धर्म दर्शन

सहारनपुर: भगवान शंकर ने यहां दिए थे पांडवपुत्र सहदेव को दर्शन

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सहानपुर जनपद के सरसावा कस्बे के नकुड़ रोड स्थित श्री बनखंडी महादेव  मंदिर अपने आप में कई ऐतिहासिक घटनाएं समेटे हुए हैं। पांडव पुत्र सहदेव ने यहां भगवान शंकर की अराधना की थी। सहदेव की    तपस्या से प्रसन्न शिव शंकर ने सहदेव को जनमानस की मनोकामना पूर्ण करने का आशीर्वाद    भी इसी स्थान पर दिया था। तभी से यह मंदिर हजारों श्रद्धालुओं की प्रगाढ आस्था का केंद्र   बना हुआ है। मंदिर के प्रति श्रद्धालुओं के विश्वास का उदाहरण यह है कि यहां पहुंच एक बार शिवलिंग पर जलाभिषेक करने मात्र से न केवल श्रद्धालुओं की कामना पूर्ण होती है, बल्कि पुत्रविहिन लोगों को पुत्र की प्राप्ति भी होती है।

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नकुड़ मार्ग पर पश्चिमी छोर पर स्थिति बनी में महाभारत युद्ध से पहले अर्जुन अपने भाईयों तथा माता कुंती के साथ यहां पहुंचे थे। पांडव पुत्र लाक्षाग्रह से बचकर सिरस वन में ब्राह्मण के वेश में काफी समय तक रहे। पांडव पुत्र सहदेव ने सिरस वन में भगवान शंकर की घोर तपस्या की। सहदेव की अराधना से प्रसन्न भगवान शिव दर्शन दिये और वर मांगने के लिए कहा। तब सहदेव ने शिव से पिण्डी के रूप में तपस्या स्थल पर स्थापित होकर जन मानस की मनोकामना पूर्ण करने का वर मांगा। तभी से भगवान शंकर यहां पर पिंडी के रुप में स्थापित हैं। पांडव पुत्रों ने शिव की पिंडी की पूजा की पूजा अर्चना प्रारंभ की।

पांडव पुत्रों के जाने के पश्चात मंदिर में कोई पूजारी व आस-पास कोई बस्ती न होने के कारण मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया। काफी वर्षों के बाद एक नगर बसा जिसका नाम सिरसापट्न हुआ। सिरसापट्न नगर के राजा ने मंदिर की मरम्मत कराई। कुछ वर्षों बाद एक दुष्ट राजा का राज आया। जिसके नीच कर्मों को देखकर प्रभू ने उस नगर को ध्वस्त कर दिया जो कि वर्तमान में कोट के नाम से प्रसिद्ध है। काफी अर्से बाद मेरठ से रानी रत्नाबाई अपने सिपाहियों व अपने गुरु के साथ सिरस वन में आकर रूकी और मंदिर का जीर्णोद्वार और एक कुए का निर्माण कराया।

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औरंगजेब के डर के कारण बंद कर दिया मंदिर जाना
मंदिर के पुजारी अनिल कौशिक बताते हैं कि रानी ने अपने और फौज के लिए आवासों का निर्माण भी यहां पर कराया था। रानी अपनी मृत्यु तक सिरस वन में ही रही। मुगलों के शासन काल में औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार कर हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया जाने लगा। डर के कारण हिन्दुओं ने मंदिर में जाना बंद कर दिया, जिस कारण मंदिर लुप्त हो गया। मगर शिवलिंग वहीं पर रहा।

अंग्रेजी शासन काल में गडरिये को दिखा शिवलिंग
मुगलों के बाद अंग्रेजों का शासन आया। तब कोई गडरिया अपनी बकरियां चराते हुए उस जगह पहुंच गया। उसने देखा कि एक चबूतरा है जिस पर शिवलिंग विराजमान हैं। उस गडरिये ने मंदिर की साफ सफाई कर पूजा करानी शुरु कर दी। एक बार आला वख्श उर्फ बाबू गद्दी ने शिवलिंग उखाड़कर कुंए में डाल दिया। इसके बाद उसने आकर देखा तो शिवलिंग अपनी जगह पर ही विराजमान मिला। सन 1947 में भारत पाकिस्तान का बंटवारा होने पर फिर शिवलिंग पर पूजा अर्चना शुरु कर दी गई।

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