता है, उस विद्वान पर भगवान शिव बड़े प्रसन्न होते हैं। पाँच, दस या सौ सपत्निक शिवभक्तों को बुलाकर भोजन आदि के द्वारा पत्नी सहित उनका सदैव समादर करेंं। धन में, देह में और मन्त्र में शिव भावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्ति का स्वरूप जानकर निष्कपट भाव से उनकी पूजा करेंं। ऐसा करने वाला पुरुष इस भूतल पर फिर जन्म नहीं लेता।
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अध्याय 18 : बंधन और मोक्ष का विवेचन, शिवपूजा का उपदेश, लिंग आदि में शिवपूजन का विधान
ऋषि बोले – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूतजी ! बंधन और मोक्ष का स्वरूप क्या हैं ? यह हमें बताइये।
सूतजी ने कहा – महर्षियों ! मैं बंधन और मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा। तुम लोग आदरपूर्वक सुनो। जो प्रकृति आदि आठ बन्धनों से बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता हैं और जो उन आठों बन्धनों से छुटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं। प्रकृति आदि को वश में कर लेना मोक्ष कहलाता है। बंधन आगन्तुक हैं और मोक्ष स्वत:सिद्ध है। बद्ध जीव जब बंधन से मुक्त हो जाता हैं तब उसे मुक्त जीव कहते हैं। प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ – इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याध्यष्ट्क मानते हैं। प्रकृति आदि आठ तत्त्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है। देह से कर्म उत्पन्न होता हैं और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार बारंबार जन्म और कर्म होते रहते हैं। शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये। स्थूल शरीर (जाग्रत अवस्था में) व्यापार कराने वाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में ) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारण शरीर (सुषुप्तावस्था में) आत्मानंद की अनुभूति कराने वाला कहा गया है। जीव को उसके प्रारब्ध कर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। वह अपने पुण्य कर्मों के फलस्वरूप सुख और पाप कर्मों के फलस्वरूप दुःख का उपभोग करता है। अत: कर्मपाश से बन्धा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीर से होनेवाले शुभाशुभ कर्मों द्वारा सदा चक्र की भांति बारंबार घुमाया जाता है। इस चक्रवत भ्रमण की निवृत्ति के लिये चक्रकर्ता का स्तवन एवं आराधन करना चाहिये। प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृति से परे हैं , वह परमात्मा शिव है। भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं। जैसे बकायन नामक वृक्ष का छाला जल को पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदि को अपने वश में करके उस पर शासन करते हैं, उन्होंने सब को वश में कर लिया हैं, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा नि:स्पृह हैं। सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि बोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना – महेश्वर के इन छ: प्रकार के मानसिक ऐश्वर्यों को केवल वेद जानता है। अत: भगवान् शिव के अनुग्रह से ही प्रकृति आदि आठों तत्व वश में होते हैं। भगवान् शिव का कृपा-प्रसाद प्राप्त करने के लिये उन्हीं का पूजन करना चाहिये।
यदि कहें – शिव तो परिपूर्ण हैं, नि:स्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् शिव के उद्देश्य से – उनकी प्रसन्नता के लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपा प्रसाद को प्राप्त कराने वाला होता है। शिव-लिंग में, शिव की प्रतिमा में तथा शिवभक्त जनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये। वह पूजन शरीर से, मन से, वाणी से और धन से भी किया जा सकता है। उस पूजा से महेश्वर शिव, जो प्रकृति से परे हैं, पूजक पर विशेष कृपा करते हैं और उनका वह कृपा-प्रसाद सत्य होता है। शिव की कृपा से कर्म आदि सभी बंधन अपने वश में हो जाते हैं। कर्म से लेकर प्रकृति पर्यन्त सब कुछ जब वश में हो जाता हैं, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता। परमेश्वर शिव की कृपासे जब कर्म जनित शरीर अपने वश में हो जाता है, तब भगवान् शिव के लोक में निवास का सौभाग्य प्राप्त होता है। इसी को सालोक्य-मुक्ति कहते हैं। जब तन्मात्राएँ वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बा सहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है। यह सामीप्य मुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिव के समान हो जाते हैं। भगवान् का महाप्रसाद प्राप्त होने पर बुद्धि भी वश में हो जाती है। बुद्धि प्रकृति का कार्य है। उसका वश में होना सार्ष्टिमुक्ति कहा गया है। पुन: भगवान का महान अनुग्रह प्राप्त होने पर प्रकृति वश में हो जायगी। उस समय भगवान् शिव का मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायगा। सर्वज्ञता और तृप्ति आदि जो शिव के ऐश्वर्य है, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपने आत्मा में ही विराजमान होता है। वेद और शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले विद्वान पुरुष इसी को सायुज्यमुक्ति कहते हैं। इस प्रकार लिंग आदि में शिव की पूजा करने से क्रमश: मुक्ति स्वत: प्राप्त हो जाती है। इसलिये शिव का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदि के द्वारा उन्हीं का पूजन करना चाहिये। शिवक्रिया, शिवतप, शिवमंत्र-जप, शिवज्ञान और शिवध्यान के लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये। प्रतिदिन प्रात:काल से रात को सोते समय तक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिव के चिन्तन में ही बिताना चाहिये। सद्योजातादि मंत्रो तथा नाना प्रकार के पुण्यों से जो शिव की पूजा करता हैं, वह शिवको ही प्राप्त होगा।
ऋषि बोले – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले सूतजी ! लिंग आदि में शिवजी की पूजा का विधान हैं, यह हमे बताइये।
सूतजीने कहा – द्विजो ! मैं लिंगों के क्रम का यथावत वर्णन कर रहा हूँ तुम सब लोग सुनो। वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला प्रथम लिंग है। उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझो। सूक्ष्म लिंग निष्कल होता हैं और स्थूल लिंग सकल। पंचाक्षर-मन्त्र को ही स्थूल लिंग कहते हैं। उन दोनों प्रकार के लिंगों का पूजन तप कहलाता है। वे दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देनेवाले हैं। पौरुष-लिंग और प्रकृति-लिंग के रूप में बहुत से लिंग हैं। उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं। दूसरा कोई नहीं जानता। पृथ्वी के विकार भूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उन को मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उनमें स्वयम्भूलिंग प्रथम हैं। दूसरा बिंदुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित-लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवा गुरुलिंग हैं। देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिये पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप से व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षों के अंकुर की भांति भूमि को भेदकर नादलिंग के रूपमें व्यक्त हो जाते हैं। वे स्वत: व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होने के कारण स्वयंभू नाम धारण करते हैं। ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंग की रुप मेंं जानते हैं। उस स्वयम्भूलिंग की पूजा से उपासक का ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है। सोने-चाँदी आदि के पत्रपर, भूमि पर अथवा वेदि पर अपने हाथ से लिखित जो शुद्ध प्रणव मंत्ररूप लिंग है, उसमें तथा मन्त्रलिंग का आलेखन करके उसमें भगवान् शिवकी प्रतिष्ठा और आवाहन करेंं। ऐसा बिंदुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार का होता है। इसमें शिव का दर्शन भावनामय ही है, ऐसा निस्संदेह कहा जा सकता है। जिसको जहाँ भगवान् शंकर के प्रकट होने का विश्वास हो, उसके लिये वहीँ प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। अपने हाथ से लिखे हुए यंत्र में अथवा अकृतिम स्थावर आदि में भगवान् शिव का आवाहन करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करेंं। ऐसा करने से साधक स्वयं ही ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है और इस साधन के अभ्यास से उसको ज्ञान भी होता है। देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिये अपने हाथ से वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक शुद्ध मंडल में शुद्ध भावना द्वारा जिस उत्तम शिवलिंग की स्थापना की है, उसे पौरुष लिंग कहते हैं। तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है। उस लिंग की पूजा करने से सदा पौरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। महँ ब्राह्मण और महाधनी राजा किसी कारीगर से शिवलिंग का निर्माण कराकर जो मंत्रपूर्वक उसकी स्थापना करते हैं, उनके द्वारा स्थापित हुआ वह लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है। किन्तु वह प्राकृत लिंग है न। इसलिये प्राकृत ऐश्वर्य-भोग को ही देने वाला होता है। जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुष कहते हैं तथा जो दुर्बल और अनित्य होता हैं, वह प्राकृत कहलाता है।
लिंग, नाभि, जिव्हा, नासा प्रभाग और शिखा के क्रम से कटी, ह्रदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी है, उस आध्यात्मिक लिंग को ही चर लिंग कहते है। पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया हैं और भूतल को विद्वान पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं। वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये और गुल्म आदिको प्राकृतलिंग। साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग। अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देनेवाला जो ऐश्वर्य हैं, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये। सुंदर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं। चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता है। रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है। शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान राज्य की प्राप्ति कराने वाला है। सुवर्ण लिंग वैश्यों को महाधन पति का पद प्रदान करने वाला है तथा सुंदर शिवलिंग शुदों को महाशुद्धि देनेवाला है। स्फटिकमय लिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं। अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं है। स्त्रियों, विशेषत: सधवाओं के लिये पार्थिव लिंग की पूजा का विधान है। प्रवृत्तिमार्ग में स्थित विग्रवाओं के लिये स्फटिकलिंग की पूजा बतायी गयी है। परन्तु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया है। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षियों ! बचपनमें, जवानी में और बुढापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करनेवाला है। गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली है।
प्रवृत्तिमार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजा कर्म सम्पन्न करेंं। इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात अगहनी के चावल से बने हुए खीर आदि पक्वान्नों द्वारा नैवेद्य अर्पण करेंं। पूजा के अंत में शिवलिंग को सम्पुष्ट में पधराकर घर के भीतर पृथक रख देंं। जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथ पर ही शिवलिंग-पूजा का विधान है। उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये। निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारण करेंं।
विभूति तीन प्रकार की बतायी गयी हैं – लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित। लोकाग्निजनित या लौकिक भस्म द्रव्यों की शुद्धि के लिये लाकर रखे। मिटटी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की, धान्यों की, तिल आदि द्रव्यों की, वस्त्र आदि की तथा पर्युषित वस्तुओं की भस्म से शुद्धि होती है। कुत्ते आदि से दूषित हुए पात्रों की भी भस्म से ही शुद्धि मानी गयी है। वस्तु-विशेष की शुद्धि के लिये यथा योग्य सजल अथवा निर्जल भस्म का उपयोग करना चाहिये। मन्त्र और क्रिया से जनित जो होमकर्म है, वह अग्नि में भस्म का रूपधारण करता है। उस भस्म को धारण करने से वह कर्म आत्मा में आरोपित हो जाता है। अघोर मुर्तिधारी शिव का जो अपना मन्त्र है, उसे पढकर बेल की लकड़ी को जलायेंं। उस मन्त्र से अभिमंत्रित अग्नि को शिवाग्नि कहा गया है। उसके द्वारा जले हुए काष्ठ का जो भस्म है, वह शिवाग्निजनित है। कपिला गाय के गोबर अथवा गाय मात्र के गोबर को तथा शमी, पीपल, पलाश, बड, अमलतास और बेर – इनकी लकड़ियों की शिवाग्नि से जलाये। वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनित माना गया है अथवा कुश की अग्नि में शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठ को जलाये। फिर उस भस्म को कपड़े से अच्छी तरह छानकर नये घड़े में भरकर रख दे। उसे समय-समय पर अपनी कान्ति या शोभा की वृद्धि के लिये धारण करेंं। ऐसा करने वाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है। पूर्वकाल में भगवान् शिव ने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था। जैसे राजा अपने राज्य में सार भूत कर को ग्रहण करता हैं, जैसे मनुष्य सत्य आदि को जलाकर (राँधकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थों को भारी मात्रा में ग्रहण करके जलाता, जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तु से स्वदेह का पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंच कर्ता परमेश्वर शिव ने भी अपने में आधेपरूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्म रूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है। प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है। राख, भभूत पोतने के बहाने जगत के सार को ही ग्रहण किया हैं। अपने शरीर में अपने लिए रत्नस्वरुप भस्म को इस प्रकार स्थापित किया हैं – आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारतत्व से कटि भाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है। इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के सार रूप हैं। महेश्वर ने अपने ललाट में तिलक रूप से जो त्रिपुंड धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र का सारतत्त्व है। वे इन सब वस्तुओं को जगत के अभ्युदय का हेतु मानते हैं। इन भगवान् शिव ने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वश में किया है। अत: इन्हें अपने वश में करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करने वाला कहलाता हैं और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं हैं, अत एव उसे सिंह कहा गया है।
शकार का अर्थ हैं नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ हैं पुरुष और वकार का अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति। इन सब का सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है। अत: इस रुप मेंं भगवान् शिव को अपना आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये; अत: पहले अपने अंगों में भस्म मले। फिर ललाट में उत्तम त्रिपुंड धारण करेंं। पूजा काल में सजल भस्म का उपयोग होता हैं और द्रव्य शुद्धि के लिये निर्जल भस्म का। गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं – दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं। गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनो गुणों को पहले दूर करके फिर उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं। गुरु की पूजा परमात्मा शिव की ही पूजा है। गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्म शुद्धि करने वाला होता है। गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तु का उपयोग करता है। गुरु से भी विशेष ज्ञानवान पुरुष मिल जाय तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिए। अज्ञान रूपी बंधन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ है। अत: जो विशेष ज्ञानवान है, वही जीव को उस बंधन से छुड़ा सकता है।
जन्म और मरण रूप द्वंद्व को भगवान् शिव की माया ने ही अर्पित किया है। जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीर के बंधन में नहीं पड़ता। जब तक शरीर रहता हैं, तब तक जो क्रिया के ही अधीन हैं, वह जीव बद्ध कहलाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण – तीनों शरीरों को वश में कर लेने पर जीव का मोक्ष हो जाता हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है। माया चक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं। वे अपनी माया के दिये हुए द्वंद्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं। अत: शिव के द्वारा कल्पित हुआ द्वंद्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये। जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यान में से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान शिव के सामीप्य का लाभ – ये क्रमश: क्रिया आदि के फल है। निष्काम कर्म करने से अज्ञान का निवारण हो जाने के कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता है। शिव भक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य क्रिया आदि का अनुष्ठान करेंं। न्यायोपार्जित उत्तम धन से निर्वाह करते हुए विद्वान पुरुष शिव के स्थान में निवास करे। जीव हिंसा आदि से रहित और अत्यंत क्लेष शून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जप से अभिमंत्रित अन्न और जल को सुख स्वरूप माना गया है अथवा कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है। शिव भक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो तो वह शिवभक्ति को बढाता है। शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भु सत्र कहते हैं। जिस किसी भी उपाय से जहाँ कहीं भी भूतल पर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौनभाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसी पर प्रकट न करे। भक्तों के समक्ष ही शिव के माहात्म्य प्रकाशित करेंं। शिवमंत्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा नहीं।
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अध्याय 19-20 : पार्थिव लिंग के निर्माण की विधि तथा वेद मंत्रों द्वारा उसके पूजन की विधि का वर्णन
तदनन्तर पार्थिव लिंग की श्रेष्ठता तथा महिमा का वर्णन करके सूत जी कहते हैं- महर्षियों ! अब मैं वैदिक कर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने वाले लोगों के लिए वेदोक्त मार्ग से ही पार्थिव पूजा की पद्धति का वर्णन करता हूँँ। यह पूजा भोग और मोक्ष दोनों को देने वाली है।
सूत्रों में बताई हुई विधि के अनुसार विधि पूर्वक स्नान और संध्योपासना करके पहले ब्रह्म यज्ञ करें। तत्पश्चात देवताओं, ऋषियों, सनकादी मनुष्यों और पितरों का तर्पण करें। अपनी रूचि के अनुसार संपूर्ण नित्यकर्म को पूर्ण करके शिव स्मरण पूर्वक भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करें। तत्पश्चात संपूर्ण मनोवांछित फल की सिद्धि के लिए ऊंची भक्ति भावना के साथ उत्तम पार्थिव लिंग की वैदिक विधि से भलीभांति पूजा करें। नदि या तालाब के किनारे, पर्वत पर, वन में, शिवालय में अथवा और किसी पवित्र स्थान में पार्थिव पूजा करने का विधान है। ब्राह्मणों ! शुद्ध स्थान से निकाली हुई मिट्टी को यत्न पूर्वक लाकर बड़ी सावधानी के साथ शिवलिंग का निर्माण करें। ब्राह्मण के लिए श्वेत, क्षत्रिय के लिए लाल, वैश्य के लिए पीली और शूद्र के लिए काली मिट्टी से शिवलिंग बनाने का विधान है अथवा जहां जो मिट्टी मिल जाए, उसी से शिवलिंग बनाएं।
शिवलिंग बनाने के लिए प्रयत्न पूर्वक मिट्टी का संग्रह करके उस शुभ मृतिका को अत्यंत शुद्ध स्थान में रखें। फिर उसकी शुद्धि करके जल से सान कर पिंडी बना ले और वेदोक्त मार्ग से धीरे-धीरे सुंदर पार्थिव लिंग की रचना करें। तत्पश्चात भोग और मोक्ष रूपी फल की प्राप्ति के लिए भक्ति पूर्वक उसका पूजन करें। उस पार्थिव लिंग के पूजन की जो विधि है उसे में विधान पूर्वक बता रहा हूं ; तुम सब लोग सुनो।
ॐ नमः शिवाय इस मंत्र का उच्चारण करते हुए समस्त पूजन सामग्री का प्रोक्षण करें- उस पर जल छिड़कें। इसके बाद भूरसि. इत्यादि मंत्र से क्षेत्रसिद्धि करें, फिर आपोअस्मान. इस मंत्र से जल का संस्कार करें।
इसके बाद नमस्ते रूद्र. इस मंत्र से स्फाटिकाबंध (स्फटिक शीला का घेरा) बनाने की बात कही गई है। नमः शम्भवाय. इस मंत्र से क्षेत्र सिद्धि और पंचामृत का प्रोक्षण करें। तत्पश्चात शिवभक्त पुरुष नमः पूर्वक नीलग्रीवाय. मंत्र से शिवलिंग की उत्तम प्रतिष्ठा करें।
इसके बाद वैदिक रीति से पूजन कर्म करने वाला उपासक भक्ति पूर्वक एतत्ते रुद्रावसं इस मंत्र से रमणीय आसन दे। मा नो महानतम . इस मंत्र से आवाहन करें, या ते रुद्र. इस मंत्र से भगवान शिव को आसन पर समासीन करें। यामिषुं . इस मंत्र से शिव के अंगों में न्यास करें। अध्यवोचत . इस मंत्र से प्रेम पूर्वक अधिवासन करें।
असौ यस्ताम्रो. इस मंत्र से शिवलिंग में इष्ट देवता शिव का न्यास करें। असौ योअवसरपति. इस मंत्र से उप सर्पण देवता के समीप गमन करें। इसके बाद नमोस्तु नीलगिरीवाय. इस मंत्र से इष्ट देव को पाद्य समर्पित करें।
रूद्रगायत्री. से अर्ध्य दे। त्र्यंबकं. मंत्र से आचमान कराएं। पयः पृथिव्यां. इस मंत्र से दुग्ध स्नान कराएं। दधिक्राव्णो. इस मंत्र से दधि स्नान कराएं। घृतं घृतपावा. इस मंत्र से घृत स्नान कराएं। मधु वाता, मधु नक्तं, मधु मान्नो. इन तीन ऋचाओं से मधु स्नान और शर्करा स्नान कराएं। इन दुग्ध आदि 5 वस्तुओं को पंचामृत कहते हैं।
अथवा पद्य समर्पण के लिए कहे गए नमोस्तु नीलगिरी. बाय इत्यादि मंत्र द्वारा पंचामृत से स्नान कराएं तंत्र मानव स्टोर के इस मंत्र से प्रेम पूर्वक भगवान शिव को कटिबंध करधनी अर्पित करें।
नमो धृष्णवे. इस मंत्र का उच्चारण करके आराध्य देवता को उत्तरीय धारण कराएं। या ते हेति. इत्यादि चार ऋचाओं को पढ़कर वैद्यज्ञ भक्त प्रेम से विधि पूर्वक भगवान शिव के लिए वस्त्र एवं यज्ञोपवीत समर्पित करें। इसके बाद नमः श्वभ्यः . इत्यादि मंत्र को पढ़कर शुद्ध बुद्धि वाला भक्त पुरुष भगवान को प्रेम पूर्वक गंध सुगंधित चंदन और रोली चढ़ाएं। नमस्तक्षभ्यो. इस मंत्र से अक्षत अर्पित करें। नमः पार्याय. इस मंत्र से फूल चढ़ाएं। नमः पर्णाय. इस मंत्र से बिल्वपत्र समर्पण करें। नमः कपर्दिनेे च. इत्यादि मंत्र से विधि पूर्वक धूप दें। नमः आसवे. इस ऋचा से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार दीप निवेदन करें। तत्पश्चात हाथ धोकर नमो जेेेष्ठाय. इस मंत्र से उत्तम नैवेद्य अर्पित करें। फिर पूर्वोत्तर त्रंमबक मंत्र से आचमन कराएं। इमा रुद्राय. इस ऋच से फल समर्पण करें। फिर नमो व्रज्ययाय. इस मंत्र से भगवान शिव को अपना सब कुछ समर्पित कर दें। तदनन्तर मा नो महान्तम्. तथा मा नस्तोके. इन दो मंत्रों द्वारा केवल अक्षतो से 11 रूद्रों का पूजन करें। फिर हिरण्यगर्भ. इत्यादि मंत्र से जो 3 ऋचाओं के रूप में पठित है, दक्षिणा चढ़ाएं। देवस्य त्वा. इस मंत्र से विद्वान पुरुष आराध्य देव का अभिषेक करें। दीप के लिए बताए हुए नमः आशवे. इत्यादि मंत्र से भगवान शिव की निराजना आरती करें। तत्पश्चात इमा रुद्राय. इत्यादि 3 रिचाओंं से भक्ति पूर्वक रूद्र देव को पुष्पांजलि अर्पित करें। मा नो महान्तम्. इस मंत्र विज्ञ से उपासक पूजनीय देवता की परिक्रमा करें। फिर उत्तम बुद्धि वाला उपासक मा नस्तोके. इस मंत्र से भगवान को साष्टांग प्रणाम करें। एष ते. इस मंत्र से शिवमुद्रा का प्रदर्शन करें। यतो यतः. इस मंत्र से अभय नामक मुद्रा का, त्रंमबकं. मन्त्र से ज्ञान नामक मुद्रा का तथा नमः सेना. इत्यादि मंत्र से महामुद्रा का प्रदर्शन करें। नमो गोभ्य. इस ऋचा द्वारा धेनु मुद्रा दिखाएं, इस तरह पांच मुद्राओं का प्रदर्शन करके शिव संबंधी मंत्रों का जप करें। अथवा वेदज्ञ पुरुष शतरुद्रिय. मंत्र की आवृत्ति करें। तत्पश्चात वैदज्ञ पुरुष पंचांग पाठ करें। तदनन्तर देवा गातु. इत्यादि मंत्र से भगवान शंकर का विसर्जन करें। इस प्रकार शिव पूजा की वैदिक विधि का विस्तार से प्रतिपादन किया गया।
महर्षियों ! अब संक्षेप मे पार्थिव पूजन की वैदिक विधि का वर्णन सुनो। सद्यो जातं. इस ऋचा से पार्थिव लिंग बनाने के लिए मिट्टी ले आए। वाम देवाय. इत्यादि मंत्र पढ़कर उसमें जल डालें। जब मिट्टी सनकर तैयार हो जाए तब अघोर. मंत्र से लिंग निर्माण करें। फिर तत्पुरुषाय. इस मंत्र से विधिवत उसमें भगवान शिव का आवाहन करें। तदनन्तर ईशान. मंत्र से भगवान शिव को वेदी पर स्थापित करें। इनके सिवाय अन्य सभी विद्वानों को भी शुद्ध बुद्धि वाला उपासक संक्षेप से ही संपन्न करें। इसके बाद विद्वान पुरुष पंचाक्षर मंत्र से अथवा गुरु के दिए हुए अन्य किसी शिव संबंधी मंत्र से सोलह उपचारों द्वारा विधिवत पूजन करें- अथवा
भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमहि।
उग्राय उग्रनाशाय शर्वाय शशिमौलिने ।।
इस मंत्र द्वारा विज्ञान उपासक भगवान शंकर की पूजा करें। वह भ्रम छोड़कर उत्तम भाव भक्ति से शिव की आराधना करें क्योंकि भगवान शिव भक्ति से ही मनोवांछित फल देते हैं। ब्राह्मणों ! यहां जो वैदिक विधि से पूजन का क्रम बताया गया है इसका पूर्ण रूप से आदर करता हुआ मैं पूजा की एक दूसरी विधि भी बता रहा हूं जो उत्तम होने के साथ ही सर्वसाधारण के लिए उपयोगी है। मुनिवरों ! पार्थिव लिंग की पूजा भगवान शिव के नामों से बताई गई है। वह पूजा संपूर्ण अभीष्टों को देने वाली है। मैं उसे बताता हूं सुनो, हर, महेश्वर, शंभू, शूलपाणि, पिनाकधृक, शिव, पशुपति और महादेव- यह क्रम से शिव के 8 नाम कहे गए हैं। इनमें से प्रथम नाम के द्वारा अर्थात औम हराए नमः का उच्चारण कर की पार्थिव लिंग बनाने के लिए मिट्टी लाएं। दूसरे नाम अर्थात ॐ महेश्वराय नमः का उच्चारण करके लिंग निर्माण करें। ओम शंभवी नमः बोलकर उस पार्थिव लिंग की प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात ओम शूलपानी नमः के कर उस पार्थिव लिंग में भगवान शिव का आवाहन करें। ओम पिनाकधृक नमः कहकर उस शिवलिंग को नहलाएं। ओम शिवाय नमः बोलकर उसकी पूजा करें। फिर औम पशुपतये नमः कहकर क्षमा प्रार्थना करें और अंत में ॐ महादेवाय नमः कहकर आराध्य देव का विसर्जन करें। प्रत्येक नाम के आदि में ओमकार और अंत में चतुर्थी विभक्ति के साथ नमः पद लगाकर बड़े आनंद और भक्ति भाव से पूजन संबंधित सारे कार्य करने चाहिए।
षडक्षर मंत्र से अंग न्यास और कर न्यास की विधि भली-भांति संपन्न करके फिर नीचे लिखे अनुसार ध्यान करें। जो कैलाश पर्वत पर एक सुंदर सिंहासन के मध्य भाग में विराजमान हैं, जिनके वामभाग में भगवती उमा उनसे सटकर बैठी हुई हैंं, सनक-सनन्दन आदि भक्तजन जिनकी पूजा कर रहे हैं तथा जो भक्तों के दुख रूपी दावानल को नष्ट कर देने वाले अप्रमेय
शक्तिशाली ईश्वर हैं, उन विश्वविभूषण भगवान शिव का चिंतन करना चाहिए।
भगवान महेश्वर का प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करें- उनकी अंग कांति चांदी के पर्वत की भांति गोर है। वे अपने मस्तक पर मनोहर चंद्रमा का मुकुट धारण करते हैं। रत्नों के आभूषण धारण करने से उनका श्री अंग और भी उद्घासित हो उठा है। उनके चार हाथों में क्रम से परशु, मृर्गमुद्रा, वर एवं अभय मुद्रा सुशोभित हैं। वे सदा प्रसन्न रहते हैं। कमल के आसन पर बैठे हैं और देवता लोग चारों और खड़े हो कर के उनकी स्तुति कर रहे हैं। उन्होंने वस्त्र की जगह है व्याघ्र चर्म धारण कर रखा है। वे इस विश्व के आदि हैं, बीज कारण रूप है। तथा सब का समस्त भय हर लेने वाले हैं। उनके पांच मुख्य और प्रत्येक मुख मंडल में तीन तीन नेत्र हैं।
इस प्रकार ध्यान तथा उत्तम पार्थिव लिंग का पूजन करके गुरु के दिए हुए पंचाक्षर मंत्र का विधि पूर्वक जप करें। विप्रवरो विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह देवेश्वर शिव को प्रणाम करके नाना प्रकार की स्त्तुतियों द्वारा उनका स्तवन करें तथा शतरुद्री (यजुर्वेद 16 अध्याय के मंत्रों का) पाठ करें। तत्पश्चात अंजली में अक्षत और फूल लेकर उत्तम भक्ति भाव से निम्नांकित मंत्रों को पढ़ते हुए प्रेम और प्रसन्नता के साथ भगवान शंकर से इस प्रकार प्रार्थना करें-
सब को सुख देने वाले कृपा निधान भूतनाथ शिव! मैं आपका हूं। आपके गुणों में ही मेरे प्राण बसते हैं। अथवा आप के गुण ही मेरे प्राण मेरे जीवन सर्वस्व हैं। मेरा चित सदा आपके ही चिंतन में लगा रहे। यह जानकर मुझ पर प्रसन्न होइए। कृपा कीजिए शंकर। मैंने अंजान में अथवा जानबूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपा से वह सफल हो जाए। गौरीनाथ! मैं आधुनिक युग का महान पापी हूँ,पतित हूं और आप सदा से ही परम महान पतित पावन है। इस बात का विचार करके आप जैसा चाहे वैसा करें। महादेव! सदाशिव। वेदों, पुराणों और नाना प्रकार के शास्त्रीय सिद्धांतों और विभिन्न महर्षियों ने भी अब तक आप को पूर्ण रूप से नहीं जाना है। फिर मैं कैसे जान सकता हूं? महेश्वर मैं जैसा हूं वैसा ही, उसी रूप में संपूर्ण भाव से आपका हूं, आप के आश्रित हूं, इसलिए आप से रक्षा पाने के योग्य हो। परमेश्वर आप मुझ पर प्रसन्न हुई है।
मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके हाथ में लिए हुए अक्षत और पुष्प को भगवान शिव के ऊपर चढ़ाकर उन्हें शंभू देव को भक्ति भाव से विधि पूर्वक साष्टांग प्रणाम करें। तदुपरांत शुद्ध बुद्धि वाला उपासक शास्त्रोक्त विधि से इष्ट देव की परिक्रमा करें। फिर श्रद्धा पूर्वक स्तुतियों द्वारा देवेश्वर शिव की स्तुति करें। इसके बाद गला बजाकर (गले से अव्यक्त शब्द का उच्चारण करके) पवित्र एवं विनीत चित वाला साधक भगवान को प्रणाम करें। फिर आदर पूर्वक विज्ञप्ति करें और उसके बाद विसर्जन। मुनिवरोंं इस प्रकार विधि पूर्वक पार्थिव पूजा बताई गई है. वह भोग और मोक्ष देने वाली तथा भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव को बढ़ाने वाली है।
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अध्याय 21-22 : पार्थिवपूजा की महिमा, शिवनैवेद्यभक्षण के विषयमें निर्णय तथा बिल्व का महत्व
सूतजी बोले – महर्षियों ! पार्थिवलिंगों की पूजा कोटि-कोटि यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में लोगों के लिए शिवलिंग-पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखायी देता हैं वैसा दूसरा कोई साधन नहीं हैं – यह समस्त शास्त्रों का निश्चित सिद्धांत है। शिवलिंग भोग और मोक्ष देनेवाला है। लिंग तीन प्रकार के कहे गये हैं – उत्तम, मध्यम और अधम। जो चार अंगुल ऊँचा और देखने में सुंदर हो तथा वेदी से युक्त हो, उस शिवलिंग को शास्त्रज्ञ महर्षियों ने ‘उत्तम’ कहा है। उससे आधा ‘मध्यम’ और उससे आधा ‘अधम’ माना गया है। इस तरह तीन प्रकार के शिवलिंग कहे गये हैं, जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र अथवा विलोम संकर – कोई भी क्यों न हो, वह अपने अधिकार के अनुसार वैदिक अथवा तांत्रिक मन्त्र से सदा आदरपूर्वक शिवलिंग की पूजा करे। ब्राह्मणों ! महर्षियों ! अधिक कहने से क्या लाभ ? शिवलिंग का पूजन करने में स्त्रियों का तथा अन्य सब लोगों का भी अधिकार है। द्विजों के लिये वैदिक पद्धति से ही शिवलिंग की पूजा करना श्रेष्ठ है; परन्तु अन्य लोगों के लिये वैदिक मार्ग से पूजा करने की सम्मति नहीं है। वेदज्ञ द्विजों को वैदिक मार्ग से ही पूजन करना चाहिये, अन्य मार्ग से नहीं – यह भगवान् शिवका कथन है। दधीचि और गौतम आदि के शापसे जिनका चित्त दग्ध हो गया है, उन द्विजों की वैदिक कर्म में श्रद्धा नहीं होती। जो मनुष्य वेदों तथा स्मृतियों में कहे हुए सत्कर्मों की अवहेलना करके दूसरे कर्म को करने लगता है, उसका मनोरथ कभी सफल नहीं होता।
इस प्रकार विधि पूर्वक भगवान शंकर का नैवेद्यान्त पूजन करके उनकी त्रिभुवनमयी आठ मूर्तियों का भी वही पूजन करे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा तथा यजमान – ये भगवान् शंकर की आठ मूर्तियाँ कही गयी हैं। इन मूर्तियों के साथ-साथ शर्व, भव, रूद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव तथा पशुपति – इन नामों की भी अर्चना करे। तदनंतर चन्दन, अक्षत और बिल्बपत्र लेकर वहाँ ईशान आदि के क्रम से भगवान् शिव के परिवार का उत्तम भक्तिभाव से पूजन करे। ईशान, नंदी, चंड,महाकाल, भृंगी, वृष, स्कन्द, कपर्दीश्वर, सोम तथा शुक्र – ये दस शिवके परिवार हैं, जो क्रमश: ईशान आदि दसों दिशाओं में पूजनीय हैं। तत्पश्चात भगवान् शिव के समक्ष वीरभद्र का और पीछे कीर्तिमुख का पूजन करके विधिपूर्वक ग्यारह रुदों की पूजा करे। इसके बाद पंचाक्षर मन्त्र का जप करके शतरुद्रिय स्तोत्र का, नाना प्रकार की स्तुतियों का तथा शिवपंचांग का पाठ करे। तत्पश्चात परिक्रमा और नमस्कार करके शिवलिंग का विसर्जन करे। इस प्रकार मैंने शिवपूजन की सम्पूर्ण विधिका आदरपूर्वक वर्णन किया।
रात्रि में देवकार्य को सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना चाहिये। जहाँ शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा का आश्रय लेकर नहीं बैठना या खड़ा होना चाहिये; क्योंकि वह दिशा भगवान् शिव के आगे या सामने पडती है। (इष्टदेव का सामना रोकना ठीक नहीं )। शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे; क्योंकि उधर भगवान् शंकर का वामांग हैं, जिसमें शक्तिस्वरूपा देवी उमा विराजमान हैं। पूजक को शिवलिंग से पश्चिम दिशामें भी नहीं बैठना चाहिये; क्योंकि वह आराध्यदेव का पृष्ठभाग हैं (पीछे की ओरसे पूजा करना उचित नहीं हैं )। अत: अवशिष्ट दक्षिण दिशा ही ग्राह्य है। उसी का आश्रय लेना चाहिये। तात्पर्य यह कि शिवलिंग से दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूजा करे। विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह भस्म का त्रिपुंड लगाकर, रुद्राक्ष की माला लेकर तथा बिल्वपत्र का संग्रह करके ही भगवान् शंकर की पूजा करे, इनके बिना नहीं। मुनिवरो ! शिवपूजन आरम्भ करते समय यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से भी ललाट में त्रिपुंड अवश्य कर लेना चाहिये।
ऋषि बोले – मुने ! हमने पहले से यह बात सुन रखी है कि भगवान् शिव का नैवेद्य नहीं ग्रहण करना चाहिये। इस विषय में शास्त्र का निर्णय क्या है, यह बताइये। साथ ही बिल्व का माहात्म्य भी प्रकट कीजिये।
सूतजी ने कहा – मुनियों ! आप शिव सम्बन्धी व्रत का पालन करनेवाले हैं। अत: आप सबको शतश: धन्यवाद है। मैं प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ बताता हैं, आप सावधान होकर सुने। जो भगवान शिव का भक्त हैं, बाहर-भीतरसे पवित्र और शुद्ध हैं, उत्तम व्रत का पालन करने वाला तथा दृढ़ निश्चय से युक्त हैं, वह शिव-नैवेद्य का अवश्य भक्षण करे। भगवान् शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, इस भावनाको मनसे निकाल दे। शिव के नैवेद्य को देख लेनेमात्र से भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं, उसको खा लेने पर तो करोड़ो पुण्य अपने भीतर आ जाते हैं। आये हुए शिव-नैवेद्य को सिर झुकाकर प्रसन्नता के साथ ग्रहण करेंं। आये हुए शिव-नैवेद्य को जो यह कहकर कि मैं इसे दूसरे समय में ग्रहण करूँगा, लेने में विलम्ब कर देता है, वह मनुष्य निश्चय ही पाप से बाँध जाता है। जिसने शिव की दीक्षा ली हो, उस शिवभक्त के लिये यह शिव-नैवेद्य अवश्य भक्षणीय हैं – ऐसा कहा जाता है। शिव की दिक्षा से युक्त शिवभक्त पुरुष के लिये सभी शिवलिगोंका नैवेद्य शुभ एवं ‘महाप्रसाद’ हैं; अत: वह उसका अवश्य भक्षण करे। परन्तु जो अन्य देवताओं की दीक्षा से युक्त हैं और शिवभक्ति में भी मन को लगाये हुए हैं, उनके लिए शिव-नैवेद्य-भक्षण के विषय में क्या निर्णय है – इसे आप लोग प्रेमपूर्वक सुने। ब्राह्मणों ! जहाँ से शालग्रामशिला की उत्पत्ति होती हैं, वहाँ के उत्पन्न लिंग में रस-लिंग (पारदलिंग) में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिंग में, देवताओं तथा सिद्धोद्वारा प्रतिष्ठित लिंग में ,केसर-निर्मित लिंगमें, स्फटिकलिंग में, रत्ननिर्मित लिंग में तथा समस्त ज्योतिर्लिंग में विराजमान भगवान शिव के नैवेद्य का भक्षण चान्द्रायण व्रत के समान पुण्यजनक है। ब्रह्महत्या करने वाला पुरुष भी यदि पवित्र होकर शिव-निर्माल्य का भक्षण करके उसे (सिरपर) धारण करे तो उसका सारा पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। पर जहाँ चंड का अधिकार हैं, वहाँ जो शिव-निर्माल्य हो, उसे साधारण मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये। जहाँ चंड का अधिकार नहीं हैं, वहाँ के शिव-निर्माल्य का सभी को भक्तिपूर्वक भोजन करना चाहिये। बाणलिंग (नर्मदेश्वर), लोह-निर्मित (स्वर्णादि धातुमय) लिंग, सिद्धलिंग ( जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है अथवा जो सिद्धों द्वारा स्थापित हैं वे लिंग ), स्वयंभूलिंग – इन सब लिंगों में तथा शिव की प्रतिमाऔ ( मूर्तियों) में चंड का अधिकार नहीं है। जो मनुष्य शिवलिंग को विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्नान के जलका तीन बार आचमन करता हैं, उसके कायिक, वाचिक और मानसिक – तीनों प्रकार के पाप यहाँ शीघ्र नष्ट हो जाते है। जो शिव-नैवेद्य, पत्र, पुष्प, फल और जल अग्राह्य है, वह सब भी शालग्रामशिला के स्पर्श से पवित्र – ग्रहण के योग्य हो जाता है। मुनीश्वरो ! शिवलिंग के ऊपर चढ़ा हुआ जो द्रव्य हैं, वह अग्राह्य हैं। जो वस्तु लिंगस्पर्श से रहित है अर्थात जिस वस्तुको अलग रखकर शिवजी को निवेदित किया जाता है – लिंग के ऊपर चढाया नहीं जाता, उसे अत्यंत पवित्र जानना चाहिये। मुनिवरो ! इसप्रकार नैवेद्य के विषय में शास्त्र का निर्णय बताया गया।
बिल्ब पत्र का महत्व
अब तुम लोग बिल्ब का माहात्म्य सुनो। यह बिल्व-वृक्ष महादेव का ही रूप है। देवताओं ने भी इसकी स्तुति की है। फिर जिस किसी तरह से इसकी महिमा कैसे जानी जा सकती है। तीनों लोकों मे जितने पुण्य-तीर्थ प्रसिद्ध हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थ बिल्व के मूलभाग में निवास करते हैं। जो पुण्यात्मा मनुष्य बिल्व के मूल में लिंगस्वरुप अविनाशी महादेवजी का पूजन करता है, वह निश्चय ही शिवपद को प्राप्त होता है। जो बिल्व की जड के पास जल से अपने मस्तक को सींचता हैं, वह सम्पूर्ण तीर्थों का स्नान का फल पा लेता है और वही इस भूतल पर पावन माना जाता है। इस बिल्व की जड के परम उत्तम थाले को जलसे भरा हुआ देखकर महादेवजी पूर्णतया संतुष्ट होते हैं। जो मनुष्य गंध, पुष्प आदिसे बिल्व के मूलभाग का पूजन करता हैं, वह शिवलोक को पाता है और इस लोक में भी उसकी सुख-सन्तति बढती है। जो बिल्व की जड के समीप आदरपूर्वक दीपावली जलाकर रखता है, वह तत्त्वज्ञान से सम्पन्न हो भगवान् महेश्वर में मिल जाता है। जो बिल्व की शाखा थामकर हाथ से उसके नये-नये पल्लव उतारता और उनसे उस बिल्व की पूजा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो बिल्व की जड के समीप भगवान् शिव में अनुराग रखने वाले एक भक्त को भी भक्तिपूर्वक भोजन कराता है, उसे कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है। जो बिल्व की जड के पास शिवभक्त को खीर और घृत से युक्त अन्न देता हैं, वह कभी दरिद्र नहीं होता। बाह्मणों ! इस प्रकार मैंने सान्गोंपांग शिवलिंग पूजन का वर्णन किया। यह प्रवृत्तिमार्गी तथा निवृत्त्तिमार्गी पूजकों के भेद से दो प्रकार का होता है। प्रवृत्तिमार्गी लोगों के लिये पीठ पूजा इस भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली होती है। प्रवृत्त पुरुष सुपात्र गुरु आदि के द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे और अभिषेक के अंत में अगहनी के चावल से बना हुआ नैवेद्य निवेदन करे। पूजा के अंत में शिवलिंग को शुद्ध सम्पुट में विराजमान करके घर के भीतर कहीं अलग रख दे। निवृत्ति मार्गी की उपासको के लिए हाथ पर ही शिव पूजन का विधान है। उन्हें भिक्षा आदि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्य रूप में निवेदित कर देना चाहिए। निवृत्त पुरुषों के लिए सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ट बताया जाता है। वे विभूति से पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्य रूप से निवेदित भी करें। पूजा करके इस लिंक को सदा अपने मस्तक पर धारण करें।
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अध्याय 23-24 : शिव नाम जप तथा भस्म धारण की महिमा, त्रिपुंड के देवता और स्थान आदि का प्रतिपादन
ऋषि बोले- महाभाग्य सूत जी, आपको नमस्कार है। अब आप उस परम उत्तम भस्म महात्म का ही वर्णन कीजिए। रुद्राक्ष महात्म तथा उत्तम नाम महात्म्य इन तीनों का परम प्रसन्नता पूर्वक प्रतिपादन कीजिए और हमारे ह्रदय को आनंद दीजिए। सूत जी ने कहा- महर्षियों आपने बहुत उत्तम बात पूछी है। यह समस्त लोगों के लिए हित कारक विषय है। जो लोग भगवान शिव की उपासना करते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, उनका देहधारण सफल है, तथा उनके समस्त कुल का उद्धार हो गया। जिनके मुख में भगवान शिव का नाम है, जो अपने मुंह से सदा शिव और शिव इत्यादि नामों का उच्चारण करते रहते हैं, पाप उनका उसी तरह स्पष्ट नहीं करते, जैसे खजूर वृक्ष के अंगार को छूने का साहस कोई भी प्राणी नहीं कर सकते। हे श्री शिव! आपको नमस्कार है। (श्री शिवाय नमस्तुभ्यं) ऐसी बात जब मुंह से निकलती है तब वह मुख्य समस्त पापों का विनाश करने वाला पावन तीर्थ बन जाता है। जो मनुष्य प्रसन्नता पूर्वक उसका दर्शन करता है, उसे निश्चय ही तीर्थ से जनित फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणों शिव का नाम, (विभूति) भस्म तथा रूद्राक्ष यह तीनों त्रिवेणी के समान माने गए हैं। भगवान शिव का नाम गंगा है, विभूति यमुना मानी गई है तथा रुद्राक्ष को सरस्वती कहा गया है। इन तीनों की संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करने वाली है। श्रेष्ठ ब्राह्मणओं! इन तीनों की महिमा को समझना विलक्षण भगवान महेश्वर के बिना दूसरा कौन भली भांति जानता है। इस ब्रम्हांड में जो कुछ है वह सब तो केवल महेश्वर ही जानते हैं। मैं अपनी श्रद्धा भक्ति के अनुसार संक्षेप से भगवान नामों की महिमा का वर्णन करता हूं। तुम सब लोग प्रेम पूर्वक सुनो। यह नाम महत्त्व समस्त पापों को हर लेने वाला सर्वोत्तम साधन है। सिर्फ नाम रूपी दावानल से महान पाठक रूपी पर्वत अनायास ही बस में हो जाता है यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है।
शौनक! पाप मुलक जो नाना प्रकार के धोखे हैं, वह एकमात्र शिव नाम, भगवान नाम से ही नष्ट होने वाले हैं। दूसरे साधनों से संपूर्ण यत्न करने पर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होते हैं। जो मनुष्य इस भूतल पर सदा भगवान शिव के नामों के जप में ही लगा हुआ है वह वेदों का ज्ञाता है वह पुण्य आत्मा है। वह धन्यवाद का पात्र है तथा वह विद्वान माना जा गया है। उन्हें जिस का शिव नाम जप में विश्वास है उनके द्वारा आश्रित नाना प्रकार के धर्म तत्काल फल देने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। महर्षियों! भगवान शिव के नाम से जितने पाप नष्ट होते हैं उतने पाप मनुष्य इस भूतल पर नहीं करते, नहीं कर सकते। जो शिव नाम रूपी नौका पर आरूढ़ हो संसार रूपी समुद्र को पार करते हैं उनके जन्म मरण रूप संसार के मूलभूत वे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। महामुने! संसार के मूलभूत पातकरूप पादप का शिव नाम रूपी कुठार से निश्चय ही नाश हो जाता है। जो पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिए। पापों के दावानल से दग्ध होने वाले लोगों को उस शिव नाम अमृत के बिना शांति नहीं मिल सकती।
जो शिव नाम रूपी सुधा की वृष्टिजनित धारा में गोते लगा रहे हैं वे संसार दावानल के बीच में खड़े होने पर भी कदापि शोक के भागी नहीं होते। जिन महात्माओं के मन में शिव नाम के प्रति बड़ी भारी भक्ति है ऐसे लोगों की सहसा और सर्वथा मुक्ति होती है। मुनीश्वरो! जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है उसी की शिव नाम के प्रति भक्ति होती है जो समस्त पापों का नाश करने वाली है।
जिसके मन में भगवान शिव के नाम के प्रति कभी खंडित न होने वाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसी के लिए मोक्ष सुलभ है- यह मेरा मत है। जो अनेक पाप करके भी भगवान शिव के नाम जप में आदर पूर्वक लग गया है वह समस्त पापों से मुक्त हो ही जाता है इसमें संशय नहीं है। जैसे वन में दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं उसी प्रकार शिव नाम रूपी दावानल से दग्ध धोकर उस समय तक के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। शोनाक! जिसके अंग नित्य भस्म लगाने से पवित्र हो गए हैं तथा जो शिव नाम का आदर करने लगा है वह इस संसार सागर को भी पार कर ही लेता है। संपूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियों ने यही निश्चित किया है कि भगवान शिव के नाम का जप संसार सागर को पार करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है। मुनिवरो! अधिक कहने से क्या लाभ है। मैं शिव नाम के सर्वपापापहारी महात्म्य का एक ही श्लोक में वर्णन करता हूं। भगवान शंकर के एक नाम में भी पाप हरण की जितनी शक्ति है उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता। मुने! पूर्व काल में महा पापी राजा इंद्रद्युम्न ने शिव नाम के प्रभाव से ही उत्तम सद्गति प्राप्त की थी। इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी शिव नाम के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त हुई। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने तुम से भगवान नाम के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया है। अब तुम भस्म का महात्म्य सुनो जो समस्त पावन वस्तुओं को भी पावन करने वाला है।
महर्षिओं! भस्म संपूर्ण मंगलों को देने वाला तथा उत्तम है; उस के दो भेद बताए गए हैं। इन भेदों का वर्णन करता हूं सावधान होकर सुनो। एक को महा भस्म जानना चाहिए और दूसरे को स्वल्पभस्म। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है स्रोत, स्मार्थ और लौकिक। स्वल्पभस्म के भी बहुत से भेदों का वर्णन किया गया है। स्रोत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य सब लोगों के भी उपयोग में आ सकता है। श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मंत्र के उच्चारण पूर्वक भस्म धारण करना चाहिए। दूसरे लोगों के लिए बिना मंत्र के ही केवल धारण करने का विधान है। जले हुए गोबर से प्रकट होने वाला भस्म आगनेय कहलाता है। महामुने! वह भी त्रिपुंड का द्रव्य है ऐसा कहा गया है। अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिए। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र के काम में आ सकता है। जबालोपनिषद में आए हुए अग्नि इत्यादि 7 मंत्रों द्वारा जल मिश्रित भस्म से धुलन (विभिन्न अंगों में मर्धन या लेपन) करना चाहिए। महर्षि जाबालि ने सभी वर्ण और आश्रमों के लिए मंत्र से या बिना मंत्र के भी आदर पूर्वक भस्म त्रिपुंड लगाने की आवश्यकता बताई है। समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुंड लगाना इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष प्रमाद से भी न छोड़े, ऐसा श्रुति का आदेश है। भगवान शिव और विष्णु ने भी तिर्यक त्रिपुंड्र धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, वर्ण संकर तथा जाति भ्रष्ट पुरुषों ने भी उधधुलन एवं त्रिपुंड्र के रूप में भस्म धारण किया है।
इसके पश्चात भस्म धारण तथा त्रिपुंड की महिमा विधि बता कर सूत जी ने फिर कहा- महर्षिओं! इस प्रकार मैंने संक्षेप से त्रिपुंड का महत्व बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिए गोपनीय रहस्य है। अतः तुम्हें भी इसे गुप्त ही रखना चाहिए मुने! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएं बनाई जाती हैं उन्हीं को विद्वानों ने त्रिपुंड कहा है। भौहों के मध्य भाग से लेकर जहां तक भौहों का अंत है उतना बड़ा त्रिपुंद्र ललाट में धारण करना चाहिए। मध्यमा और अनामिका उंगली से दो रेखाएं कर के बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है। अथवा बीच की तीन अंगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभाव से ललाट मे त्रिपुण्ड्र धारण करें।
त्रिपुण्ड्र अत्यंत उत्तम और भोग और मोक्ष को देने वाला है।त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के 9-9 देवता है, जो सभी अंगों में स्थित हैं; मैं उनका परिचय देता हूं। सावधान होकर सुनो. मुनू. प्रणव का प्रथम अक्षर अकार गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रिया शक्ति, प्रातः सवन तथा महादेव ये त्रिपुंड की प्रथम रेखा के 9 देवता हैं, यह बात शिव दीक्षा परायण पुरुषों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। प्रणव का दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्व गुण, यजुर्वेद, मध्यमदिनसवन, इच्छा शक्ति, अंतरात्मा तथा महेश्वर यह दूसरी रेखा के 9 देवता हैं। प्रणव का तीसरा अक्षर मकार आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञान शक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव यह तीसरी रेखा के 9 देवता हैं। इस प्रकार स्थान देवताओं को उत्तम भक्ति भाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुंड धारण करे तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। मुनीश्वरों! ये संपूर्ण अंगों में स्थान देवता बताए गए हैं। अब उनके संबंधी स्थान बताता हूं। भक्ति पूर्वक सुनो। 32,16,8 और पांच स्थानों में त्रिपुंड का न्यास करें। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथों, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पार्श्व भाग, नाभि, दोनों अंडकोष, दोनों ऊरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर यह 32 उत्तम स्थान हैं। इनमें क्रमस: अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, 10 दिक्प्रदेश, 10 दिक्पाल, 8 वसुओं का निवास है। धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभास ये आठ वसु कहे गए हैं। इन सब का नाम मात्र लेकर इनके स्थान में विद्वान पुरुष त्रिपुंड धारण करें।
अथवा एकाग्र चित्त हो 16 स्थान में ही त्रिपुंड धारण करें। मस्तक, ललाट, कंठ, दोनों कंधों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयों में, ह्रदय में, नाभि में, दोनों पसलियों में, तथा पृष्ठ भाग में त्रिपुंड लगाकर वहां दोनों अश्विनी कुमारों का शिव, शक्ति, रूद्र, ईश तथा नारद का और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करें। यह सब मिलकर 16 देवता है। अश्विनी कुमार दो कहे गए हैं। नासत्य और दस्त्र अथवा मस्तक, केस, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, ह्रदय, नाभि, दोनों ऊरु दोनों जानू, दोनों पैर,और पृष्ट भाग- इन सोलह, स्थानों में शोले त्रिपुंड का न्यास करें। मस्तक में शिव, केस में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में विघ्न राज गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों ऊरूओं में नाग और नागिन, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएँ, दोनों पैरों में समुद्र तथा विशाल पृष्ठ भाग में संपूर्ण तीर्थ देवता रूप से विराजमान हैं। इस प्रकार 16 स्थानों का परिचय दिया गया।
अब आठ स्थान बताए जाते हैं, गुहयस्थान, ललाट, परम उत्तम करण युगल, दोनों कंधे, ह्रदय और नाभी यह 8 स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तर्षी ये 8 देवता बताए गए हैं। मुनेश्वरों! भस्म के स्थान को जाने वाली विद्वानों ने 8 स्थानों का परिचय दिया है, अथवा मस्तक दोनों भुजाएं, ह्रदय और नाभि इन पांच स्थानों को भस्म वेता पुरुष ने भस्म धारण के योग्य बताया है।
यथासंभव देश काल आदि की अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमंत्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करें। यदि उद्धूलन में भी असमर्थ हो तो त्रिपुंड आदि लगाएं। त्रिनेत्र धारी, तीनों गुणों के आधार तथा तीनों देवताओं के जनक भगवान शिव का स्मरण करते हुए नमः शिवाय कहकर ललाट में त्रिपुंड लगाएं। ईश्याभ्याम नमः ऐसा कहकर दोनों पार्शव भागों में त्रिपुंड धारण करें। बीजाभ्याम नमः यह बोलकर दोनों कलाइयों में भस्म में लगाएं। पित्रभ्याम नमः कहकर नीचे के अंग में. उमेशाभ्याम नमः कहकर ऊपर के अंग में तथा भीमाए नमः कहकर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुंड लगाना चाहिए।
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अध्याय 25 : रुद्राक्ष धारण की महिमा तथा उसके विविध भेदों का वर्णन
सूजी कहते हैं- महाप्रज्ञ! महामते! शिव रूप सोनक! अब मैं संक्षेप से रुद्राक्ष का महात्म्य बता रहा हूं सुनो। रुद्राक्ष शिव को बहुत ही प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिए। रुद्राक्ष के दर्शन से, स्पर्श से तथा उस पर जप करने से यह समस्त पापों का अपहरण करने वाला माना गया है। मुने! पूर्व काल में परमात्मा शिव ने समस्त लोगों का उपहार करने के लिए देवी पार्वती के सामने रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन किया था।
भगवान शिव बोले -महेश्वरी! मैं तुम्हारे प्रेमवष भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन करता हूं सुनो। पूर्व काल की बात है, मैं मन को संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या में लगा रहा। एक दिन से सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा। परमेश्वरी! मैं संपूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतंत्र परमेश्वर हूं। अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोलें, खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटों से कुछ जल की बूंदे गिरी। आँसू की उन बून्दों से रुद्राक्ष पैदा हो गया। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए अश्रु बिंदु स्थावर भाव को प्राप्त हो गए। वे रुद्राक्ष मेंने विष्णु भक्त को तथा चारों वर्णों के लोगों को बांट दिए। भूतल पर अपने प्रिय रुद्राक्ष को मैंने गोड प्रदेश में उत्पन्न किया। मथुरा, अयोध्या, लंका, मलियागिरी, काशी तथा अन्य देशों में भी उनके अंकुर उगाए। वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पाप समूहों का भेदन करने वाले तथा श्रुतियों के भी प्रेरक हैं।
मेरी आज्ञा से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति भूतल पर प्रकट हुए। रुद्राक्ष की जाति के शुभ आज भी है। ब्राह्मण आदि जाति वाले रुद्राक्ष के वर्ण श्वेत रक्त तक जाने चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि विवरण के अनुसार अपनी जाति का ही रुद्राक्ष धारण करें। भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले चारों वर्णों के लोगों और विशेषतः शिव भक्तों को शिव पार्वती की प्रसन्नता के लिए रुद्राक्ष के फलों का अवश्य धारण करना चाहिए। आंवले के फल के बराबर रुद्राक्ष श्रेष्ठ बताया गया है। जो पेड़ के फल के बराबर हो उसे मध्यम श्रेणी का कहा गया है और जो चने के बराबर हो उसकी गणना निम्न कोटि में की गई है। अब इसकी उत्तमता को परखने की यह दूसरी उत्तम प्रक्रिया बताई जाती है। इसे बताने का उद्देश्य है भक्तों की हित कामना। पार्वती तुम भली-भांति प्रेम पूर्वक इस विषय को सुनो।
महेश्वरी! जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है वो इतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। जो रुद्राक्ष आंवले के फल के बराबर होता है वह समस्त अरिस्टों का विनाश करने वाला होता है तथा जो गुंजाफल के समान बहुत छोटा होता है वह संपूर्ण मनोरथ और फलों की सिद्धि करने वाला है। रुद्राक्ष जैसे जैसे छोटा होता है वैसे ही वैसे अधिक फल देने वाला होता है। एक एक बड़े रुद्राक्ष से एक एक छोटे रुद्राक्ष को विद्वानों ने 10 गुना अधिक फल देने वाला बताया है। पापों का नाश करने के लिए रुद्राक्ष धारण आवश्यक बताया गया है। वह निष्चय ही संपूर्ण मनोरथों का साधक है। अतः उसे अवश्य धारण करना चाहिए। परमेश्वरी! लोक में मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल देने वाला देखा जाता है वैसे ही फलदायी दूसरी कोई माला नहीं दिखाई देती। देवी! समान आकार प्रकार वाले, चिकने, मजबूत,स्थूल, कंटकयुक्त (उभरे हुए छोटे-छोटे दानों वाले) और सुंदर रुद्राक्ष अभिलषित पदार्थों के दाता तथा सदेव भोग और मोक्ष देने वाले हैं। जिसे कीडो ने दूषित कर दिया हो जो टूटा फूटा हो जिसमें उभरे हुए दाने न हो जो वर्णयुक्त हो तथा जो पूरा पूरा गोल न हो, इन पांच प्रकार के रुद्राक्ष को त्याग देना चाहिए। जिस रुद्राक्ष में अपने आप ही छेद हो गया हो वही यहां उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य के प्रयत्न से छेद किया गया हो वह मध्यम श्रेणी का होता है। रुद्राक्ष धारण बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाला है। इस जगत में ग्यारह सो रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जिस फल को पता है उसका वर्णन सैकड़ों वर्षो में भी नहीं किया जा सकता। शक्तिमान पुरुष साढे 500 रुद्राक्ष का सुंदर मुकुट बना ले और उसे सिर पर धारण करें. 360 रूद्राक्ष को लंबे सूत्र में पिरो कर एक हार बना ले। वैसे वैसे तीन हार बनाकर भक्ति पुराण पुरुष उनका यह गुप्त तैयार करें और उसे यथास्थान धारण किया रहे।
इसके बाद किस अंग में कितने रुद्राक्ष धारण करने चाहिए, यह बताकर सूत जी बोले- महर्षियों ! सिर पर ईशान मंत्र से, कान में तत्पुरुष मंत्र से तथा गले और ह्रदय में अघोर मंत्र से रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। विद्वान पुरुष दोनों हाथों मे अघोर बीजमंत्र से रुद्राक्ष धारण करें। उदर पर वामदेव मंत्र से 15 रूद्राक्ष द्वारा गूँथी हुई माला धारण करें अथवा अंगो सहित प्रणव का 5 बार जप करके रुद्राक्ष की तीन, पांच या 7 मालाएं धारण करें अथवा मूल मंत्र (नमः शिवाय) से ही समस्त रुद्राक्षों को धारण करें। रुद्राक्ष धारी पुरुष अपने खान-पान में मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा आदि को त्याग दें। गिरिराज नंदिनी उमें ! श्वेत रूद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को ही धारण करना चाहिए। गहरे लाल रंग का रुद्राक्ष क्षेत्रियों के लिए हितकर बताया गया है। वैश्यों के लिए प्रतिदिन बारंबार पीले रुद्राक्ष को धारण करना आवश्यक है और शूद्र को काले रंग का रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। यह वेदोक्त मार्ग है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और सन्यासी सबको नियम पूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है। इसे धारण करने का सौभाग्य बड़े पुण्य से प्राप्त होता है। उमे! पहले आंवले के बराबर और फिर उससे भी छोटे रुद्राक्ष धारण करें। जो रोगी हो, जिनमें दाने ना हों, जिन्हें कीडों ने खा लिया हो, जिनमें पिरोने योग्य छेद न हो ऐसे रूद्राक्ष मंगलाकांक्षी पुरुषों को नहीं धारण करने चाहिए। रुद्राक्ष मेरा मंगलमय लिंग विग्रह है। वह अंततोगत्वा चने के बराबर लघुतर होता है। सूक्ष्म रुद्राक्ष को ही सदा प्रशस्त माना गया है। सभी आश्रमों, समस्त वर्णो, स्त्रियों और शूद्र को भी भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। यतीयों के लिए प्रणव के उच्चारण पूर्वक रुद्राक्ष धारण का विधान है। जिसके ललाट में त्रिपुंड लगा हो और सभी अंग रुद्राक्ष से विभूषित हो तथा जो मृत्युंजय मंत्र का जप कर रहा है उसका दर्शन करने से साक्षात रुद्र के दर्शन का फल प्राप्त होता है।
पार्वती! रुद्राक्ष अनेक प्रकार के बताए गए हैं। उनके भेदों का वर्णन करता हूं। ये भेद भोग और मोक्ष रूप फल देने वाले हैं। तुम उत्तम भक्ति भाव से उनका परिचय सुनो। एक मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है। वह भोग और मोक्ष रूपी फल प्रदान करता है। जहां रुद्राक्ष की पूजा होती है वहां से लक्ष्मी दूर नहीं जाती। उस स्थान के सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा वहां रहने वाले लोगों की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण होती हैं। दो मुख वाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। वह संपूर्ण कामनाओं और फलों को देने वाला है। तीन मुख वाला रुद्राक्ष सदा साक्षात साधन का फल देने वाला है, उसके प्रभाव से सारी विद्याएं प्रतिष्ठित होती है। चार मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात ब्रह्मा का रूप है। वह दर्शन और स्पर्श से शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ को देने वाला है। पांच मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात कालरागनीरूद्र रूप है। वह सब कुछ करने में समर्थ है। सबको मुक्ति देने वाला तथा संपूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करने वाला है। पंचमुखी रुद्राक्ष समस्त पापों को दूर कर देता है। छः मुख वाला रुद्राक्ष कार्तिकेय का स्वरूप है। यदि दाहिनी बांह में उसे धारण किया जाए तो धारण करने वाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें संशय नहीं है।
महेश्वरी! 7 मुख वाला रुद्राक्ष आनंद स्वरूप और अनंग नाम से ही प्रसिद्ध है। उसको धारण करने से दरिद्र भी ऐश्वरयशाली हो जाता है। 8 मुख वाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरव रूप है, उसको धारण करने से मनुष्य पूर्ण आयु होता है और मृत्यु के पश्चात शूल धारी शंकर हो जाता है। 9 मुखी रुद्राक्ष को भैरव तथा कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है अथवा नो रूप धारण करने वाली महेश्वरी दुर्गा उस की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है। जो मनुष्य भक्ति प्रायण हो अपने बाएं हाथ में नव मुखी रुद्राक्ष को धारण करता है वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है इसमें संशय नहीं है। महेश्वरी! 10 मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात भगवान विष्णु का रूप है। 11 मुख वाला जो रुद्राक्ष है वह रूद्र रूप है। उसको धारण करने से मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है। 12 मुखी रुद्राक्ष को केस प्रदेश में धारण करें, उसके धारण करने से मानव मस्तक पर 12 आदित्य विराजमान हो जाते हैं। तेरह मुख वाला रुद्राक्ष विष्णु का स्वरूप है। उसको धारण करके मनुष्य संपूर्ण अभीष्ट को पाता तथा सौभाग्य और मंगल लाभ करता है। 14 मुखी रुद्राक्ष परम शिवरुप है उसे भक्ति पूर्वक मस्तक पर धारण करें इससे समस्त पापों का नाश हो जाता है।
गिरिराजकुमारी! इस प्रकार मुखों के भेद से रुद्राक्ष के 14 भेद बताए गए हैं। अब तुम क्रम से उन रूद्राक्षों के धारण करने के मंत्रों को प्रसन्नता पूर्वक सुनो।
1 ॐ ह्रीं नमः
2 ॐ नमः
3 ॐ क्लीं नमः
4 ॐ ह्रीं नमः
5 ॐ ह्रीं नमः
6 ॐ ह्रीं हुं नमः
7 ॐ हुं नमः
8 ॐ हुं नमः
9 ॐ ह्रीं हुं नमः
10 ॐ ह्रीं नमः
11 ॐ ह्रीं हुं नमः
12 ॐ क्राँ क्षाँ राँ नमः
13 ॐ ह्रीं नमः
14 ॐ नमः
इन 14 मंत्रों द्वारा क्रम से एक से लेकर 14 मुखी रुद्राक्ष को धारण करने का विधान है। साधु को चाहिए कि वह निद्रा और आलस्य का त्याग करके श्रद्धा भक्ति से संपन्न हो संपूर्ण की सिद्धि के लिए मंत्रों द्वारा रुद्राक्ष को धारण करें। रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले पुरुष को देखकर भूत, प्रेत, डाकिनी, शाकिनी है वह सब के सब दूर भाग जाते हैं जो करीब होते हैं वह सब रुद्राक्ष धारी को देखकर दूर खिसक जाते हैं। पार्वती रुद्राक्ष माला धारी पुरुष को देखकर शिव, भगवान विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य आदि देवता प्रसन्न हो जाते हैं। महेश्वरी इस प्रकार रुद्राक्ष की महिमा धर्म की वृद्धि के लिए भक्ति पूर्वक मंत्रों द्वारा विधिवत धारण करना चाहिए। भगवान शिव ने देवी पार्वती के सामने जो कुछ कहा था वह सब तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने कहा। मैंने तुम्हारे समक्ष इस विधि संहिता का वर्णन किया है। यह संहिता संपूर्ण सिद्धियों को देने वाली तथा भगवान शिव की आज्ञा से नित्य मोक्ष प्रदान करने वाली है।
विद्येश्वर संहिता संपूर्ण
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