अरण्यकाण्ड
अरण्यकाण्ड में शूर्पणखा वध से सीता हरण प्रकरण तक के घटनाक्रम आते हैं।
तृतीय सोपान-मंगलाचरण
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं
वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥1॥
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥2॥
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥
जयंत की कुटिलता और फल प्राप्ति
* एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥2॥
भावार्थ : एक बार सुंदर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए॥2॥
* सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥3॥
भावार्थ : देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। जैसे महान मंदबुद्धि चींटी समुद्र का थाह पाना चाहती हो॥3॥
*सीता चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना॥4॥
भावार्थ : वह मूढ़, मंदबुद्धि कारण से (भगवान के बल की परीक्षा करने के लिए) बना हुआ कौआ सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब श्री रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर सींक (सरकंडे) का बाण संधान किया॥4॥
दोहा :
* अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥1॥
भावार्थ : श्री रघुनाथजी, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणों के घर मूर्ख जयन्त ने आकर छल किया॥1॥
चौपाई:
*प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥
भावार्थ : मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर श्री रामजी का विरोधी जानकर इन्द्र ने उसको नहीं रखा॥1॥
*भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥2॥
भावार्थ : तब वह निराश हो गया, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्वासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में थका हुआ और भय-शोक से व्याकुल होकर भागता फिरा॥2॥
*काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥3॥
भावार्थ : (पर रखना तो दूर रहा) किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। श्री रामजी के द्रोही को कौन रख सकता है? (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) है गरुड़ ! सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है॥3॥
*मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥4॥
भावार्थ : मित्र सैकड़ों शत्रुओं की सी करनी करने लगता है। देवनदी गंगाजी उसके लिए वैतरणी (यमपुरी की नदी) हो जाती है। हे भाई! सुनिए, जो श्री रघुनाथजी के विमुख होता है, समस्त जगत उनके लिए अग्नि से भी अधिक गरम (जलाने वाला) हो जाता है॥4॥
*नारद देखा बिकल जयंता। लगि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥5॥
भावार्थ : नारदजी ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गई, क्योंकि संतों का चित्त बड़ा कोमल होता है। उन्होंने उसे (समझाकर) तुरंत श्री रामजी के पास भेज दिया। उसने (जाकर) पुकारकर कहा- हे शरणागत के हितकारी! मेरी रक्षा कीजिए॥5॥
*आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहीं पाई॥6॥
भावार्थ : आतुर और भयभीत जयन्त ने जाकर श्री रामजी के चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य) को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था॥6॥
*निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥7॥
भावार्थ : अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण तक कर आया हूँ। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! कृपालु श्री रघुनाथजी ने उसकी अत्यंत आर्त्त (दुःख भरी) वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड़ दिया॥7॥
सोरठा :
*कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥
भावार्थ : उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया। श्री रामजी के समान कृपालु और कौन होगा?॥2॥
चौपाई :
*रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥
भावार्थ : अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं, इससे (यहाँ) बड़ी भीड़ हो जाएगी॥1॥
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अत्रि मिलन एवं स्तुति
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥
करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥4॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥7॥
निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं॥8॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥4॥
श्री सीता-अनसूया मिलन और श्री सीताजी को अनसूयाजी का पतिव्रत धर्म कहना
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥2॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥6॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥7॥
पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥8॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥9॥
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥5 क॥
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥2॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥3॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥4॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥6 क॥
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥6 ख॥
श्री रामजी का आगे प्रस्थान, विराध वध और शरभंग प्रसंग
आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर निपाता॥3॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥4॥
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग॥7॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥3॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा॥4॥
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥8॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा॥2॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥4॥
राक्षस वध की प्रतिज्ञा करना, सुतीक्ष्णजी का प्रेम, अगस्त्य मिलन, अगस्त्य संवाद
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥2॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥3॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥4॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥5॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥6॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥8॥
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥9॥
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥10॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥11॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा॥12॥
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥10॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥4॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं॥6॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥8॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥
मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥11॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसे द्वौ भाई॥2॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ॥3॥
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥4॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥5॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा॥6॥
सरद इंदु तन चितवन मानहुँ निकर चकोर॥12॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया॥3॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥4॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।6॥
संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥7॥
राम का दंडकवन प्रवेश, जटायु मिलन, पंचवटी निवास और श्री राम-लक्ष्मण संवाद
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई॥9॥
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥14॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥
(जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। देखिए गीता अध्याय 13/ 7 से 11)
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥2॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥5॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥16॥
एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥
शूर्पणखा की कथा, शूर्पणखा का खरदूषण के पास जाना और खरदूषणादि का वध
पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥2॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी॥3॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥4॥
तातें अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥5॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥6॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥7॥
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥8॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई॥9॥
सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई॥10॥
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥17॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥2॥
सूपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥3॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥4॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा॥5॥
बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा॥7॥
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज॥18॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥1॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई॥2॥
देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई॥3॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसुकाई॥4॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥5॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥6॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥7॥
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा॥
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति॥19 क॥
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर॥19 ख॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥2॥
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥3॥
छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥4॥
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥5॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड॥6॥
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयंकर गिरा॥1॥
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥2॥
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥3॥
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपु दल लरि मर्यो॥4॥
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥20 क॥
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥20 ख॥
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥
शूर्पणखा का रावण के निकट जाना, श्री सीताजी का अग्नि प्रवेश और माया सीता
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥21 क॥
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ॥21 ख॥
कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥4॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥22॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥4॥
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥23॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥
मारीच प्रसंग और स्वर्णमृग रूप में मारीच का मारा जाना, सीताजी द्वारा लक्ष्मण को भेजना
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥24॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥2॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥3॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥4॥
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥25॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥2॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥3॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥26॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥2॥
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥3॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥6॥
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥7॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥8॥
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ॥27॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥2॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥
श्री सीताहरण और श्री सीता विलाप
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
* (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे ‘भड़िहाई’ कहते हैं।
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
जटायु-रावण-युद्ध, अशोक वाटिका में सीताजी को रखना
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना॥6॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा॥7॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥29 क॥
श्री रामजी का विलाप, जटायु का प्रसंग, कबन्ध उद्धार
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥29 ख॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥3॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥4॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥5॥
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥2॥
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥3॥
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता॥3॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥4॥
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥1॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश और पम्पासर की ओर प्रस्थान
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥5॥
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा॥1॥
नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा॥2॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए॥3॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥4॥
देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥5॥
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥37 क॥
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥37 ख॥
कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥1॥
कहुँ कहुँ सुंदर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥2॥
मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी॥3॥
रथ गिरि सिला दुंदुभीं झरना। चातक बंदी गुन गन बरना॥4॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥5॥
ऐहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी॥6॥
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥38 क॥
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥38 ख॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई॥1॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥2॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा॥3॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥4॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥5॥
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥39 क॥
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं॥39 ख॥
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥1॥
सुंदर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई॥2॥
चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥3॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥4॥
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ॥40॥
देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥
नारद-राम संवाद
मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥5॥
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥41॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥
अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥42 क॥
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ॥42 ख॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥2॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥4॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥5॥
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥43॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1
दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥3॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥4॥
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥44॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥
संतों के लक्षण और सत्संग भजन के लिए प्रेरणा
पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥2॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥46 क॥
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥46 ख॥
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