अध्याय 1 : त्रिदेवों की उत्पत्ति तथा एक नारी और एक पुरूष का प्राकट्य

नारद जी बोले- महा भाग! विधात! आपके मुखारविंद से मंगल कारिणी शंभू कथा सुनते सुनते मेरा जी नहीं भर रहा है। अतः भगवान शिव का सारा शुभ चरित्र मुझसे कहिए। विश्व की सृष्टि करने वाले ब्रह्मदेव मैं सती की कीर्ति से युक्त शिव का दिव्य चरित्र सुनना चाहता हूं। शोभाशालिनी सती किस प्रकार दक्ष पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुई? महादेव जी ने विवाह का विचार कैसे किया? पूर्व काल में दक्ष के प्रति रोष होने के कारण सती ने अपने शरीर का त्याग कैसे किया? चेतनाकाश को प्राप्त हो कर वह हिमालय की कन्या कैसे हुई? पार्वती ने किस प्रकार उग्र तपस्या की और कैसे उनका विवाह हुआ? कामदेव का नाश करने वाले शंकर के आधे शरीर में भी किस प्रकार स्थान पा सकीं? महामते! इन सब बातों को आप विस्तार पूर्वक कहिए। आपके समान दूसरा कोई संशय का निवारण करने वाला न है, न होगा।
ब्रह्मा जी ने कहा- मुने! देवी सती और भगवान शिव का शुभ यश परम पावन दिव्य तथा गोपनीय से भी अत्यंत गोपनीय है। वह सब तुम मुझसे सुनो। पूर्व काल में भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निराकार, शक्ति रहित, चिन्मय तथा सत और असत से विलक्षण स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। फिर वही प्रभु सगुण और शक्तिमान होकर विशिष्ट रूप धारण करके स्थित हैं। उनके साथ भगवती उमा विराजमान थी। वे भगवान शिव दिव्य आकृति से सुशोभित हो रहे थे। उनके मन में कोई विकार नहीं था। वे अपने परात्पर स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। मुनी श्रेष्ठ! उनके बाएं अंग से भगवान विष्णु, दाएँ से मैं ब्रह्मा और मध्य अंग अर्थात ह्रदय से रूद्र देव प्रकट हुए। मैं ब्रह्मा सृष्टि करता हुआ, भगवान विष्णु जगत का पालन करने लगे और स्वयं रूद्र ने संहार का कार्य संभाला। इस प्रकार भगवान सदाशिव स्वयं ही तीन रूप धारण करके स्थित हुए। उन्हीं की आराधना कर के मुझ लोकपितामह ब्रह्मा ने देवता, असुर और मनुष्य आदि संपूर्ण जीवन की सृष्टि की। दक्ष और प्रजापतिओं और देव शिरोमणिओं की सृष्टि करके मैं बहुत प्रसन्न हुआ तथा अपने को सबसे अधिक ऊंचा मानने लगा।

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अध्याय 2 : 

मुनि! जब मरीचि, अत्रि, पूलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वशिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु- इन प्रभावशाली मानस पुत्रों को मैंने उत्पन्न किया, तब मेरे ह्रदय से अत्यंत मनोहर रूप वाली एक सुंदरी नारी उत्पन्न हुई जिसका नाम संध्या था। वह दिन में क्षीण हो जाती परंतु सांयकाल में उसका रूप सौंदर्य खिल उठता था। वह मूर्ति मय सांय संध्या ही थी और निरंतर किसी मंत्र का जाप करती रहती थी। सुन्दर भौहोंवाली वह नारी सौंदर्य की चरम सीमा को पहुंची हुई थी और मुनियों के भी मन को मोह लेती थी।

इसी तरह मेरे मन से एक मनोहर पुरुष भी प्रकट हुआ जो अत्यंत अदभुत था। उसके शरीर का मध्य भाग कटी प्रदेश पतला था। दांतों की पंक्तियां बड़ी सुंदर थी। उसके अंगों से मतवाले हाथी की सी गंध प्रकट होती थी। नेत्र के प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पाते थे। अंगों में केसर लगा था जिसकी सुगंध नासिका को तृप्त कर रही थी। उसको देखकर दक्ष आदी मेरे सभी पुत्र अत्यंत उत्सुक हो उठे। उनके मन में विस्मय भर गया था। जगत की सृष्टि करने वाले मुझ जगदीश्वर ब्रह्मा की ओर देख कर उस पुरुष ने विनय से गर्दन झुका दी और मुझे प्रणाम करके कहा ।
वह पुरुष बोला- ब्राह्मन! मैं कौन सा कार्य करूंगा ? मेरे योग्य जो काम हो उसमें मुझे लगाइए; क्योंकि विधाता! आज आप ही सबसे अधिक माननीय और योग्य पुरुष हैं। यह लोक आप से ही शोभित हो रहा है।

ब्रह्मा जी ने कहा- भद्र पुरुष तुम इसी रूप से तथा फूल के बने हुए 5 बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करते हुए सृष्टि के सनातन कार्य को चलाओ। इस चराचर त्रिभुवन में यह देवता आदि कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार करने में समर्थ नहीं होंगे। तुम छिपे रूप से प्राणियों के ह्रदय में प्रवेश करके सदा स्वयं उनकी सुख का हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य चालू रखो। समस्त प्राणियों का जो मन है वह तुम्हारे पुष्पमय बाण का सदा अनायास ही अद्भुत लक्ष्य बन जाएगा। और निरंतर उन्हें मदमस्त किए रहोगे। यह मैंने तुम्हारा कार्य बताया है जो सृष्टि का प्रवर्तक होगा और तुम्हारे ठीक ठीक नाम क्या होंगे इस बात को मेरे यह पुत्र बताएंगे।
सुर श्रेष्ठ ऐसा कह कर अपने पुत्रों के मुख्य की ओर दृष्टिपात करके मैं क्षण भर के लिए अपने कमलमय आसन पर चुपचाप बैठ गया।

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अध्याय 3 : कामदेव के नामों का निर्देश, उसका रति के साथ विवाह तथा कुमारी संध्या का चरित्र- वशिष्ठ मुनि का चंद्र भाग पर्वत पर उसको तपस्या की विधि बताना

ब्रह्मा जी कहते हैं- मुनि! तदन्नतर मेरे अभिप्राय को जानने वाले मरीचि आदि मेरे पुत्र सभी मुनियों ने उस पुरुष का उचित नाम रखा। दक्ष आदि प्रजापतिओं ने उसका मुंह देखते ही परोक्ष के भी सारे वृतांत जानकर उनके लिए स्थान और पत्नी प्रदान की। मेरे पुत्र मरीचि आदि द्विजों ने उस पुरुष के नाम निश्चित करके उससे यह युक्तियुक्त बात कही।
ऋषि बोले- तुम जन्म लेते ही हमारे मन को भी मथने लगे हो। इसलिए लोक में मन्मथ नाम से विख्यात होंगे। मनोभव! तीनों लोकों में तुम इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाले हो, तुम्हारे समान सुंदर दूसरा कोई नहीं है, कामरूप होने के कारण तुम काम नाम से भी विख्यात हो। लोगों को मदमस्त बना देने के कारण तुम्हारा एक नाम मदन होगा। तुम्हें बड़े दर्प से उत्पन्न हुए हो इसलिए दर्पक कहलाओगे और संर्दप होने के कारण ही जगत में कंदर्प नाम से भी तुम्हारी ख्याती होगी। समस्त देवताओं का सम्मिलित बल पराक्रम भी तुम्हारे साथ समान नहीं होगा। अतः सभी स्थानों पर तुम्हारा अधिकार होगा, सर्वव्यापी होगे। जो आदि प्रजापति हैं वे ही यह पुरुषों में श्रेष्ठ दक्ष तुम्हारी इच्छा के अनुरूप पत्नी स्वयं देंगे। वह तुम्हारी कामिनी अनुराग रखने वाली होगी।
ब्रह्मा जी ने कहा- मुने! तदन्नतर मैं वहां से अदृश्य हो गया। इसके बाद दक्ष मेरी बात का स्मरण करके कंदर्प से बोले- कामदेव मेरे शरीर से उत्पन्न हुई मेरी यह कन्या सुंदर रूप और उत्तम गुणों से सुशोभित है। इसे तुम अपनी पत्नी बनाने के लिए ग्रहण करो। यह गुणों की दृष्टि से सर्वथा तुम्हारी योग्य है। महातेजस्वी मनोभव! यह सदा तुम्हारे साथ रहने वाली और तुम्हारी रूचि के अनुसार चलने वाली होंगी। धर्मतः यह सदा तुम्हारी अधीन रहेगी।
ऐसा कहकर दक्ष ने अपने शरीर के पसीने से उत्पन्न उस कन्या का नाम रति रख कर उसे अपने आगे बैठाया और कंदर्प को संकल्पपूर्वक सौंप दिया। नारद! दक्ष की वह पुत्री रति बड़ी रमणीय और मुनियों के मन को भी मोह लेने वाली थी। उसके साथ विवाह करके कामदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। अपनी रती नामक सुंदरी स्त्री को देखकर उसके हाव-भाव आदि से अनुरंजीत हो कामदेव मोहित हो गया। तात उस समय बड़ा भारी उत्सव होने लगा जो सब के सुख को बढ़ाने वाला था। प्रजापति दक्ष इस बात को सोचकर बड़े प्रसन्न थे कि कि मेरी पुत्री इस विवाह से सुखी है। कामदेव को भी बड़ा सुख मिला। उसके सारे दुख दूर हो गए। दक्ष कन्या रती भी कामदेव को पाकर बहुत प्रसन्न हुई।

जैसे संध्या काल में मनोहारिणी विद्युन्माला के साथ मेघ शोभा पाता है, उसी प्रकार रती के साथ प्रिय वचन बोलने वाला कामदेव बड़ी शोभा पा रहा था। इस प्रकार रती के प्रति भारी मोह युक्त रतिपति कामदेव ने उसे उसी तरह अपने ह्रदय के सिंहासन पर बैठाया, जैसे योगी पुरुष योग विद्या को ह्रदय में धारण करता है। इसी प्रकार पूर्ण चंद्रमुखी रति भी उस श्रेष्ठ पति को पाकर उसी तरह सुशोभित हुई, जैसे श्री हरि को पाकर पूर्णचन्द्रानना लक्ष्मी शोभा पाती हैं।
सूतजी कहते हैं- ब्रह्मा जी का यह कथन सुनकर मुनि श्रेष्ठ नारद मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। भगवान शंकर का स्मरण करके हर्षपूर्वक बोले- महाभाग! विष्णुप्रिय! महामते! आपने चंद्रमौली शिव की ये अद्भुत लीला कही है। अब मैं यह जानना चाहता हूं कि विवाह के पश्चात कामदेव प्रसन्नता पूर्वक अपने स्थान को चला गया। दक्ष भी अपने घर को पधारे आप और आप के मानस पुत्र भी धाम को चले गए। पितरों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मा कुमारी संध्या कहां गई? उसने क्या किया और किस पुरुष के साथ उसका विवाह हुआ? संध्या का यह सब चरित्र विशेष रूप से बताइए।
ब्रह्मा जी ने कहा- मुने! संध्या का वह सारा शुभ चरित्र सुनो। जिसे सुनकर समस्त कामिनियां सदा के लिए सती साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या मेरी मानस पुत्री थी। तपस्या करके शरीर को त्याग कर मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की बुद्धि मती पुत्री होकर अरुन्धती के नाम से विख्यात हुई। उत्तम व्रत का पालन करके उस देवी ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के कहने से श्रेष्ठव्रत धारी महात्मा वसिष्ठ को अपना पति चुना। वह सौम्य स्वरूप वाली देवी और सबकी पूजनीया श्रेष्ठ पतिव्रता के रूप में विख्यात हुई।

नारद जी ने पूछा-भगवन! संध्या ने कैसे, किस लिए और कहां तप किया? किस प्रकार शरीर त्यागकर वे मेधातिथि की पुत्री हुई? ब्रह्मा, विष्णु और शिव देवताओं की बताई हुई बात के अनुसार कैसे श्रेष्ठ व्रतधारी महात्मा वशिष्ठ को उसने अपना पति बनाया? पितामह मैं यह सब विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। अरुन्धती के इस कोतुहल पूर्ण चरित्र का आप यथार्थ रूप से वर्णन कीजिए।

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अध्याय 4

ब्रह्मा जी ने कहा- मुने! संध्या के मन में एक बार सकाम भाव आ गया था। इसलिए उसे साध्वी ने यह निश्चय किया कि वैदिक मार्ग के अनुसार में अग्नि में अपने इस शरीर की आहुति दे दूंगी। आज से इस भूतल पर कोई भी देहधारी उत्पन्न होते ही इस कामभाव से युक्त न हो, इसके लिए मैं कठोर तपस्या करके मर्यादा स्थापित करूंगी। तरुणाअवस्था से पूर्व किसी पर भी काम का प्रभाव नहीं पड़ेगा, ऐसी सीमा निर्धारित करूंगी। बाद इस जीवन को त्याग दूंगी।
मन ही मन ऐसा विचार करके संध्या चंद्रभाग नामक उस श्रेष्ठ पर्वत पर चली गई, जहाँ से चंद्रभागा नदी का प्रादुर्भाव हुआ है। मन में तपस्या का दृढ़ निश्चय ले संध्या को श्रेष्ठ पर्वत पर गई हुई जान मैंने अपने समीप बैठे हुए वेद वेदांगो के पारंगत विद्वान,सर्वज्ञ, जीतात्मा एवं ज्ञान योगी पुत्र वशिष्ठ से कहा- बेटा वशिष्ठ! मनस्विनी संध्या तपस्या की अभिलाषा से चंद्र भाग नामक पर्वत पर गई है। तुम जाओ और उसे विधि पूर्वक दीक्षा दो। तात! वह तपस्या के भाव को नहीं जानती है। इसलिए जिस तरह तुम्हारे यथोचित उपदेश से उसे अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हो सके,वैसा प्रयत्न करो।
नारद! मैंने दया पूर्वक उस जब वशिष्ठ को इस प्रकार आज्ञा दी तब वे जो आज्ञा कहकर एक तेजस्वी ब्रहमचारीके रूप में संध्या के पास गए। चंद्र भाग पर्वत पर एक देव सरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से परिपूर्ण हो मानसरोवर के समान शोभा पाता है। वशिष्ठ ने उस सरोवर को दिखा उसके तट पर बैठी हुई संध्या पर भी दृष्टिपात किया। कमलों से प्रकाशित होने वाला वह सरोवर तट पर बैठी हुई संध्या से उपलक्षित हो उसी तरह सुशोभित हो रहा था जैसी प्रदोष काल में उदित हुए चंद्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। सुंदर भाव वाली संध्या को वहां बैठी देख मुनि ने कौतूहल पूर्वक उस बृहलोहित नाम वाले सरोवर को अच्छी तरह देखा। उसी प्रकाराभूत पर्वत के शिखर से दक्षिण समुद्र की ओर जाती हुई नदी का भी उन्होंने दर्शन किया। जैसे गंगा हिमालय से निकलकर समुद्र की ओर जाती है, उसी प्रकार चंद्रभाग के पश्चिम में शीखर का भेदन करके वह नदी समुद्र की ओर जा रही थी। चंद्र भाग पर्वत पर बृहलोहित सरोवर के किनारे बैठी हुई संध्या को देखकर वसिष्ठ ने आदर पूर्वक पूछा।
वशिष्ट बोले- भद्रे! तुम इस निर्जन पर्वत पर किस लिए आई हो? किसकी पुत्री हो और तुमने यहां क्या करने का विचार किया है? मैं यह सब सुनना चाहता हूं। यदि छिपाने योग्य बात नहीं हो तो बताओ।

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अध्याय 5

महात्मा वशिष्ठ की यह बात सुनकर संध्या ने उन महात्मा की ओर देखा। वे अपने तेज से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानव ब्रह्मचर्य देह धारण करके आ गया हो। वे मस्तक पर जटा धारण किए बड़ी शोभा पा रहे थे। संध्या ने उन तपोधन को आदर पूर्वक प्रणाम करके कहा।
संध्या बोली- ब्राह्मण! मैं ब्रह्मा जी की पुत्री हूं। मेरा नाम संध्या है। मैं तपस्या करने के लिए इस निर्जन पर्वत पर आई हूं। यदि मुझे उपदेश देना आपको उचित जान पड़े तो आप मुझे तपस्या की विधि बताइए। मैं यही करना चाहती हूं। दूसरी कोई भी गोपनीय बात नहीं है। मैं तपस्या के भाव को करने के नियम को बिना जाने ही तपोवन में आ गई हूं। इसलिए चिंता से सुखी जा रही हूं और मेरा ह्रदय कांपता है।

संध्या की बात सुनकर ब्रह्मावेताओं में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने जो सारे कार्यों के ज्ञाता थे। उससे दूसरी कोई बात नहीं पूछी। वह मन ही मन तपस्या का निश्चय कर चुकी थी। और उसके लिए अत्यंत उद्यमशील थी। उस समय वशिष्ठ ने मनसे भक्तवत्सल भगवान शंकर का स्मरण करके इस प्रकार कहा।
वशिष्ठ जी बोले- शुभानने! जो सबसे महान और उत्कृष्ट तेज हैं उत्तम और महान तप हैं, परमआराध्य परमात्मा है, शंभू को तुम ह्रदय में धारण करो। जो अकेले ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के आदि कारण हैं, उन त्रिलोकी के आदिस्त्रस्टा हैं। अद्वितीय पुरुषोत्तम शिव का भजन करो। आगे बताए जाने वाले मंत्र से देवेश्वर शंभू की आराधना करो। उससे तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा इसमें संशय नहीं है। “ॐ नमः शंकराय ॐ” इस मंत्र का निरंतर जप करती हुई मौन तपस्या आरंभ करो और जो मैं नियम बताता हूं उन्हें सुनो। तुम्हें मौन रहकर ही स्नान करना होगा। मौनालम्बनपूर्वक पूर्वक ही महादेव जी की पूजा करनी होगी। प्रथम दो बार छठे समय में तुम केवल जल का पूर्ण आहार कर सकती हो। जब तीसरी बार छठा समय आए तब केवल उपवास किया करो। इस तरह तपस्या की समाप्ति तक छठे काल में जलाहार व उपवास की क्रिया होती रहेगी। इस प्रकार की जाने वाली मौन तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा संपूर्ण अभीष्ट मनोहरथों को पूर्ण करने वाली होती है। यह सत्य है इसमें संशय नहीं है। अपने चित में ऐसा शुभ उद्देश्य लेकर इच्छा अनुसार शंकर जी का चिंतन करो। वे प्रसन्न होने पर तुम्हें अवश्य ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे।
इस तरह संध्या को तपस्या करने की विधि का उपदेश दे यथोचित रूप से उस से विदा ले वही अंतर्ध्यान हो गए।

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अध्याय 6 : संध्या की तपस्या, भगवान शिव की स्तुति तथा यज्ञ में भेजना

ब्रह्मा जी कहते हैं- मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ महाप्रज्ञ नारद! तपस्या के नियम का उपदेश दे जब वशिष्ठ जी अपने घर चले गए तब तप के उस विधान को समझकर संध्या मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई। फिर तो वह सानंद मन से तपस्विनी के योग्य वेश बनाकर बृहल्लोहित सरोवर के तट पर ही तपस्या करने लगी। वशिष्ट जी ने तपस्या के लिए जिस मंत्र को साधन बताया था उसी से उत्तम भक्ति भाव साथ वह भगवान शंकर की आराधना करने लगी। उसने भगवान शिव में अपने चित को लगा दिया और एकाग्र मन से वह बड़ी भारी तपस्या करने लगी। उस तपस्या में लगी हुई उसके चार युग व्यतीत हो गए। तब भगवान शिव उसकी तपस्या से संतुष्ट हो बड़े प्रसन्न हुए तथा बाहर भीतर और आकाश में अपने स्वरूप का दर्शन करा कर जिस रूप का वह चिंतन करती थी उसी रूप से उसकी आंखों के सामने प्रकट हो गए। उसने मन से जिनका चिंतन किया था उन्हीं प्रभु शंकर को सामने खड़ा देख वह अत्यंत आनंद में नीमग्न हो गई। भगवान का मुखारविंद बड़ा प्रसन्न दिखाई देता था। उनके स्वरूप से शाँति बरस रही थी। वह सहसा भयभीत हो सोचने लगी कि मैं भगवान हर से क्या कहूं ? किस तरह उनकी स्तुति करूं ? इसी चिंता में पढ़ कर उसने अपने दोनों नेत्र बंद कर लिए। नेत्र बंद कर लेने पर भगवान शिव ने उस के ह्रदय में प्रवेश करके उसे दिव्य ज्ञान दिया, दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि प्रदान की। जब उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि और दिव्य वाणी प्राप्त हो गई तब वह कठिनाई से ज्ञात होने वाले जगदीश्वर शिव को प्रत्यक्ष देखकर उनकी करने लगी।
संध्या बोली- जो निराकार और परम ज्ञान गम्य हैं, जो न तो स्थूल हैं न सूक्ष्म हैं, और न उच्च ही हैं तथा जिनके स्वरूप का योगी जन ह्रदय के भीतर चिंतन करते हैं, उन्हीं लोकस्त्रटा आप भगवान शिव को नमस्कार है। जिन्हें सर्व कहते हैं, शांत स्वरूप, निर्मल, निर्विकार और ज्ञान गम्य हैं, जो अपने ही प्रकाश में स्थित हो प्रकाशित होते हैं, जिनमें विकार का अत्यंत अभाव है, जो आकाश मार्ग की भांति निर्गुण, निराकार बताए गए हैं तथा जिनका रूप अज्ञान अंधकारकार मार्ग से सर्वदा परे हैं, उन नित्य प्रसन्न आप भगवान शिव को मैं प्रणाम करती हूं। जिनका रूप एक ,अद्वितीय, शुद्ध, बिना माया के प्रकाशमान, सच्चिदानंदमय, सहज निर्विकार, नित्यानंदमय, सत्य ऐश्वर्य से युक्त, प्रसन्न और माता लक्ष्मी को देने वाला है, आप भगवान शिव को नमस्कार है। जिनके स्वरूप की ज्ञान रूप से ही उद्भावना की जा सकती है, जो जगत से सर्वथा भिन्न है, एवं सत्य प्रधान, ध्यान के योग्य, आत्म स्वरूप, सार भूत, सब को पार लगाने वाले तथा पवित्र वस्तुओं में भी परम पवित्र हैं उन्हें आप महेश्वर को मेरा नमस्कार है। आप का जो स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्न में आभूषणों से विभूषित तथा कर्पूर के समान गौर वर्ण है, जिसने अपने हाथों में वर, अभय, शूल और मुंड धारण कर रखा है, उस दिव्य, चिन्मय, सगुण, साकार विग्रह से शुशोभित आप योग युक्त भगवान शिव को नमस्कार है। आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल ये जिनके रूप हैं उन आप परमेश्वर को नमस्कार है।

प्रधान (प्रकृति) और पुरुष जिनके शरीर रूप से प्रकट हुए हैं अर्थात वे दोनों जिनके शरीर हैं, इसलिए जिनका यथार्थ रूप अव्यक्त (बुद्धि आदि से परे) हैं, उन भगवान शंकर को बारंबार नमस्कार है। जो ब्रह्मा होकर जगत की सृष्टि करते हैं, जो विष्णु होकर जगत का पालन करते हैं तथा जो रूद्र होकर अंत में इस सृष्टि का सहार करेंगे, भगवान सदाशिव को बारंबार नमस्कार है। जो कारण के भी कारण हैं, दिव्य अमृत रूप ज्ञान तथा अणिमा आदि ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। समस्त लोकान्तरों का वैभव देने वाले हैं, स्वयं प्रकाश रूप हैं तथा प्रकृति से भी परे हैं उन परमेश्वर शिव को नमस्कार है, नमस्कार है।
यह जगत जिनसे भिन्न नहीं कहा जाता। जिनके चरणों से पृथ्वी तथा अन्यान्य अंगों से संपूर्ण दिशाएं, सूर्य, चंद्रमा, कामदेव एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं और जिनकी नाभि से अंतरिक्ष का आविर्भाव हुआ है, उन्हीं आप भगवान शंभू को मेरा नमस्कार है । प्रभो! आप ही सबसे उत्कृष्ट परमात्मा हैं, आप ही नाना प्रकार की विधाएं हैं, आप ही हर (संहारकर्ता) हैं, आप ही शब्द ब्रह्मा तथा परब्रह्मा हैं, आप सदा विचार में तत्पर रहते हैं। जिनका न आदि है, ना मध्य है और ना अंत ही है। जिन से सारा जगत उत्पन्न हुआ है तथा जो मन और वाणी के विषय नहीं है उन महादेव जी की स्तुति मैं कैसे कर सकूँगी ?
ब्रह्मा जी आदि देवता तथा तपस्या के धनी मुनि भी जिनका वर्णन नहीं कर सकते , उन ईश्वर का वर्णन अथवा स्तवन में कैसे कर सकती हूं ? प्रभु! आप निर्गुण हैं, मैं मूढ स्त्री आपके गुणों को कैसे जान सकती हूं? आपका रूप तो ऐसा है जिसे इंद्र सहित संपूर्ण देवता और असुर भी नहीं जानते है। महेश्वर आपको नमस्कार है तपोमय! आपको नमस्कार है। देवेश्वर शंभू मुझ पर प्रसन्न होइए। आपको बारंबार मेरा नमस्कार है।
ब्रह्मजी कहते हैं- नारद! संध्या का यह स्तुति प्रवचन सुनकर उसके द्वारा भली-भांति प्रसंशित हुए भक्तवत्सल परमेश्वर शंकर बहुत प्रसन्न हुए। उनका शरीर वल्कल और मृग चरम से ढका हुआ था। मस्तक पर पवित्र जटा जूट शोभा पा रहे थे। उस समय पाले के मारे हुए कमल के समान उसके कुमलाए हुए मुंह को देखकर भगवान हर दया से द्रवित हो उससे इस प्रकार बोले।

महेश्वर ने कहा- भद्रे! मैं तुम्हारी इस उत्तम तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। शुद्ध बुद्धि वाली देवी! तुम्हारे इस स्तवन से भी मुझे बड़ा संतोष प्राप्त हुआ है। अतः अपनी इच्छा के अनुसार कोई वर मांगो। जिस वर से तुम्हें प्रयोजन हो तथा जो तुम्हारे मन में हो उसे मैं यहां अवश्य पूर्ण करूंगा। तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हारे व्रत नियम से बहुत प्रसन्न हूं।
प्रसन्न चित्त महेश्वर का यह वचन सुनकर अत्यंत हर्ष से भरी हुई संध्या बारम्बार प्रणाम करके बोली- महेश्वर! यदि आप मुझे प्रसन्नता पूर्वक वर देना चाहते हैं, मैं वर पाने के योग्य हूं, यदि पाप से शुद्ध हो गई हूं तथा यदि इस समय आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं, तो मेरा मांगा हुआ यह पहला वर सफल करें। देवेश्वर! इस आकाश में पृथ्वी आदि किसी भी स्थान में जो प्राणी हैं वे सब के सब जन्म लेते ही काम भाव से युक्त न हो जाएं। नाथ! मेरी सकाम दृष्टि कहीं ना पड़े। मेरे जो पति हों वे भी मेरे अत्यंत सुह्रद् हों। पति के अलावा जो भी पुरुष मुझे काम भाव से देखें उसके पुरुषत्व का नाश हो जाए- तत्काल नपुसंक हो जाए।
निष्पाप संध्या का यह वचन सुनकर भक्त वत्सल भगवान शंकर ने कहा- देवी! सुनो भद्रे! तुमने जो जो वर मांगा है वह सब तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट होकर मैंने दे दिया है। जीवन में मुख्यतः चार अवस्थाएं होती हैं पहली शैशवावस्था, दूसरी कौमारअवस्था, तीसरी युवावस्था और चौथी वृद्धावस्था। तीसरी अवस्था प्राप्त होने पर देहधारी जीव काम भाव से युक्त होंगे। कहीं कहीं दूसरी अवस्था के अंतिम भाग में भी प्राणी सकाम हो जायेंगे। तुम्हारी तपस्या के प्रभाव से मैंने जगत में सकाम भाव के उदय कि यह मर्यादा स्थापित कर दी है। जिससे देहधारी जन्म लेते ही सकाम भाव से युक्त न हो जाएं। तुम भी इस लोक में वैसे दिव्य सती भाव को प्राप्त करो जैसा इस लोक में किसी दूसरी किसी स्त्री के लिए संभव नहीं होगा। पाणिग्रहण करने वाली पति के सिवा जो कोई भी पुरुष सकाम हो कर तुम्हारी और देखेगा वह तत्काल नपुसंक होकर दुर्बलता को प्राप्त हो जाएगा। तुम्हारे पति महान तपस्वी तथा दिव्य रूप से संपन्न एक महाभाग महर्षी होंगे जो तुम्हारे साथ सात कल्पों तक जीवित रहेंगे। तुमने मुझसे जो जो वर मांगे थे वह सब मैंने पूर्ण कर दिए।
अब मैं तुमसे दूसरी बात कहूंगा जो पूर्व जन्म से संबंध रखती है। तुमने पहले से ही यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं अग्नि में अपने शरीर को त्याग दूंगी। उस प्रतिज्ञा को सफल करने के लिए मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं। उसे निसंदेह करो। मुनिवर मेधातिथि का एक यज्ञ चल रहा है जो बारह वर्षों तक चालू रहने वाला है। उसमें अग्नि पूर्णतया प्रज्वलित है। तुम बिना विलंब किए उसी अग्नि में अपने शरीर का उत्सर्ग कर दो। इसी ऊंची पर्वत की उपत्यका में चंद्रभागा नदी के तट पर आश्रम में मुनिवर मेधातिथि महायज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। तुम स्वच्छंदता पूर्वक वहाँ जाओ। मुनि तुम्हें वहां देख नहीं सकेंगे। मेरी कृपा से तुम मुनि की अग्नि से प्रकट हुई पुत्री होगी। तुम्हारे मन मे जिस स्वामी को प्राप्त करने की इच्छा हो उसे ह्रदय में धारण कर उसी का चिंतन करते हुए शरीर को उसी यज्ञ की अग्नि में होम दो।
जब तक तुम इस पर्वत पर चार युगों तक के लिए कठोर तपस्या कर रही थी उन्हीं दिनों चतुरयुगों का सत्य युग बीत जाने पर त्रेता के प्रथम भाग में प्रजापति दक्ष के कई कन्याएं हुईं। उन्होंने अपनी उन सुशीला कन्याओं का यथा योग्य वरों के साथ विवाह कर दिया। सताइस कन्याओं का विवाह उन्होंने चंद्रमा के साथ किया। चन्द्रमा अपनी अन्य सब पत्नियों को छोड़कर केवल रोहिणी से प्रेम करने लगे। इसके कारण क्रोध से भरे हुए दक्ष ने जब चंद्रमा को श्राप दे दिया।
देवता तुम्हारे पास आए परंतु संध्ये! तुम्हारा मन तो मुझ में लगा हुआ था अतः तुमने ब्रह्मा जी के साथ आए हुए उन्हें देवताओं पर दृष्टिपात ही नहीं किया। तब ब्रह्मा जी ने आकाश की ओर देखकर और चंद्रमा पुनः अपने स्वरूप को प्राप्त करें, ये उद्देश्य रखकर उन्हें शाप से छुड़ाने के लिए एक नदी की सृष्टि की, जो चंद्रभागा नदी के नाम से विख्यात हुई। चंद्रभागा के प्रादुर्भाव काल में ही मेधातिथि यहां उपस्थित हुए थे। तपस्या के द्वारा उनकी समानता करने वाला न तो कोई हुआ है और न ही है और ना होगा। उन महर्षि ने महान विधि विधान के साथ दीर्घकाल तक चलने वाले जोतिष्टाम नामक यज्ञ का आरंभ किया है। अग्निदेव पूर्ण रूप से प्रचलित हो रहे हैं। उसी आग में तुम अपने शरीर को डाल दो और परम पवित्र हो जाओ। ऐसा करने से इस समय तुम्हारी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाएगी। इस प्रकार संध्या को उसके हित का उपदेश देकर देवेश्वर भगवान शिव वही अंतर्ध्यान हो गए।

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अध्याय 7: संध्या की आत्माहुति, मुनि वशिष्ट के साथ विवाह करना

ब्रह्मा जी कहते हैं- नारद! जब वर दे कर भगवान शंकर अंतर्ध्यान हो गए,तब संध्या भी उसी स्थान पर गई जहां मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। भगवान शंकर की कृपा से उसे किसी ने वहां नहीं देखा। उसने उस तेजस्वी ब्रह्मचारी का स्मरण किया जिसने उसे तपस्या की विधि का उपदेश दिया था। महामुने! पूर्व काल में महर्षि वशिष्ठ ने मुझ परमेष्ठी की आज्ञा से एक तेजस्वी ब्रह्मचारी का वेश धारण करके उसे तपस्या करने के लिए उपयोगी नियमों का उपदेश दिया था। संध्या अपने को तपस्या का उपदेश देने वाले उन्हें ब्रह्मचारी ब्राह्मण वशिष्ठ को पति रूप से मन में रखकर उस महायज्ञ में प्रज्वलित अग्नि के समीप गई। भगवान शंकर की कृपा से मुनियों ने उसे नहीं देखा। ब्रह्मा जी की वह पुत्री बड़े हर्ष के साथ उस अग्नि में प्रविष्ट हो गई। उसका पुरोडाशमय शरीर तत्काल दग्ध हो गया। उस पुरोडाश की अलक्षित गंध सब और फैल गई। अग्नि ने भगवान शंकर की आज्ञा से उसके सुवर्ण शरीर को जलाकर शुद्ध करके सूर्यमंडल में पहुंचा दिया। तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिए उसे दो भागों में विभक्त कर के अपने रथ में स्थापित कर दिया।

मुनेश्वर! उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या हुआ, जो दिन और रात के बीच में पढ़ने वाली आदि संध्या है। शरीर का शेष भाग सांय संध्या हुआ,जो दिन और रात के मध्य होने होने वाली अंतिम संध्या है। संध्या सदा ही पितरों को प्रसन्नता प्रदान करने वाली होती है। सूर्योदय से पहले जब अरुणोदय हो, प्राची में लाली छा जाए तो प्रातः संध्या प्रकट होती है, जो देवताओं को प्रसन्न करने वाली है। जब लाल कमल के समान सूर्य अस्त हो जाते हैं उसी समय सदा सांय संध्या का उदय होता है। जो पितरों को आनंद प्रदान करने वाली है।
परम दयालु भगवान शिव ने उसके मन सहित प्राणों को दिव्य शरीर से युक्त देहधारी बना दिया। जब मुनि की यज्ञ की समाप्ति का अवसर आया तब वह अग्नि की ज्वाला में महर्षि मेधातिथि को तपे हुए सुवर्ण की सी कांति वाली पुत्री के रूप में प्राप्त हुई। उसने बड़े आमोद के साथ उस समय उस पुत्री को ग्रहण किया। मुन्ने! उन्होंने यज्ञ के लिए उसे नहलाकर अपनी गोद में बिठा लिया। शिष्यों से घिरे हुए महामुनि मेधातिथि को वहां बड़ा आनंद प्राप्त हुआ। उन्होंने उसका नाम अरुंधति रखा। वह किसी भी कारण से धर्म का विरोध नहीं करती थी, अतः उसी गुण के कारण उसने स्वयं यह त्रिभुवन विख्यात नाम प्राप्त किया। देवर्षे! यज्ञ को समाप्त करके कृतकृत्य हो वे मुनि पुत्री की प्राप्ति होने से बहुत प्रसन्न थे, और अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहकर सदा उसी का लालन पालन करते थे। देवी अरुंधति चंद्रभागा नदी के तट पर तपसारण्य के भीतर मुनिवर मेधातिथि के उस आश्रम में धीरे धीरे बड़ी होने लगी। जब वह विवाह के योग्य हो गई तब मैंने, विष्णु तथा महेश्वर ने मिलकर मुझ ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ के साथ उसका विवाह करा दिया। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के हाथों से निकले हुए जल से शिप्रा आदि 7 परम पवित्र नदियां उत्पन्न हुई।

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अध्याय 8

मुने! मेधातिथि की पुत्री महा साध्वी पतिव्रताओं में श्रेष्ठ थी। वह महर्षि वशिष्ठ को पति रूप में पाकर उनके साथ बड़ी शोभा पाने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए ।मुन्नी श्रेष्ठ! मैंने तुम्हारे समक्ष संध्या के पवित्र चरित्र का वर्णन किया है जो समस्त कामनाओं के फलों को देने वाला, परम पावन दिव्य है। स्त्री या शुभ व्रत का आचरण करने वाला पुरुष इस प्रसंग को सुनता है तो वह संपूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
प्रजापति ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर नारदजी का मन प्रसन्न हो गया और वे इस प्रकार बोले।
नारद जी ने कहा- ब्रह्मन! अरुंधति की तथा उसके पूर्व जन्म की उसकी स्वरूप भूता संध्या की बड़ी उत्तम दिव्य कथा सुनाई है जो शिव भक्ति की वृद्धि करने वाली है। धर्मज्ञ! अब आप भगवान शिव के उस परम पवित्र चरित्र का वर्णन कीजिए जो दूसरों के पापों का विनाश करने वाला उत्तम एवं मंगल दायक है। जब कामदेव रति से विवाह करके हर्ष पूर्वक चला गया दक्ष आदि अन्य मुन्नी भी जब अपने अपने स्थान को पधारे और जब संध्या तपस्या करने के लिए चली गई तब वहां क्या हुआ?
ब्रह्मा जी ने कहा- तुम धन्य हो! भगवान शिव के सेवक हो। शिव की लीला से युक्त जो उनका शुभ चरित्र है उसे भक्तिपूर्वक सुनो। तात! पूर्व काल में एक बार जब मैं मोह में पड़ गया और भगवान शंकर ने मेरा उपहास किया तब मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था। वस्तुतः शिव की माया ने मुझे मोह लिया था। इसलिए मैं भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या करने लगा। किस प्रकार सो बताता हूं सुनो। मैं उसी स्थान पर गया जहां दक्षराज मुनि उपस्थित थे। वही रति के साथ कामदेव भी था। नारद! उस समय बड़ी प्रसन्नता के साथ दक्ष आदि पुत्रों को संबोधित करके वार्तालाप आरंभ किया।
उस वार्तालाप के समय में शिव की माया से पूर्णतया मोहित था। अतः मैंने कहा- पुत्रों! ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे महादेव जी की किसी कामनीय कांति वाली स्त्री का पाणीग्रहण करें। इसके बाद मैंने भगवान शिव को मोहित करने का भार रति सहित कामदेव को सौंपा। कामदेव ने मेरी आज्ञा मानकर कहा- सुंदर स्त्री ही मेरा अस्त्र है, अतः शिव को मोहित करने के लिए किसी नारी की सृष्टि कीजिए। सुनकर मैं चिंता में पड़ गया और सांस खींचने लगा। मेरी उस निश्वास से पुष्पों से विभूषित वसंत का प्रादुर्भाव हुआ। वसंत और मलयानिल- यह दोनों मदन की सहायक हुई। इनके साथ जाकर कामदेव ने वामदेव को मोहने की बारंबार चेष्टा की पर उसे सफलता नहीं मिली। जब वह निराश होकर लौट आया तब यह बात सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ। उस समय मेरे मुख से जो निश्वास वायु चली उससे मारगणों की उत्पत्ति हुई। उन्हें मदन की सहायता के लिए आदेश देकर मैंने पुनः उन सब को शिव जी के पास भेजा। परंतु महान प्रयत्न करने पर भी वे भगवान शिव को मोह में नहीं डाल सके। काम सपरिवार लौट आया और मुझे प्रणाम करके अपने स्थान को चला गया।

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अध्याय 9

उसके चले जाने पर मैं मन ही मन सोचने लगा कि निर्विकार तथा मन को वश में रखने वाले योगपरायण भगवान शंकर किसी स्त्री को अपनी सहधर्मिणी कैसे स्वीकार करेंगे? सोचते सोचते मैंने भक्ति भाव से उन भगवान् श्रीहरि का स्मरण किया जो साक्षात शिव स्वरूप तथा मेरे शरीर के जन्मदाता हैं। मैंने दीन वचनों से युक्त शुभ स्त्रोतों द्वारा उनकी स्तुति की। उस स्तुति को सुनकर भगवान शीघ्र ही मेरे सामने प्रकट हो गए। उनके चार भुजाएं शोभा पाती थी। नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान सुंदर थे। उन्होंने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म ले रखे थे। उनके श्याम शरीर पर पीतांबर की बड़ी शोभा हो रही थी। वे भगवान श्री हरि भक्त प्रिय हैं उन्हें भक्त बहुत प्यारे हैं। सबके उत्तम शरणदाता उन श्रीहरि को उस रूप में देखकर मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली और मैं गदगद कंठ से बारंबार उनकी स्तुति करने लगा। मेरी उसी स्तोत्र को सुनकर अपने भक्तों के दुख दूर करने वाले भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और शरण में आए हुए मुझे ब्रह्मा से बोले- महाप्रज्ञ! लोकसत्ता तुम धन्य हो। बताओ तुमने किस लिए आज मेरा स्मरण किया है? किस निमित्त से यह स्तुति की जा रही है? तुम पर कौन सा महान दुख आ पड़ा है? उसे इस समय मेरे सामने कहो। मैं सारा दुख मिटा दूंगा। संदेह का अन्यथा विचार नहीं करना चाहिए।
तब ब्रह्माजी ने सारा प्रसंग सुनाकर कहा-केशव! भगवान शिव किसी तरह पत्नी को ग्रहण कर ले तो मैं सुखी हो जाऊंगा। मेरे अन्तः करण का सारा दुख दूर हो जाएगा। इसी के लिए मैं आपकी शरण में आया हूं।
मेरी यह बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े। और मुझ लोकश्र्ष्ठा ब्रह्मा का हर्ष बढ़ाते हुए शीघ्र ही यू बोले- विधात! मेरा वचन सुनो। यह तुम्हारे भ्रम का निवारण करने वाला है। मेरा वचन ही वेद शास्त्र आदि का वास्तविक सिद्धांत है। शिव ही सबके करता भरता (पालक) और हरता (संहारक) हैं। वही परात्पर हैं। परब्रह्म,परेश, निर्गुण, नित्य, निर्विकार, अद्वितीय, अनंत, सब का अंत करने वाले, सर्व व्यापी, परमात्मा एवं परमेश्वर हैं। सृष्टि पालन और संहार के करता, आश्रय देनेवाले, व्यापक, ब्रह्मा, विष्णु और महेश नाम से प्रसिद्ध है। सत्व गुण,रजोगुण और तमोगुण से परे, माया से ही भेद युक्त प्रतीत होने वाले, नीरिह, मायारहित, माया के स्वामी या प्रेरक, चतुर, सगुण, स्वतंत्र, आत्मानंद स्वरूप, निर्विकल्प, आत्माराम, निर्द्वन्द, भक्तपरवश, सुन्दर विग्रह से सुषोभित योगी, नित्य योग परायण, योग मार्गदर्शक, गर्वहारी, लोकेश्वर और सदा दीन वत्सल हैं। सदा तुम उन्हीं की शरण में जाओ। सर्वात्मना शम्भु का भजन करो। इससे प्रसन्न होकर वे तुम्हारा कल्याण करेंगे। ब्राह्मन! यदि तुम्हारे मन में यह विचार हो कि शंकर पत्नी का पानीग्रहण करेंगे तो शिवा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से शिव को स्मरण करते हुए उत्तम तपस्या करो। अपने उस मनोरथ को ह्रदय में रखते हुए देवी शिवा का ध्यान करो। वे देवेश्वरी यदि प्रसन्न हो जाए तो सारा कार्य सिद्ध कर देंगी। यदि शिवा सगुण रूप से अवतार ग्रहण करके लोक में किसी की पुत्री हो मानव शरीर ग्रहण करें तो वह निश्चय ही महादेव जी की पत्नी हो सकती हैं। ब्राह्मन!तुम दक्ष को आज्ञा दो भगवान शिव के लिए पत्नी का उत्पादन करने के निमित्त स्वतः भक्ति भाव से प्रयत्न पूर्वक तपस्या करें। तात! शिवा और शिव दोनों को भक्तों के अधीन जानना चाहिए। वे निर्गुण ब्रह्म ब्रह्म स्वरूप होते हुई भी स्वेच्छा से सगुण हो जाते हैं।

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अध्याय 10

विधे! भगवान शिव की इच्छा से प्रकट हुए हम दोनों ने जब उनसे प्रार्थना की थी, तब पूर्व काल में भगवान शंकर ने जो बात कही थी उसे याद करो। अपने शक्ति से सुंदर लीला विहार करने वाले निर्गुण शिव ने स्वेच्छा से सगुण होकर मुझको और तुम को प्रकट करने के पश्चात तुम्हें तो सृष्टि कार्य करने का आदेश दिया और उमासहित उन अविनाशी सृष्टि कर्ता प्रभु ने मुझे उस सृष्टि के पालन का कार्य सौंपा। फिर उन नाना लीला विशारद दयालु स्वामी ने हंसकर आकाश की ओर देखकर बड़े प्रेम से कहा वैष्णो! मेरा उत्कृष्ट रूप इन विधाता के अंग से इस लोक में प्रकट होगा जिसका नाम रुद्र होगा। रुद्र का यह रूप ऐसा होगा जैसा मेरा है। वह मेरा पूर्ण रूप होगा तुम दोनों को सदा उसकी पूजा करनी चाहिए। वह तुम दोनों के संपूर्ण मनोरथ की सिद्धि करने वाला होगा। वहीं जगत का प्रलय करने वाला होगा। समस्त गुणों का दृष्टा निर विशेष एवं उत्तम योग का पालक होगा। यद्यपि तीनों देवता मेरे ही रूप हैं विशेषतः रूद्र मेरा पूर्ण रूप होगा। देवी उमा के भी तीन रूप होंगे। एक रूप का नाम लक्ष्मी होगा, जो इन श्री हरि की पत्नी होगी। दूसरा रूप ब्रह्म पत्नी सरस्वती है। तीसरा रूप सती के नाम से प्रसिद्ध होगा सती उमा का पूर्ण रूप होंगी वहीं भावी रुद्र की पत्नी होगी।
ऐसा कहकर भगवान महेश्वर हम पर कृपा करने के पश्चात वहां से अंतर्ध्यान हो गए और हम दोनों सुख पूर्वक अपने अपने कार्यों में लग गए। समय पाकर मैं और तुम दोनों सपत्नीक हो गए और साक्षात भगवान शंकर रूद्र नाम से अवतरण हुए। वे इस समय कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। पृजेश्वर! शिवा भी सती नाम से अवतरण होने वाली है अतः तुम्हें उनके उत्पादन के लिए ही यत्न करना चाहिए।
ऐसा कहकर मुझ पर बड़ी भारी दया करके भगवान विष्णु अंतर्ध्यान हो गए और मुझे उनकी बातें सुनकर बड़ा आनंद प्राप्त हुआ।

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अध्याय 11 : दक्ष की तपस्या और देवी शिवा का उन्हें वरदान देना

नारदजी ने पूछा- पूज्य पिताजी! दृढतापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष ने तपस्या करके देवी से कोनसा वर प्राप्त किया तथा वे देवी किस प्रकार दक्ष की कन्या हुई?
ब्रह्मा जी ने कहा- नारद! तुम धन्य हो! इन सभी मुनियों के साथ भक्ति पूर्वक इस प्रसंग को सुनो। मेरी आज्ञा पाकर उत्तम बुद्धि वाले महा प्रजापति दक्ष ने क्षीरसागर के उत्तर तट पर स्थित हो जगदंबिका को पुत्री के रूप में प्राप्त करने की इच्छा तथा उनके प्रत्यक्ष दर्शन की कामना लिए ह्रदय मंदिर में विराजमान करके तपस्या प्रारंभ की। दक्ष ने मन को संयम में रखकर कठोर व्रत का पालन करते हुए शौच-संतोषदि नियमों से युक्त हो 3 हजार दिव्य वर्षों तक तप किया। वे कभी जल पीकर रहते थे कभी हवा पीते और कभी सर्वथा उपवास करते थे। भोजन के नाम पर कभी सूखे पत्ते चबा लेते थे।
मुनि श्रेष्ठ नारद! तदनंतर यम-नियम आदि से युक्त हो जगदंबा की पूजा में लगे हुए दक्ष को देवी शिवा ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। जगन्मई जगदंबा का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर प्रजापति दक्ष ने अपने आपको कृत कृत्य माना। वे कालिका देवी सिंह पर आरूढ़ थी। उनकी अंग कांति श्याम की। मुख बड़ा ही मनोहर था। वे चार भुजाओं से युक्त थी और हाथों में वरद,अभय, नील, कमल और खड्ग धारण किए हुई थी। नेत्र कुछ-कुछ लाल थे। खुले हुए केश बड़े सुंदर दिखाई देते थे। उत्तम प्रभा से प्रकाशित होने वाली उन जगदम्बा को भली-भांति प्रणाम करके दक्ष विचित्र वचनावलियों द्वारा उनकी स्तुति करने लगा।
दक्ष ने कहा- जगदम्बे! महामाई! जगदीशे! महेश्वरी आपको नमस्कार है। आपने कृपा करके मुझे अपने स्वरूप का दर्शन कराया है। भगवती! आद्य! मुझ पर प्रसन्न होइए। शिव रूपिणी मुझ पर प्रसन्न होइए। जगन्माये! आप को मेरा नमस्कार है।

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अध्याय 12

ब्रह्मा जी कहते हैं- मुने! संयम चित वाले दक्ष के इस प्रकार स्तुति करने पर महेश्वरी शिवा ने स्वयं उनके अभिप्राय को जान लिया तो भी दक्ष से इस प्रकार कहा- दक्ष तुम्हारी इस भक्ति से मैं बहुत संतुष्ट हूं। तुम अपना मनोवांछित वर मांगो। तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है।
जगदंबा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और शिवा को बारंबार प्रणाम करते हुए बोले।
दक्ष ने कहा- जगदंबे! यदि आप मुझे वर देने के लिए उद्यत हैं तो मेरी बात सुनिए और प्रसन्नता पूर्वक मेरी इच्छा पूर्ण कीजिए। मेरे स्वामी जो भगवान शिव हैं वे रूद्र नाम धारण करके ब्रह्माजी के पुत्र रूप से अवतरण हुए हैं। वे परमात्मा शिव के पूर्ण अवतार हैं परंतु आपका कोई अवतार नहीं हुआ है,फिर उनकी पत्नी कौन होगी? अतः हे शिवे! आप इस भूतल पर अवतरण होकर उन महेश्वर को अपने रूप लावण्य से मोहित कीजिए। देवी आपके सिवा दूसरी कोई स्त्री रूद्र देव को कभी मोहित नहीं कर सकती। इसलिए आप मेरी पुत्री होकर इस समय महादेव जी की पत्नी होइए। इस प्रकार सुंदर लीला करके आप हर मोहिनी (भगवान शिव को मोह करने वाली) बनिए। देवी यही मेरे लिए वर है। यह केवल मेरी ही स्वार्थ की बात हो, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। मेरी ही साथ संपूर्ण जगत का भी हित है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव में से ब्रह्मा जी की प्रेरणा से मैं यहां आया हूं।
प्रजापति दक्ष का यह वचन सुनकर जगदम्बिका शिवा हंस पड़ी और मन ही मन भगवान शिव का स्मरण करके यूं बोली।
देवी ने कहा- तात! प्रजापति! मेरी उत्तम बात सुनो। तुम्हारी भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हो तुम्हें संपूर्ण मनोवांछित वस्तु देने के लिए उद्यत हूं। दक्ष! यद्यपि मैं महेश्वरी हूं तथापि तुम्हारी भक्ति के अधीन हो तुम्हारी पत्नी के गर्भ से तुम्हारी पुत्री के रूप में अवतरण होंऊंगी। इसमें संशय नहीं है। अनघ! मैं अत्यंत दुस्सह तपस्या करके ऐसा प्रयत्न करूँगी। जिससे महादेव जी का वर पाकर उनकी पत्नी हो जाऊं। इसके सिवा और किसी उपाय से कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान सदाशिव सर्वथा निर्विकार है, ब्रह्मा और विष्णु के भी सेव्य हैं। तथा नित्य परिपूर्ण रूप ही है। मैं सदा उनकी दासी और प्रिया हूं। प्रत्येक जन्म में भी नाना रूप धारी शंभू ही मेरे स्वामी होते हैं। भगवान सदाशिव अपने दिए हुए वर के प्रभाव से ब्रह्मा की भृकुटि से रूद्र रूप में अवतरण हुए हैं। मैं भी वर से उनकी आज्ञा के अनुसार यहां अवतार लूंगी। तात! अब तुम अपने घर को जाओ। इस कार्य में जो मेरी दूती अथवा सहायिका होंगी उसे मैंने जान लिया है। अब शीघ्र ही मैं तुम्हारी पुत्री होकर महादेव जी की पत्नी बनूँगी।
दक्ष से यह उत्तम वचन कह कर मन ही मन शिव की आज्ञा प्राप्त करके देवी शिवा ने शिव के चरणारविंदो का चिंतन करते हुए फिर कहा- प्रजापते! मेरा एक प्रण है। इसे सदा मन में रखना चाहिए। मैं उस प्रण को सुना देती हूँ। तुम इसे सत्य समझो, मिथ्या न मानो। यदि कभी मेरे पति के प्रति तुम्हारा आदर घट जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूंगी। मेरा यह कथन सत्य है। प्रजापति! प्रत्येक कल्प या सर्ग के लिए तुम्हें यह वर दे दिया गया- मैं तुम्हारी पुत्री होकर भगवान शिव की पत्नी होऊंगी।
प्रजापति दक्ष से ऐसा कहकर महेश्वरी शिवा उनके देखते देखते ही वहीं अंतरध्यान हो गई। दुर्गा जी के अन्तरध्यान होने पर दक्ष भी अपने आश्रम को लौट गए और यह सोचकर प्रसन्न रहने लगी की देवी शिवा मेरी पुत्री होने वाली है।

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अध्याय 13: ब्रह्माजी की आज्ञा से दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ

ब्रह्मा जी कहते हैं- नारद! प्रजापति दक्ष अपने आश्रम पर जाकर मेरी आज्ञा पा हर्ष भरे मन से नाना प्रकार की मानसिक सृष्टि करने। उस प्रजा सृष्टि को बढ़ती हुई ना देख प्रजापति दक्ष ने मुझ ब्रह्मा से कहा।
दक्ष बोले- ब्राह्मन! नाथ! प्रजानाथ! प्रजा बढ नहीं रही है। प्रभु! मैंने जितने जीवों की सृष्टि की थी सब उतने ही रह गए हैं। प्रजानाथ! मैं क्या करूं? जिस उपाय से यह जीव अपने आप बढ़ने लगे हैं वह मुझे बताइए। तदनुसार में प्रजा की सृष्टि करूंगा इसमें संशय नहीं है।
मैंने, ब्रह्मा जी ने, कहा- तात! प्रजापति दक्ष! मेरी उतम बात सुनो और उसके अनुसार कार्य करो। सुरश्रेष्ठ भगवान शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। पर्जेश! प्रजापति पञ्चजन (वीरण) की जो परम सुंदरी पुत्री असिक्न है, उसे तुम पत्नी रूप से ग्रहण करो। स्त्री के साथ मैथुन धर्म का आश्रय ले इस प्रजा सर्ग को बढ़ाओ। असिक्नी जैसी कामिनी के गर्भ से तुम बहुत सी संतान उत्पन्न कर सकोगे।
तदनन्तर मैथुनजनित सृष्टि की उत्पत्ति करने के उद्देश्य से दक्ष ने मेरी आज्ञा के अनुसार वीरण की पुत्री के साथ विवाह किया। अपनी पत्नी वीरण के गर्भ से प्रजापति दक्ष ने 10000 पुत्र उत्पन्न किए। हर्यश्व कहलाए। सब पुत्र समान धर्म का आचरण करने वाले हुए। पिता की भक्ति में तत्पर रहकर वे सदा वैदिक मार्ग पर ही चलते थे। एक समय पिता ने उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश दिया। तब वे सभी दाक्षायण नामधारी पुत्र सृष्टि के उद्देश्य से पश्चिमी दिशा की ओर गए। वहां नारायण-सर नामक परम पावन तीर्थ है, जहां दिव्य सिंधु नद और समुद्र का संगम हुआ है। उस जल का निकट से ही स्पर्श करने से अन्तकरण शुद्ध एवं ज्ञान से संपन्न हो गया। उनकी आंतरिक मलराशि धूल गई और वे परमहंस धर्म में स्थित हो गए। दक्ष के वे सभी पुत्र पिता के आदेश में बंधे हुए थे। अतः मन को संयमित करके प्रजा की वृद्धि के लिए वहां तप करने लगे। वे सभी सत्पुरुषों में श्रेष्ठ थे।
नारद जब तुम्हें पता लगा कि हर्यश्व गण सृष्टि के लिए तपस्या कर रहे हैं तब भगवान लक्ष्मीपति की हार्दिक अभिप्राय को जानकर तुम उनके पास गए और अआदरपूर्वक यू बोले- दक्षपुत्रों! तुम लोग पृथ्वी का अंत देखे बिना ही सृष्टि-रचना करने के लिए कैसे उद्यत हो गए?

ब्रह्मा जी कहते हैं- नारद हर्यश्व आलस्य से दूर रहने वाले थे, और जन्म काल से ही बड़े बुद्धिमान थे। सब के सब तुम्हारा उपर्युक्त कथन सुनकर स्वयं उस पर विचार करने लगे। उन्होंने यह विचार किया कि जो उत्तम शास्त्र रूपी पिता के आदेश को नहीं समझता केवल रज आदि गुणों पर विश्वास करने वाला पुरुष सृष्टि निर्माण का कार्य कैसे आरंभ कर सकता है। ऐसा निश्चय करके भी उत्तम बुद्धि और एक चित वाले दक्ष कुमार नारद को प्रणाम उनकी परिक्रमा करके ऐसे पथ पर चले गए जहाँ से कोई वापस नहीं लौटता है। नारद! तुम भगवान शंकर के मन हो और मुनि लोगों में अकेले विचरा करते हो। तुम्हारे मन में कोई विकार नहीं है क्योंकि तुम सदा महेश्वर की मनोवृति के अनुसार ही कार्य करते हो। जब बहुत समय बीत गया तब मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष को यह पता लगा कि मेरे सभी पुत्र नारद से शिक्षा पाकर नष्ट हो गए (हाथ से निकल गए)। इससे उन्हें बड़ा दुख हुआ। यह बार-बार कहने लगे तुम संतानों का पिता होना शोक का ही स्थान है क्योंकि श्रेष्ठ पुत्रों के बिछड़ जाने से पिता को बड़ा कष्ट होता है। शिव की माया से मोहित होने से दक्ष को पुत्र वियोग के कारण बहुत शौक होने लगा। तब मैंने आकर अपने बेटे दक्ष को बड़े प्रेम से समझाया और सांत्वना दी। देव का विधान प्रबल होता है। ऐसी बातें बताकर उनके मन को शांत किया। मेरे सांत्वना देने पर दक्ष पुनः पंचजन्य कन्या असिक्नी के गर्भ से सबलास्व नाम के एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किए।
पिता का आदेश पाकर वे पुत्र भी प्रजा शृष्टि के लिए दृढ़ता पूर्वक का नियम ले उसी स्थान पर गए जा उनके सिद्धि को प्राप्त हुए बड़े भाई गए थे। नारायण सरोवर के जल का स्पर्श होने मात्र से उनके सारे पाप नष्ट हो गए, अन्तःकरण में शुद्धता आ गई और वे भी उत्तम व्रत के पालक सबलाशव प्रणव का जप करते हुए वहां बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्हें प्रजा श्रस्टी के लिए उद्यत जान तुम पुनः पहले की ही भांति ईश्वरीय गति का स्मरण करते हुए उनके पास गए और वही बात कहने लगे, जो भाइयों से पहले कह चुके थे। मुनि! तुम्हारा दर्शन अमोघ है। उनको भी भाइयों का ही मार्ग दिखाया। अतएव भाइयों के ही पद पर उत्तम गति को प्राप्त हुए। उसी समय प्रजापति दक्ष को बहुत से उत्पाद दिखाई दिए। इससे मेरे पुत्र दक्ष को बड़ा विस्मय हुआ और वे मन ही मन दुखी हुई। फिर उन्होंने पूर्ववर्ती तुम्हारी ही करतूत से अपने पुत्रों का नाश हुआ सुना, इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे पुत्र शोक से मूर्छित हो अत्यंत कष्ट का अनुभव करने लगे। दक्ष ने तुम पर बड़ा क्रोध किया और कहा यह नारद बड़ा दुष्ट है। दैववश उसी समय तुम दक्ष पर अनुग्रह करने के लिए वहां आ पहुंचे। तुम्हें देखते ही शोका आवेश से युक्त हुए दक्ष के ओठ रोष से फड़कने लगे। तुम्हें सामने पाकर वे धिक्कारने और निंदा करने लगे।
दक्ष ने कहा- ओ नीच! तुमने यह क्या किया? तुमने झूठ मूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। इसी के द्वारा ठगकर हमारे भोले वाले बालकों को जो तुमने भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है, अच्छा नहीं किया। तुम निर्दय और शठ हो। इसीलिए तुमने हमारे इन बालकों के जो ऋषि ऋण, देव ऋण और पित्र ऋण से मुक्त नहीं हो पाए थे।लोक और परलोक दोनों के श्रेय का नाश कर डाला। जो पुरुष इन तीनो ऋणों को तारे बिना ही मोक्ष की इच्छा मन में लिए माता पिता को त्याग कर घर से निकल जाता है, सन्यासी हो जाता है उसको अधोगति को प्राप्त होता है। तुम निर्दय और बड़े निर्लज्ज हो। बच्चों की बुद्धि में भेद पैदा करने हो और अपने सुयश को स्वयं ही नष्ट कर रहे हो। मूढमते! तुम भगवान विष्णु के पार्षदों में व्यर्थ ही घूमते फिरते हो। अधमाधम तुमने बारंबार मेरा अमंगल किया है। अतः आज से तीनों लोकों में विचर करते हुए तुम्हारे पैर कहीं स्थिर नहीं रहेगे अथवा कहीं भी तुम्हें ठहरने के लिए ठौर ठिकाना नहीं मिलेगा।

नारद! यद्यपि तुम साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित हो तथापि उस समय दक्ष ने शोक वश में तुम्हें शाप दे दिया। वे ईश्वर की इच्छा को नहीं समझ सके। शिव की माया ने उन्हें अत्यंत मोहित कर दिया था। मुने! तुमने उस शाप को चुपचाप ग्रहण कर लिया और अपने मन में विकार नहीं आने दिया। यही ब्रह्मा भाव है। ईश्वर कोटि के महात्मा पुरुष स्वयं शाप को मिटा देने में समर्थ होने पर भी उसे सह लेते हैं।

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अध्याय 14: राजा दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह

ब्रह्मा जी कहते हैं! देवर्षे! इसी समय दक्ष के इस बर्ताव को जानकर मैं भी वहां आ पहुंचा और पूर्ववत उन्हें शांत करने के लिए सांत्वना देने लगा। तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ाते हुए मैंने दक्ष के साथ तुम्हारा सुंदर स्नेह पूर्ण संबंध स्थापित कराया। तुम मेरे पुत्र हो देश। मुनियों मे श्रेष्ठ और संपूर्ण देवताओं के प्रिय हो। प्रेम से तुम्हें देख कर मैं फिर अपने स्थान पर आ गया।
तदनन्तर प्रजापति दक्ष ने मेरी अनुनय से अपनी पत्नी के गर्भ से साठ सुंदर कन्याओं को जन्म दिया। और आलस्य रहित हो धर्म आदि के साथ उन सब का विवाह भी कर दिया। मुनीश्वर! मैं उसी प्रसंग को बड़े प्रेम से कह रहा हूं सो सुनो। मुने! दक्ष ने अपने 10 कन्याएं विधि पूर्वक धर्म को ब्याह दी, तेरह कन्या कश्यप मुनि को दे दी, 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा के साथ कर दिया। भूत (बहुपुत्र), अंगिरा तथा कृशाश्व को उन्होंने दो दो कन्याएं दी और शेष 4 कन्याओं का विवाह है उन्होंने ताक्ष्र (अरिष्टनेमी) के साथ कर दिया। इन सब की संतान परंपराओं से तीनों लोक भरे पड़े हैं। विस्तार भय से उनका वर्णन नहीं किया जाता।
कुछ लोग शिवा या सती को दक्ष की जेष्ठ पुत्री बताते हैं। दूसरे लोग उन्हें मंझली पुत्री कहते हैं तथा कुछ लोग सबसे छोटी पुत्री मानते हैं। कल्प भेद से यह तीनों मत ठीक है। पुत्र और पुत्रियों की उत्पत्ति के पश्चात प्रजापति दक्ष ने बड़े प्रेम से मन ही मन जगदम्बिका का का ध्यान किया। साथ ही गदगद वाणी से प्रेम पूर्वक उनकी स्तुति भी की। बारंबार अंजलि बांध नमस्कार करके वे विनीत भाव से देवी को मस्तक झुकाते थे। देवी शिवा संतुष्ट हुई और अपने प्रण की पूर्ति के लिए मन ही मन यह विचार किया कि अब मैं वीरिणी के गर्भ से अवतार लूं। ऐसा विचार करके जगदंबिका दक्ष के ह्रदय में निवास करने लगी। मुनि श्रेष्ठ! उस समय दक्ष की बडी शोभा होने लगी। फिर उत्तम मुहूर्त देखकर दक्ष ने अपनी पत्नी में प्रसन्नता पूर्वक गर्भाधान किया। फिर दयालु शिवा दक्ष पत्नी के चित में निवास करने लगी। उनमें गर्भधारण के सभी चिन्ह प्रकट हो गए। तात! उस अवस्था में वीरिणी की शोभा बढ़ गई और चित्त में अधिक हर्ष हो गया। भगवती शिवा के निवास के प्रभाव से वीरिणी महामंगल रूपिणी हो गई। दक्ष ने अपने कुल संप्रदाय, वेद ज्ञान और हार्दिक उत्साह के अनुसार प्रसन्नता पूर्वक पुंसवन आदि संस्कार संबंधी श्रेष्ठ क्रियाएं संपन्न की। उन कर्मों के अनुष्ठान के समय महान उत्सव हुआ। प्रजापति ने ब्राह्मणों को अपनी इच्छा के अनुसार धन दिया।
इस अवसर पर वीरिणी मे देवी का निवास हुआ जानकर श्री विष्णु आदि सब देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सब ने वहां आकर जगदंबा का स्तवन किया और समस्त लोगों का उपकार करने वाली देवी शिवा को बारंबार प्रणाम किया। वे सब देवता प्रसन्न चित्त हो दक्ष प्रजापति तथा वीरिणी की भूरी भूरी प्रशंसा करके अपने स्थान को लौट गए। नारद! जब नो महीने बीत गए तब लौकीक गति का निर्वाह कराकर दसवें महीने के पूर्ण होने पर चन्द्रमा आदि ग्रहों व ताराओं की अनुकूलता से युक्त सुखद मुहुर्त में देवी शिवा शीघ्र ही अपनी माता के सामने प्रकट हुई। उनकी अवतार लेते ही प्रजापति दक्ष बड़े प्रसन्न हुए और महान तेज से देदीप्यमान देवी को देख उनके मन में यह विश्वास हो गया कि साक्षात वे शिवा देवी मेरी पुत्री के रूप में प्रकट हुई हैं। उस समय आकाश में फूलों की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। मुनेश्वर! शिवा के जन्म लेते ही संपूर्ण दिशा में तत्काल शांति छा गई। देवता आकाश में खड़े हो मांगलिक बाजे बजाने लगे। अग्निशालाओं की बुझी हुई अग्नि सहसा प्रज्वलित हो उठी और सब कुछ परम मंगलमय हो गया। वीरिणी के गर्भ से साक्षात् जगदंबा को प्रकट हुए देख दक्ष ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और भक्तभाव से उनकी बड़ी स्तुति की।
बुद्धिमान दक्ष की स्तुति करने पर जग माता शिवा उस समय दक्ष से इस प्रकार बोली, माता वीरिणी न सुन सके।
देवी बोली- प्रजापति! पुत्री रूप में मुझे प्राप्त करने के लिए मेरी आराधना की थी मनोरथ आज सिद्ध हो गया तुम कुछ तपस्या करो।
उस ऐसा कहकर देवी ने अपनी माया से शिशु रूप धारण कर लिया और शिशुओं का भाव प्रकट करती हुई वे वहां रोने लगी। बालिका का का रुदन सुनकर सभी स्त्रियां और दासिया बड़े वेग से प्रसन्नता पूर्वक वहां आ पहुंची। पुत्री का अलौकिक रूप देखकर उन सभी स्त्रियों को बड़ा हर्ष हुआ। नगर के सब लोग उस समय जय-जयकार करने लगे। गीत और वाद्य के साथ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। पुत्री का मुख देकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। दक्ष ने वैदिक और कुलोचित विधि पूर्वक अनुष्ठान किया। ब्राह्मणों को दान दिया दूसरों को भी धन बाटा। और यथोचित गान और नृत्य होने लगे। भांति भांति के मंगल कृतियों के साथ बहुत से बाजे बजने लगी। कुछ समय बाद दक्ष ने समस्त सद्गुणों की सत्ता से प्रशंसित होने वाली अपनी उस पुत्री का नाम प्रसन्नता पूर्वक उमा रखा। तदनंतर संसार में लोगों की ओर से उसके और भी नाम प्रचलित किए गए सब के सब महान मंगल दायक तथा विशेष है। समस्त दुखों का नाश करने वाले हैं। वीरिणी और महात्मा दक्ष अपनी पुत्री का पालन करने लगे तथा वह शुक्ल पक्ष की चंद्रकला के समान दिनोंदिन बढ़ने लगी। उत्तम गुण उसमें उसी तरह प्रवेश करने लगे उसके बाल चंद्रमा में भी समस्त मनोहारी कलाएं प्रविष्ट हो जाती हैं। दक्ष कन्या सखियों के बीच बैठी रहती तब अपने भाव में निमग्न होती थी तब भगवान शिव की मूर्ति को चित्रित करने लगती थी। मंगलमय सती जब उचित सुंदर गीत गाती हर एवं रूद्र नाम लेकर भगवान शिव का स्मरण किया करती थी।

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सती का भगवान शिव का स्मरण करना

इस अवसर पर वीरिणी मे देवी का निवास हुआ जानकर श्री विष्णु आदि सब देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सब ने वहां आकर जगदंबा का स्तवन किया और समस्त लोगों का उपकार करने वाली देवी शिवा को बारंबार प्रणाम किया। वे सब देवता प्रसन्न चित्त हो दक्ष प्रजापति तथा वीरिणी की भूरी भूरी प्रशंसा करके अपने स्थान को लौट गए। नारद! जब नो महीने बीत गए तब लौकीक गति का निर्वाह कराकर दसवें महीने के पूर्ण होने पर चन्द्रमा आदि ग्रहों व ताराओं की अनुकूलता से युक्त सुखद मुहुर्त में देवी शिवा शीघ्र ही अपनी माता के सामने प्रकट हुई। उनकी अवतार लेते ही प्रजापति दक्ष बड़े प्रसन्न हुए और महान तेज से देदीप्यमान देवी को देख उनके मन में यह विश्वास हो गया कि साक्षात वे शिवा देवी मेरी पुत्री के रूप में प्रकट हुई हैं। उस समय आकाश में फूलों की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। मुनेश्वर! शिवा के जन्म लेते ही संपूर्ण दिशा में तत्काल शांति छा गई। देवता आकाश में खड़े हो मांगलिक बाजे बजाने लगे। अग्निशालाओं की बुझी हुई अग्नि सहसा प्रज्वलित हो उठी और सब कुछ परम मंगलमय हो गया। वीरिणी के गर्भ से साक्षात् जगदंबा को प्रकट हुए देख दक्ष ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और भक्तभाव से उनकी बड़ी स्तुति की।
बुद्धिमान दक्ष की स्तुति करने पर जग माता शिवा उस समय दक्ष से इस प्रकार बोली, माता वीरिणी न सुन सके।
देवी बोली- प्रजापति! पुत्री रूप में मुझे प्राप्त करने के लिए मेरी आराधना की थी मनोरथ आज सिद्ध हो गया तुम कुछ तपस्या के करो।
उस ऐसा कहकर देवी ने अपनी माया से शिशु रूप धारण कर लिया और शिशुओं का भाव प्रकट करती हुई वे वहां रोने लगी। बालिका का का रुदन सुनकर सभी स्त्रियां और दासिया बड़े वेग से प्रसन्नता पूर्वक वहां आ पहुंची। पुत्री का अलौकिक रूप देखकर उन सभी स्त्रियों को बड़ा हर्ष हुआ। नगर के सब लोग उस समय जय-जयकार करने लगे। गीत और वाद्य के साथ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। पुत्री का मुख देकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। दक्ष ने वैदिक और कुलोचित विधि पूर्वक अनुष्ठान किया। ब्राह्मणों को दान दिया दूसरों को भी धन बाटा। और यथोचित गान और नृत्य होने लगे। भांति भांति के मंगल कृतियों के साथ बहुत से बाजे बजने लगी। कुछ समय बाद दक्ष ने समस्त सद्गुणों की सत्ता से प्रशंसित होने वाली अपनी उस पुत्री का नाम प्रसन्नता पूर्वक उमा रखा। तदनंतर संसार में लोगों की ओर से उसके और भी नाम प्रचलित किए गए सब के सब महान मंगल दायक तथा विशेष है। समस्त दुखों का नाश करने वाले हैं। वीरिणी और महात्मा दक्ष अपनी पुत्री का पालन करने लगे तथा वह शुक्ल पक्ष की चंद्रकला के समान दिनोंदिन बढ़ने लगी। उत्तम गुण उसमें उसी तरह प्रवेश करने लगे उसके बाल चंद्रमा में भी समस्त मनोहारी कलाएं प्रविष्ट हो जाती हैं। दक्ष कन्या सखियों के बीच बैठी रहती तब अपने भाव में निमग्न होती थी तब भगवान शिव की मूर्ति को चित्रित करने लगती थी। मंगलमय सती जब उचित सुंदर गीत गाती हर एवं रूद्र नाम लेकर भगवान शिव का स्मरण किया करती थी।

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अध्याय 15: सती की तपस्या से संतुष्ट देवताओं का कैलाश जाकर भगवान शिव का स्तवन करना

ब्रह्मा जी कहते हैं- नारद! एक दिन मैंने तुम्हारे साथ जाकर पिता के साथ खड़ी हुई सती को देखा। वह तीनों लोकों की सार भूता सुंदरी थी। उसके पिता ने मुझे नमस्कार करके तुम्हारा भी सत्कार किया। यह देख लोक लीला का अनुसरण करने वाली सती ने भक्ति और प्रसन्नता के साथ मुझको और तुम को भी प्रणाम किया। नारद! तदनंतर सती की ओर देखते हुए हम और तुम दक्ष के दिए हुए शुभ आसन पर बैठ गए। तत्पश्चात मैंने उस विनय शीला बालिका से कहा- सती! जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मन में भी एक मात्र जिनकी ही कामना है उन्हें सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव जी को तुम पति रूप में प्राप्त करो। जो तुम्हारे सिवा दूसरी किसी स्त्री को पत्नी रूप में न तो ग्रहण कर सके हैं नए करते हैं और ने भविष्य में ही ग्रहण करेंगे वही भगवान शिव तुम्हारे पति हों। वह तुम्हारे ही योग्य हैं दूसरे के नहीं।

नारद! सती से ऐसा कहकर मैं दक्ष के घर में देर तक ठहरा रहा। फिर उनसे विदा ले, मैं और तुम दोनों अपने अपने स्थान को चले आए। मेरी बात को सुनकर दक्ष को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी सारी मानसिक चिंता दूर हो गई और उन्होंने अपनी पुत्री को परमेश्वरी समझकर गोद में उठा लिया। इस प्रकार कुमारोचित सुंदर लीला विहार से सुशोभित होती हुई भक्तवत्सला सती जो मानव रूप धारण करके प्रकट हुई थी। कुमार अवस्था पार कर गई बाल्यावस्था बिताकर के युवावस्था को प्राप्त हुई सती अत्यंत तेज एवं शोभा से संपन्न हो संपूर्ण अंगों से मनोहर दिखाई देने लगी। लोकेश दक्ष ने देखा कि सती के शरीर में युवावस्था के लक्षण प्रकट होने लगे हैं तब उनके मन में यह चिंता हुई कि मैं महादेव जी के साथ इनका विवाह है कैसे करूं? सती स्वयं भी महादेव जी को पाने की प्रतिदिन अभिलाषा रखती थी। अतः पिता के मनोभाव को समझ कर वह माता के निकट गई। विशाल बुद्धि वाली सती रूपिणी परमेश्वरी शिवा ने अपनी माता वीरिणी से भगवान शंकर की प्रसन्नता के निमित्त तपस्या करने के लिए आज्ञा मांगी। माता की आज्ञा मिल गई। अतः दृढ़ता पूर्वक व्रत का पालन करने वाली सती ने महेश्वर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए अपने घर पर ही उनकी आराधना आरंभ की।

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देवताओं द्वारा सती को नमस्कार किया जाना

अश्विनी मास में नंदा (प्रतिपदा, सषष्ठी और एकादशी) में उन्होंने भक्ति पूर्वक थोड़े भात और नमक चढ़ाकर भगवान शिव का पूजन किया और उन्हें नमस्कार करके उसी नियम के साथ उस मास को व्यतीत किया। कार्तिक मास की चतुर्दशी को सजाकर रखे हुए मालपुओं से शिव की पूजा की और चिंतन करने लगी। मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को तिल, जौ और चावल से हर की पूजा करके ज्योतिर्मय दीप दिखाकर अथवा आरती करके सती दिन बिताती थी। पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रात भर जागरण करके प्रातः काल खिचड़ी का नैवेद्य लगावे शिव की पूजा करती थी। माघ मास की पुर्णिमा को रातभर जागकर सुबह नदी में नहाकर गीले वस्त्रों से ही भगवान शिव की पूजा करती थी। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को रात में जागरण करके उस रात्रि के चारों पहरों में शिव जी की विशेष पूजा करती और नटों द्वारा नाटक भी कराती थी। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को दिन रात शिव का स्मरण करती हुई समय बिताती और ढाक के फूलों तथा दवनो से भगवान शिव की पूजा करती थी। वैशाख शुक्ल तृतीया को सती तिल का आहार करके रहती और नए जौ के भात से रूद्र देव की पूजा करके उस महीने को बिताती थी। जेष्ठ की पूर्णिमा को रात में सुंदर वस्त्रों तथा भटकटैया के फूलों से शंकर जी की पूजा करके निराहार रहकर ही वह माह व्यतीत करती थी। आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को काले वस्त्र और भटकटैया के फूलों से रूद्र देव का पूजन करती थी। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को यज्ञोपवित वस्तुओं तथा कुश की पवित्री से शिव की पूजा किया करती थी। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को नाना प्रकार के फूलों और फलों से शिव का पूजन करके सती चतुर्दशी तिथि को केवल जल का आहार किया करती। भांति भांति के फूलों और उससे उत्पन्न होने वाले अन्नों द्वारा शिव की पूजा करती और महीने भर अत्यंत नियमित आहार करके केवल जप में लगी रहती थी। सभी महीनों में सारे दिन सती शिव की आराधना में ही रहती थी। अपने इस मानव रूप धारण करने वाली सती विधि पूर्वक उत्तम व्रत का पालन करती थी। इस प्रकार नंदाव्रत को पूर्ण रूप से समाप्त करके भगवान शिव में अनन्य भाव रखने वाली सती एकाग्र चित्त से बड़े प्रेम से भगवान शिव का ध्यान करने लगी तथा उस ज्ञान में निश्चल भाव से स्थित हो गई।

उन्हें इसी समय सब देवता और ऋषि, भगवान विष्णु और मुझ को आगे करके सती की तपस्या देखने के लिए गए। वहां आकर देवताओं ने देखा सती दूसरी सिद्धि के समान जान पड़ती हैं। भगवान शिव के ध्यान में निमग्न हो उस समय सिद्धावस्था को पहुंच गई थी। समस्त देवताओं ने बड़ी प्रसन्नता के साथ वहां दोनों हाथ जोड़कर सती को नमस्कार किया। उन्होंने भी मस्तक झुकाए तथा श्री हरि आदि के मन में प्रीति आई। श्री विष्णु आदि सब देवता और मुनि आश्चर्यचकित हो सती देवी की तपस्या की भूरी भूरी प्रशंसा करने लगे। फिर देवी को प्रणाम करके भी देवता और मुनि तुरंत ही गिरी श्रेष्ठ कैलाश को गए। जो भगवान शिव को बहुत ही प्रिय है। सावित्री के साथ मैं और लक्ष्मी के साथ भगवान वासुदेव भी प्रसन्नता पूर्वक महादेव जी के निकट गए। वहां जाकर भगवान शिव को देखते ही बड़े वेग से प्रणाम करके सब देवताओं ने दोनों हाथ जोड़ विनीत भाव से नाना प्रकार के स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति कर के अंत में कहा प्रभु आपकी सत्व, रज और तम नामक जो तीन शक्तियां हैं, उनके राग आदि वेग असह्य है। वेदत्रयी अथवा लोकत्रयी आप का स्वरूप है। आप शरणागत के पालक हैं और आपकी शक्ति बहुत बड़ी है, उसकी कहीं कोई सीमा नहीं है। आपको नमस्कार है। दुर्गापते! जिनकी इंद्रियां दुष्ट हैं वश में नहीं हो पाती उनके लिए आप की प्राप्ति का कोई मार्ग सुलभ नहीं है। आप सदा भक्तों के उद्धार में तत्पर रहते हैं आप का तेज छिपा हुआ है, आपको नमस्कार है। आपकी माया शक्ति रूपा जो अहम बुद्धि है उससे आत्मा का स्वरूप ढक गया है, अतः यह मूड बुद्धि जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आप की महिमा का पार पाना अत्यंत कठिन ही नहीं सर्वथा असंभव है। हम आप महाप्रभु को मस्तक झुकाते हैं।

ब्रह्मा जी कहते हैं- नारद! इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके श्री विष्णु आदि सब देवता उत्तम भक्ति से मस्तक झुकाया प्रभु शिव के आगे चुपचाप खड़े हो गए ।

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अध्याय 16: ब्रह्मा जी का रूद्रदेव से सती का विवाह करने का अनुरोध

ब्रह्मा जी कहते हैं- श्री विष्णु आदि देवताओं द्वारा की हुई उस स्तुति को सुनकर सबकी उत्पत्ति के हेतुभूत भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए व हंसने लगे। मुझ ब्रह्मा और विष्णु को अपनी अपनी पत्नी के साथ आया हुआ देख महादेव जी ने हम लोगों से यथोचित वार्तालाप किया और हमारी आगमन का कारण पूछा।
रूद्र बोले- हे हरे! हे विधे! तथा देवताओं और ऋषियों! आज निर्भय होकर यहां अपने आने का ठीक-ठीक कारण बताओ। तुम लोग यहां किसलिए आए हो और कौन सा कार्य आ पड़ा है? मैं सब सुनना चाहता हूं।
तुम्हारे द्वारा की गयी स्तुतिसे मेरा मन बहुत प्रसन्न है। मुने! महादेवजी के इस प्रकार पूछने पर
भगवान् विष्णु की आज्ञा से मैंने वार्तालाप आरम्भ किया।
मुझ ब्रह्मा ने कहा–देवदेव! महादेव!
करुणासागर! प्रभो ! हम दोनों इन देवताओं और ऋषियों के साथ जिस उद्देश्यसे यहाँ आये हैं, उसे सुनिये। वृषभध्वज! विशेषतः आपके ही लिये हमारा यहाँ आगमन हुआ है; क्योंकि हम तीनों सहार्थी हैं-सृष्टि- चक्र के संचालन रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक-दूसरे के सहायक हैं। सहार्थी को
सदा परस्पर यथायोग्य सहयोग करना चाहिये अन्यथा यह जगत् टिक नहीं सकता। महेश्वर!
कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे, जो मेरे हाथ से मारे जायँगे। कुछ भगवान् विष्णुके और
कुछ आपके हाथों नष्ट होंगे। महाप्रभो! कुछ असुर ऐसे होंगे, जो आपके वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र के हाथ से ही मारे जा सकेंगे।
प्रभो! कभी कोई विरले ही असुर ऐसे होंगे, जो माया के हाथों द्वारा वध को प्राप्त होंगे। आप भगवान् शंकरकी कृपा से ही देवताओं को सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा। घोर असुरों का विनाश करके आप जगत को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे अथवा यह भी सम्भव है कि आपके हाथ से
कोई भी असुर ने मारे जायँ; क्योंकि आप सदा योगयुक्त रहते हुए राग-द्वेषसे रहित हैं।
तथा एकमात्र दया करने में ही लगे रहते हैं। ईश! यदि वे असुर भी आराधित हों- आपकी दया से अनुगृहीत होते रहें तो सृष्टि और पालन का कार्य कैसे चल सकता है। अतः वृषभध्वज! आपको प्रतिदिन सृष्टि आदि के उपयुक्त कार्य करने के लिये उद्यत रहना चाहिये।

यदि सृष्टि, पालन और संहार- रूप कर्म न करने हों तब तो हमने माया से जो भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं, उनकी कोई उपयोगिता अथवा औचित्य ही नहीं है। वास्तव में हम तीनों एक ही हैं,
कार्यके भेदसे भिन्न-भिन्न देह धारण करके स्थित हैं। यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेद का कोई प्रयोजन ही नहीं है। देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। इस रूपभेद में उनकी अपनी माया ही कारण है। वास्तव में प्रभु स्वतन्त्र हैं। वे लीला के उद्देश्य से ही ये सृष्टि आदि कार्य करते हैं। भगवान श्रीहरि उनके बायें अंगसे प्रकट हुए हैं, मैं ब्रह्मा उनके दायें अंगसे प्रकट हुआ हूँ। और आप रुद्रदेव उन सदाशिव के हृदय से आविर्भूत हुए हैं; अतः आप ही शिव के पूर्ण रूप हैं। प्रभो ! इस प्रकार अभिन्न रूप होते हुए भी हम तीन रूपों में प्रकट हैं।
सनातनदेव ! हम तीनों उन्हीं भगवान् सदाशिव और शिवा के पुत्र हैं, इस यथार्थ तत्त्वका
आप हृदयसे अनुभव कीजिये। प्रभो! मैं और श्रीविष्णु आपके आदेश से प्रसन्नता- पूर्वक लोक की सृष्टि और पालन के कार्य कर रहे हैं तथा कार्य-कारणवश सपत्निक भी हो गये हैं; अतः आप भी विश्वहित के लिये तथा देवताओंको सुख पहुँचाने के लिये एक परम सुन्दरी रमणी को अपनी
पत्नी बनाने के लिये ग्रहण करें। महेश्वर! एक बात और है, उसे सुनिये; मुझे पहले के वृत्तान्त का स्मरण हो आया है। पूर्वकाल में आपने ही शिवरूप से जो बात हमारे सामने कही थी, वही इस समय सुना रहा हूँ। आपने कहा था, ‘ब्राहमन्! मेरा ऐसा ही उत्तम रूप तुम्हारे अंगविशेष-ललाट से
प्रकट होगा, जिसकी लोकमें ‘रुद्र’ नाम से प्रसिद्धि होगी। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हो गये, श्रीहरि जगत का पालन करने वाले हुए और मैं सगुण रुद्ररूप होकर संहार करने वाला होऊँगा। एक स्त्रीके साथ विवाह करके लोकके उत्तम कार्यकी सिद्धि करूंगा।’ अपनी कही हुई इस बात को याद करके
आप अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिये। स्वामिन् ! आपका यह आदेश है कि मैं सृष्टि करूँ, श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं संहार के हेतु बनकर प्रकट हों; सो आप साक्षात् शिव ही संहारकर्ता के रूप में प्रकट हुए हैं। आपके बिना हम दोनों अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हैं।
अतः आप एक ऐसी कामिनी को स्वीकार करें, जो लोकहितके कार्यमें तत्पर रहे। शम्भो ! जैसे लक्ष्मी भगवान विष्णु की और सावित्री मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप इस समय अपनी जीवनसहचरी प्राणवल्लभा को ग्रहण करें। यह बात सुनकर लोकेश्वर महादेवजी के मुखपर मुसकराहट दौड़ गयी। वे श्रीहरि के सामने मुझसे इस प्रकार बोले। ईश्वरने कहा—ब्रह्मन् ! हरे ! तुम दोनों
मुझे सदा ही अत्यन्त प्रिय हो। तुम दोनों को देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है। तुम लोग
समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा त्रिलोकी के स्वामी हो।

लोकहित के कार्य में मन लगाये रहने वाले तुम दोनों का वचन मेरी दृष्टि में अत्यन्त गौरवपूर्ण हैं। किंतु सुरश्रेष्ठगण! मेरे लिये विवाह करना उचित नहीं होगा; क्योंकि मैं तपस्या में संलग्न रहकर सदा संसार से विरक्त ही रहता हैं और योगी के रूप में मेरी प्रसिद्धि है। जो निवृत्ति के सुन्दर
मार्गपर स्थित है, अपने आत्मामें ही रमण करता-आनन्द मानता है, निरंजन (माया से
निर्लिप्त) है, जिसका शरीर अवधूत (दिगम्बर) है, जो ज्ञानी, आत्मदर्शी और कामना से शून्य है, जिसके मन में कोई विकार नहीं है, जो भोगों से दूर रहता है तथा जो सदा अपवित्र और अमंगलवेशधारी है, उसे संसार में कामिनी से क्या प्रयोजन है- यह इस समय मुझे बताओ तो सही! मुझे तो सदा केवल योग में लगे रहने पर ही आनन्द आता है। ज्ञानहीन पुरुष ही योग को छोड़कर भोग को अधिक महत्त्व देता है। संसार में विवाह करना पराये बन्धन में बँधना है। इसे
बहुत बड़ा बन्धन समझना चाहिये। इसलिये मैं सत्य-सत्य कहता हूँ, विवाहके लिये मेरे मन में थोड़ी-सी भी अभिरुचि नहीं है। आत्मा ही अपना उत्तम अर्थ या स्वार्थ है। उसका भली भाँति चिन्तन करने के कारण मेरी लौकिक स्वार्थ में प्रवृत्ति नहीं होती। तथापि जगत के हित के लिये तुमने जो कुछ कहा है, उसे करूंगा। तुम्हारे वचन को गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बात को पूर्ण करनेके लिये मैं अवश्य विवाह करूंगा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वश में रहता हूँ। परंतु मैं जैसी नारी को प्रिय पत्नी के रूपमें ग्रहण करूंगा और जैसी शर्त के साथ करूँगा, उसे सुनो। हरे! ब्रह्मन्! मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सर्वथा उचित ही है। जो नारी मेरे तेज को विभागपूर्वक ग्रहण
कर सके, जो योगिनी तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाली हो, उसी को तुम पत्नी बनाने के लिये मुझे बताओ। जब मैं योग में तत्पर रहूँ, तब उसे भी योगिनी बनकर रहना होगा और जब मैं कामासक्त होऊँ, तब उसे भी कामिनी के रूप में ही मेरे पास रहना होगा। वेदवेत्ता विद्वान् जिन्हें
अविनाशी बतलाते हैं, उन ज्योतिःस्वरूप सनातन शिवका मैं सदा चिन्तन करता हूँ और करता रहूँगा। ब्रह्मन्! उन सदाशिव के चिन्तन में जब मैं न लगा होऊँ तभी उस भामिनी के साथ मैं समागम कर सकता हूँ। जो मेरे शिवचिन्तन में विघ्न डालने वाली होगी, वह जीवित नहीं रह सकती, उसे अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ेगा। तुम, विष्णु और मैं तीनों ही ब्रह्मस्वरूप शिव के
अंशभूत हैं। अतः महाभागगण! हमारे लिये उनका निरन्तर चिन्तन करना ही उचित है। कमलासन! उनके चिन्तन के लिये मैं बिना विवाहके भी रह लूंगा। (किंतु उनका चिन्तन छोड़कर विवाह नहीं
करूंगा।) अतः तुम मुझे ऐसी पत्नी प्रदान करो, जो सदा मेरे कर्मके अनुकूल चल सके। ब्रह्मन्! उसमें भी मेरी एक और शर्त है, उसे तुम सुनो; यदि उस स्त्री का मुझ पर और मेरे वचनपर अविश्वास होगा तो मैं उसे त्याग दूंगा।

उनकी यह बात सुनकर मैंने और श्रीहरि ने मन्द मुसकान के साथ मन-ही-मन में प्रसन्नता का अनुभव किया; फिर मैं विनम्र होकर बोला- ‘नाथ! महेश्वर! प्रभो! में आपने जैसी नारी की खोज आरम्भ की है, में वैसी ही स्त्री के विषय में मैं आपको प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ। साक्षात् सदाशिव की धर्मपत्नी जो उमा हैं, वे ही जगत का कार्य सिद्ध करने के लिये भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट हुई हैं। प्रभो! सरस्वती और लक्ष्मी- ये दो रूप धारण करके वे पहले ही यहाँ आ चुकी हैं। इनमें लक्ष्मी तो श्रीविष्णु की प्राणवल्लभा हो गयी और सरस्वती मेरी। अब हमारे लिये वे तीसरा रूप धारण करके प्रकट हुई हैं। प्रभो! लोकहित का में कार्य करनेकी इच्छावाली देवी शिवा दक्ष पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। उनका नाम सती है। सती ही ऐसी भार्या हो सकती हैं, जो सदा आपके लिये हितकारिणी हो। देवेश! महातेजस्विनी सती आपके लिये, आपको पतिरूप में प्राप्त करने के
लिये दृढ़तापूर्वक कठोर व्रतका पालन करती हुई तपस्या कर रही हैं। महेश्वर! आप उन्हें वर देनेके लिये जाइये, कृपा कीजिये और बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें उनकी तपस्याके अनुरूप वर देकर उनके
साथ विवाह कीजिये। शंकर! भगवान विष्णु की, मेरी तथा इन सम्पूर्ण देवताओं की यही इच्छा है। आप अपनी शुभ दृष्टि से हमारी इस इच्छा को पूर्ण कीजिये, जिस से हम आदरपूर्वक इस उत्सव को देख सकें। ऐसा होने से तीनों लोकों में सुख देने वाला परम मंगल होगा और सबकी सारी चिन्ता
मिट जायगी, इसमें संशय नहीं है।’
तदनन्तर मेरी बात समाप्त होने पर लीला-विग्रह धारण करने वाले भक्तवत्सला महेश्वर से अच्युत ने इसका समर्थन किया।
तब भक्तवत्सला भगवान शंकर ने हंसकर कहा- ऐसा ही होगा। उनके ऐसा कहने पर हम दोनों उनसे आज्ञा ले अपनी पत्नी और देवताओं व मुनियों के साथ अत्यंत प्रसन्न हो अपने अभिष्ट स्थान को चले गए।

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अध्याय 17: भगवान शंकर द्वारा सती को दर्शन देना

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने! उधर सती ने आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को उपवास करके भक्तिभाव से सर्वेश्वर शिव का पूजन किया। इस प्रकार नन्दाव्रत पूर्ण होने पर नवमी तिथि को दिन में ध्यानमग्न हुई सती को भगवान शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया।
उनका श्रीविग्रह सर्वांगसुन्दर एवं गौरवर्ण का था। उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। भालदेशमें चन्द्रमा शोभा दे रहा था। उनका चित्त प्रसन्न था और कण्ठमें नील चिह्न दृष्टि गोचर होता था। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने हाथों में त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय धारण कर रखे थे। भस्ममय अंगराग से उनका सारा शरीर उद्धासित हो रहा था। गंगाजी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थीं। उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। वे महान् लावण्य के धाम जान पड़ते थे। उनके मुख करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान एवं आह्लादजनक थे। उनकी अंगकान्ति करोड़ों
कामदेवों को तिरस्कृत कर रही थी तथा उनकी आकृति स्त्रियों के लिये सर्वथा ही प्रिय थी। सतीने ऐसे सौन्दर्य-माधुर्यसे युक्त प्रभु महादेवजी को प्रत्यक्ष देखकर उनके चरणों की वन्दना की। उस समय उनका मुख लज्जा से झुका हुआ था। तपस्या के पुंजका फल प्रदान करने वाले महादेव जी उन्हीं के लिये कठोर व्रत धारण करनेवाली सती को पत्नी बनाने के लिये प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले।
महादेव जी ने कहा–उत्तम व्रत का पालन करने वाली दक्षनन्दिनि! मैं तुम्हारे इस व्रत से बहुत प्रसन्न हूँ। इसलिये कोई वर माँगो। तुम्हारे मनको जो अभीष्ट होगा, वही वर मैं तुम्हें दूंगा।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने! जगदीश्वर महादेव जी यद्यपि सती के मनोभाव को जानते थे तो भी उनकी बात सुननेके लिये बोले-‘कोई वर माँगो।’ परंतु सती लज्जा के अधीन हो गयी थीं; इसलिये उनके हृदय में जो बात थी, उसे वे स्पष्ट शब्दों में कह न सकीं। उनका जो अभीष्ट मनोरथ था, वह
लज्जा से आच्छादित हो गया। प्राणवल्लभ शिव का प्रिय वचन सुनकर सती अत्यन्त प्रेम में मग्न हो गयीं। इस बातको जानकर भक्तवत्सल भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और शीघ्रतापूर्वक बारंबार कहने लगे-
‘वर माँगो, वर माँगो।’ सत्पुरुषों के आश्रय भूत अन्तर्यामी शम्भु सती की भक्ति के वशीभूत हो गये थे।

तब सतीने अपनी लज्जा को रोक कर महादेवजी से कहा-‘वर देनेवाले प्रभो! मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ऐसा वर दीजिए जो टल न सके।’ भक्त- वत्सला भगवान शंकर ने देखा सती अपनी बात पूरी नहीं कह पा रही हैं, तब वे स्वयं ही उनसे बोले-‘देवि! तुम मेरी भार्या हो जाओ।’ अपने अभीष्ट फल को प्रकट करने वाले उनके इस वचन को सुनकर आनन्दमग्न हुई सती चुपचाप खड़ी रह गयीं; क्योंकि वे मनोवांछित वर पा चुकी थीं। फिर दक्ष कन्या प्रसन्न हो दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुका भक्तवत्सल शिव से बारंबार कहने लगीं।
सती बोलीं-देवाधिदेव महादेव! प्रभो! जगत्पते! आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण करें।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! सती की यह बात सुनकर भक्तवत्सल महेश्वर ने प्रेम से उनकी ओर देखकर कहा-‘प्रिये! ऐसा ही होगा।’ तब दक्षकन्या सती भी भगवान शिव को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक विदा माँग-जाने की आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनन्दसे युक्त हो माताके पास लौट गयीं। इधर भगवान शिव भी हिमालयपर अपने
आश्रम में प्रवेश करके दक्षकन्या सती के वियोग से कुछ कष्टका अनुभव करते हुए उन्हीं का चिन्तन करने लगे। देवर्षे! फिर मन को एकाग्र करके लौकिक गति का आश्रय ले भगवान् शंकरने मन-ही-मन मेरा स्मरण किया। त्रिशूलधारी महेश्वरके स्मरण करने पर उनकी सिद्धि से प्रेरित हो मैं तुरंत ही उनके सामने जा खड़ा हुआ। तात! हिमालय के शिखर पर जहाँ सती के वियोग का अनुभव करने वाले महादेव जी विद्यमान थे, वहीं मैं सरस्वती के साथ उपस्थित हो गया। देवर्षे! सरस्वती सहित
मुझे आया देख सतीके प्रेमपाश में बँधे हुए शिव उत्सुकता पूर्वक बोले। शम्भुने कहा-ब्रह्मन् ! मैं जबसे विवाह कार्यमें स्वार्थबुद्धि कर बैठा हूँ, तबसे अब मुझे इस स्वार्थमें ही स्वत्व-सा प्रतीत होता है। दक्षकन्या सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है। उसके नन्दाव्रत के प्रभाव से मैंने उसे अभीष्ट वर देनेकी घोषणा की। ब्रह्मन्! तब उसने
मुझसे यह वर माँगा कि ‘आप मेरे पति हो जाइये।’ यह सुनकर सर्वथा संतुष्ट हो मैंने भी कह दिया कि ‘तुम मेरी पत्नी हो जाओ।’ तब दाक्षायणी सती मझसे बोलीं- ‘जगत्पते! आप मेरे पिताको सूचित करके वैवाहिक विधिसे मुझे ग्रहण करें। ब्रह्मन् ! उसकी भक्ति से संतोष होने के कारण मैंने उसका वह अनुरोध भी स्वीकार कर लिया। विधातः! तब सती अपनी माताके घर चली गयी और मैं यहाँ चला। आया। इसलिये अब तुम मेरी आज्ञा से दक्ष के घर जाओ और ऐसा यत्न करो, जिससे प्रजापति दक्ष शीघ्र ही मुझे अपनी कन्या को दान कर दें। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सला विश्वनाथ से इस प्रकार बोला।
मुझ ब्रह्मा ने कहा-भगवन् ! शम्भो ! आपने जो कुछ कहा है, उसपर भलीभाँति विचार करके हम लोगों ने पहले ही उसे सुनिश्चित कर दिया है। वृषभध्वज! इसमें मुख्यतः देवताओं का और मेरा भी स्वार्थ है। दक्ष स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे, किंतु आपकी आज्ञा से मैं भी उनके सामने आपका संदेश कह दूंगा। सर्वेश्वर महाप्रभु महादेवजीसे ऐसा कहकर मैं अत्यन्त वेगशाली रथ के द्वारा दक्षके घर जा पहुँचा।
नारदजी ने पूछा–वक्ताओं में श्रेष्ठ महाभाग! विधातः! बताइये-जब सती घर पर लौटकर आयीं, तब दक्ष ने उनके लिये क्या किया?
ब्रह्माजी ने कहा-तपस्या करके मनोवांछित वर पाकर सती जब घर को लौट गयीं, तब वहाँ उन्होंने माता-पिताको प्रणाम किया। सतीने अपनी सखीके द्वारा माता- पिताको तपस्या-सम्बन्धी सब समाचार कहलवाया। सखी ने यह भी सूचित किया कि ‘सती को महेश्वर से वर की प्राप्ति हुई है, वे सतीकी भक्ति से बहुत संतुष्ट हुए हैं।’
सखी के मुँह से सारा वृत्तान्त सुनकर माता-पिता को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और उन्होंने महान उत्सव किया। उदारचेता दक्ष और महामनस्विनी वीरिणी ने ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार द्रव्य दिया तथा अन्यान्य अंधों और दीनों को भी धन बाँटा। प्रसन्नता बढ़ाने वाली अपनी पुत्री को हृदय से लगाकर माता वीरिणी ने उसका मस्तक सुंधा और आनन्दमग्न होकर उसकी बारंबार प्रशंसा की। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ दक्ष इस चिन्ता में पड़े कि ‘मैं अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान शंकर के साथ किस तरह करूं? महादेवजी प्रसन्न होकर आये थे, पर वे तो चले गये। अब मेरी पुत्री के लिये वे फिर कैसे यहाँ आयेंगे? यदि किसी को शीघ्र ही भगवान शिव के निकट भेजा जाय तो यह भी उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि यदि वे इस तरह अनुरोध करने पर भी मेरी पुत्रीको ग्रहण न करें तो मेरी याचना निष्फल हो जायगी।’
इस प्रकार की चिन्ता में पड़े हुए प्रजापति दक्ष के सामने मैं सरस्वती के साथ सहसा उपस्थित हुआ। मझ पिताको आया देख दक्ष प्रणाम करके विनीतभाव से खड़े हो गये। उन्होंने मुझ स्वयंभू को यथायोग्य आसन दिया। तदनन्तर दक्षने जब मेरे आने का कारण पूछा, तब मैंने सब बातें बताकर उनसे कहा-‘प्रजापते ! भगवान शंकर ने तुम्हारी पुत्री को प्राप्त करने के लिये निश्चय ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है; इस विषयमें जो श्रेष्ठ कृत्य हो, उसका निश्चय करो। जैसे सती ने नाना प्रकार के भावों से तथा सात्त्विक व्रत के द्वारा भगवान शिव की आराधना की है, उसी तरह वे भी सती की आराधना करते हैं। इसलिये दक्ष ! भगवान्शिव के लिये ही संकल्पित एवं प्रकट हुई अपनी इस पुत्री को तुम अविलम्ब उनकी सेवा में सौंप दो, इससे तुम कृतकृत्य हो जाओगे। मैं नारद के साथ जाकर उन्हें तुम्हारे घर ले आऊँगा। फिर तुम उन्हीं के लिये उत्पन्न हुई अपनी यह पुत्री उनके हाथ में दे दो।’
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्ष को बड़ा हर्ष हुआ। अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले-‘पिताजी!

ऐसा ही होगा।’ मुने ! तब मैं अत्यन्त हर्षित हो वहाँसे उस स्थानको लौटा, जहाँ लोक-कल्याण में तत्पर रहनेवाले भगवान शिव बड़ी उत्सुकतासे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। नारद ! मेरे लौट आनेपर स्त्री और पुत्री सहित प्रजापति दक्ष भी पूर्णकाम हो गये। वे इतने संतुष्ट हुए, मानो अमृत पीकर अघा गये हों।

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अध्याय 18 : सती और शिव का विवाह

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तदनन्तर मैं हिमालय के कैलास-शिखर पर रहने वाले परमेश्वर महादेव शिव को लाने के लिये प्रसन्नतापूर्वक उनके पास गया और उनसे इस प्रकार बोला-“वृषभध्वज ! सती के लिये मेरे पुत्र दक्ष ने जो बात कही है, उसे सुनिये और जिस कार्य को वे अपने लिये
असाध्य मानते थे, उसे सिद्ध हुआ ही समझिये। दक्ष ने कहा है कि मैं अपनी पुत्री भगवान शिव के ही हाथ में दूंगा; क्योंकि उन्हीं के लिये यह उत्पन्न हुई है। शिव के साथ सती का विवाह हो यह कार्य तो मुझे स्वतः ही अभीष्ट है; फिर आपके भी कहने से इसका महत्त्व और अधिक बढ़ गया। मेरी पुत्रीने स्वयं इसी उद्देश्यसे  भगवान शिव की आराधना की है और इस समय शिव जी भी मुझसे इसी के विषय में अन्वेषण (पूछताछ) कर रहे हैं; इसलिये मुझे अपनी कन्या अवश्य ही भगवान शिव के हाथ में देनी है। विधातः! वे भगवान् शंकर शुभ लग्न और शुभ मुहूर्त में यहाँ पधारें। उस समय मैं उन्हें शिक्षा के तौर पर अपनी यह पुत्री दे दूंगा।’ वृषभध्वज! मुझसे दक्ष ने ऐसी बात कही है। अतः आप शुभ मुहूर्त में उनके घर चलिये और सती को ले आइये।”
मुने! मेरी यह बात सुनकर भक्त- वत्सल रुद्र लौकिक गति का आश्रय ले हँसते हुए मुझ से बोले-‘संसार की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी! मैं तुम्हारे और नारदके साथ ही दक्ष के घर चलूंगा ! अतः नारदका स्मरण करो। अपने मरीचि आदि मानस पुत्रों को भी बुला लो। विधे! मैं उन सबके साथ दक्ष के निवास स्थान पर चलूंगा। मेरे पार्षद भी मेरे साथ रहेंगे।’ नारद! लोकाचार के निर्वाह में लगे हुए भगवान शिव के इस प्रकार आज्ञा देनेपर मैंने तुम्हारा और मरीचि आदि पुत्रों का भी
स्मरण किया। मेरे याद करते ही तुम्हारे साथ मेरे सभी मानस-पुत्र मनमें आदर की भावना लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे। उस समय तुम सब लोग हर्षसे उत्फुल्ल हो रहे थे। फिर रुद्रके स्मरण करने पर शिवभक्तों के सम्राट भगवान विष्णु भी अपने सैनिकों तथा कमलादेवी के साथ गरुड़पर आरूढ़
हो तुरंत वहाँ आ गये। तदनन्तर चैत्रमास के शक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि में रविवार को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमें मुझ ब्रह्मा और विष्णु आदि समस्त देवताओं के साथ महेश्वर ने विवाह के लिये यात्रा की। मार्गमें उन देवताओं और ऋषियों के साथ यात्रा करते हुए भगवान शंकर बड़ी शोभा पा रहे थे। वहाँ जाते हुए देवताओं, मुनियों तथा आनन्दमग्न मन वाले प्रमथगणों का रास्ते में बड़ा उत्सव हो रहा था। भगवान् शिव की इच्छा से वृषभ, व्याघ्र, सर्प, जटा और चन्द्रकला आदि सब-के- सब उनके लिये यथायोग्य आभूषण बन गये। तदनन्तर वेग से चलने वाले बलवान बलीवर्द नन्दिकेश्वर पर आरूढ़ हुए महादेव जी श्रीविष्णु आदि देवताओंको साथ लिये क्षणभरमें प्रसन्नतापूर्वक दक्षके घर जा पहुँचे।

वहाँ विनीत चित्त वाले प्रजापति दक्ष समस्त आत्मीय जनों के साथ भगवान शिव की अगवानी के लिये उनके सामने आये। उस समय उनके समस्त अंगों में हर्षजनित रोमांच हो आया था। स्वयं दक्षने अपने द्वार पर आये हुए समस्त देवताओंका सत्कार किया। सब लोग सुरश्रेष्ठ शिव को बैठाकर उनके पाश्र्वभाग में स्वयं भी मुनियों के साथ क्रमशः बैठ गये। इसके बाद दक्ष ने मुनियों सहित समस्त देवताओं की परिक्रमा की और उन सबके साथ भगवान शिव को घरके भीतर ले आये। उस समय दक्ष के मन में बड़ी प्रसन्नता थी। उन्होंने सर्वेश्वर शिव को उत्तम आसन देकर स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तत्पश्चात श्रीविष्णु का, मेरा, ब्राह्मणों का, देवताओं का
और समस्त शिवगणों का भी यथोचित विधि से उत्तम भक्तिभाव के साथ पूजन किया। इस तरह पूजनीय पुरुषों तथा अन्य लोगों सहित उन सबका यथोचित आदर-सत्कार करके दक्ष ने मेरे मानस-पुत्र मरीचि आदि मुनियोंके साथ आवश्यक सलाह की। इसके बाद मेरे पुत्र दक्ष ने मुझ पिता से मेरे चरणों में प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक कहा-‘प्रभो! आप ही वैवाहिक कार्य करायें।’
तब मैं भी हर्षभरे हृदयसे बहुत अच्छा कहकर उठा और वह सारा कार्य कराने लगा। तदनन्तर ग्रहों के बलसे युक्त शुभ लग्न और मुहूर्तमें दक्षने हर्षपूर्वक अपनी पुत्री सती का हाथ भगवान शंकर के हाथ में दे दिया। उस समय हर्ष से भरे हुए भगवान वृषभध्वज ने भी वैवाहिक विधि से सुन्दरी दक्षकन्या का पाणिग्रहण किया। फिर मैंने, श्रीहरि ने, तुम तथा अन्य मुनियोंने, देवताओं और प्रमथगणों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और सबने नाना प्रकारको स्तुतियों- द्वारा उन्हें संतुष्ट किया। उस समय नाच- गानके साथ महान् उत्सव मनाया गया। समस्त देवताओं और मुनियों को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। भगवान् शिवके लिये कन्यादान करके मेरे पुत्र दक्ष कृतार्थ हो गये। शिवा और शिव प्रसन्न हुए तथा सारा संसार मंगल का निकेतन बन गया।

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अध्याय 19: सती और शिव द्वारा अग्नि की परिक्रमा, विदा होकर कैलाश पर जाना।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! कन्यादान करके दक्ष ने भगवान शंकर को नाना प्रकार की वस्तुएँ दहेज में दीं। यह सब करके वे बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने ब्राह्मणों को भी नाना प्रकार के धन बाँटे। तत्पश्चात् लक्ष्मी- सहित भगवान विष्णु शम्भुके पास आ हाथ जोड़कर खड़े हुए और यों बोले- ‘देवदेव महादेव ! दयासागर ! प्रभो ! तात! आप सम्पूर्ण जगत्के पिता हैं और सती देवी सब की माता हैं। आप दोनों सत्पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के दमन के लिये सदा लीलापूर्वक अवतार ग्रहण करते हैं — यह सनातन श्रुति का कथन है। आप चिकने नील अंजन के समान शोभावाली सती के साथ जिस प्रकार शोभा पा रहे हैं, मैं उससे उलटे लक्ष्मी के साथ शोभा पा रहा हूँ- अर्थात सती नीलवर्णा तथा आप गौरवर्ण हैं, उससे उलटे मैं नीलवर्ण तथा लक्ष्मी गौरवर्णा हैं।’
नारद! मैं देवी सतीके पास आकर गृह्यसूत्रोक्त विधिसे विस्तार पूर्वक सारा अग्निकार्य कराने लगा। मुझ आचार्य तथा ब्राह्मणों की आज्ञा से शिवा और शिवने बड़े हर्षके साथ विधिपूर्वक अग्नि की परिक्रमा की। उस समय वहाँ बड़ा अद्भुत उत्सव मनाया गया। गाजे, बाजे और नृत्यके साथ होने वाला वह उत्सव सबको बड़ा सुखद जान पड़ा।

तदनन्तर भगवान् विष्णु बोले- सदाशिव! मैं आपकी आज्ञासे यहाँ शिवतत्त्व का वर्णन करता हूँ। समस्त देवता तथा दूसरे-दूसरे मुनि अपने मन को एकाग्र करके इस विषय को सुनें। भगवन! आप प्रधान और अप्रधान (प्रकृति और उससे अतीत ) हैं। आपके अनेक भाग हैं। फिर भी आप भागरहित हैं। ज्योतिर्मय स्वरूप वाले आप परमेश्वर के ही हम तीनों देवता अंश हैं। आप कौन, मैं कौन और ब्रह्मा कौन हैं? आप परमात्मा के ही ये तीन अंश हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण एक-दूसरेसे भिन्न प्रतीत होते हैं।
आप अपने स्वरूप का चिन्तन कीजिये। आपने स्वयं ही लीलापूर्वक शरीर धारण किया है। आप निर्गुण ब्रह्मरूप से एक हैं। आप ही सगुण ब्रह्म हैं और हम ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र-तीनों आपके अंश हैं। जैसे एक ही शरीर के भिन्न-भिन्न अवयव मस्तक, ग्रीवा आदि नाम धारण करते हैं तथापि उस शरीरसे वे भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार हम तीनों अंश आप परमेश्वर के ही अंग हैं। जो ज्योतिर्मय, आकाशके समान सर्वव्यापी एवं निर्लेप, स्वयं ही अपना धाम, पुराण, कूटस्थ, अव्यक्त, अनन्त, नित्य तथा दीर्घ आदि विशेषणों से रहित निर्विशेष ब्रह्म है, वही आप शिव हैं, अतः आप ही सब कुछ हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर! भगवान विष्णु की यह बात सुनकर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर उस विवाह-यज्ञ के स्वामी (यजमान) परमेश्वर शिव प्रसन्न हो लौकिकी गति का आश्रय ले हाथ जोड़कर खड़े हुए मुझ ब्रह्मासे प्रेमपूर्वक बोले।
शिव ने कहा—ब्रह्मन्! आपने सारा वैवाहिक कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करा दिया। अब मैं प्रसन्न हूँ। आप मेरे आचार्य हैं। बताइये, आपको क्या दक्षिणा दें! सुरज्येष्ठ! आप उस दक्षिणाको माँगिये।
महाभाग ! यदि वह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी उसे शीघ्र कहिये। मुझे आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है।

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अध्याय 20

मुने! भगवान शंकर का यह वचन सुनकर मैं हाथ जोड़ विनीत चित्त से उन्हें बारंबार प्रणाम करके बोला-‘देवेश! यदि आप प्रसन्न हों और महेश्वर! यदि मैं वर पाने के योग्य होऊँ तो प्रसन्नता पूर्वक जो बात कहता हैं, उसे आप पूर्ण कीजिये।
महादेव ! आप इसी रूपमें इसी वेदी पर सदा विराजमान रहें, जिससे आपके दर्शन से मनुष्यों के पाप धुल जायँ। चन्द्रशेखर ! आपका सांनिध्य होने से मैं इस वेदी के समीप आश्रम बनाकर तपस्या करूँ—यह मेरी अभिलाषा है। चैत्र के शुक्ल पक्ष को त्रयोदशी को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में रविवार के दिन इस भूतलपर जो मनुष्य भक्तिभाव से आपका दर्शन करे, उसके सारे पाप तत्काल नष्ट हो
जायँ, विपुल पुण्य की वृद्धि हो और समस्त रोगों का सर्वथा नाश हो जाय। जो नारी दुर्भगा, वन्ध्या, कानी अथवा रूपहीना हो, वह भी आपके दर्शनमात्र से ही अवश्य निर्दोष हो जाय।
मेरी यह बात उनकी आत्मा को सुख देने वाली थी। इसे सुनकर भगवान शिव ने प्रसन्नचित्त से कहा-‘विधातः! ऐसा ही होगा। मैं तुम्हारे कहने से सम्पूर्ण जगत के हितके लिये अपनी पत्नी सती के साथ इस वेदीपर सुस्थिर भाव से स्थित रहूंगा।’
ऐसा कहकर पत्नी सहित भगवान शिव अपनी अंशरूपिणी मूर्ति को प्रकट करके वेदी के मध्यभाग में विराजमान हो गये। तत्पश्चात् स्वजनों पर स्नेह रखने वाले परमेश्वर शंकर दक्ष से विदा ले अपनी पत्नी सती के साथ कैलास जाने को उद्यत हुए। उस समय उत्तम बुद्धि वाले दक्ष ने विनय से मस्तक झुका हाथ जोड़ भगवान वृषभध्वज की प्रेम- पूर्वक स्तुति की। फिर श्रीविष्णु आदि समस्त देवताओं, मुनियों और शिवगणों ने नमस्कारपूर्वक नाना प्रकारकी स्तुति करके बड़े आनन्द से जय-जयकार किया। तदनन्तर दक्षकी आज्ञा से भगवान शिव ने प्रसन्नता- पूर्वक सती को वृषभ की पीठ पर बैठाया और स्वयं भी उस पर आरूढ़ हो वे प्रभु हिमालय पर्वत की ओर चले। भगवान शंकर के समीप वृषभ पर बैठी हुई सुन्दर दाँत और मनोहर हास वाली सती अपने नील-श्यामवर्ण के कारण चन्द्रमा में नीली रेखाके समान शोभा पा रही थीं। उस समय उन नवदम्पति की शोभा देख श्रीविष्णु
आदि समस्त देवता, मरीचि आदि महर्षि तथा दूसरे लोग ठगे-से रह गये। हिल-डुल भी न सके तथा दक्ष भी मोहित हो गये।
तत्पश्चात् कोई बाजे बजाने लगे और दूसरे लोग मधुर स्वरसे गीत गाने लगे। कितने ही लोग प्रसन्नता पूर्वक शिव के कल्याणमय उज्ज्वल यशका गान करते हुए उनके पीछे पीछे चले। भगवान शंकर ने बीच रास्ते से दक्ष को प्रसन्नता पूर्वक लौटा दिया और स्वयं प्रेमाकुल हो प्रमथगणों के साथ अपने धाम को जा पहुँचे। यद्यपि भगवान शिव ने विष्णु आदि देवताओं को भी विदा कर दिया था, तो भी वे बड़ी प्रसन्नता और भक्तिके साथ पुनः उनके साथ हो लिये। उन सब देवताओं,
प्रमथगणों तथा अपनी पत्नी सती के साथ हर्षभरे शम्भु हिमालय पर्वत से सुशोभित अपने कैलास धाम में जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने देवताओं, मुनियों तथा दूसरे लोगों का बहुत आदर-सम्मान करके उन्हें प्रसन्नता पूर्वक विदा किया। शम्भु की आज्ञा ले वे विष्णु आदि सब देवता तथा मुनि नमस्कार और स्तुति करके मुखपर प्रसन्नता की छाप लिये अपने-अपने धाम को चले गये। सदाशिव का चिन्तन करनेवाले भगवान शिव भी अत्यन्त आनन्दित हो हिमालय के शिखर पर रहकर अपनी पत्नी दक्षकन्या सती के साथ विहार करने लगे।
सूतजी कहते हैं-मुनियो! पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भगवान शंकर और सती का जिस प्रकार विवाह हुआ, वह सारा प्रसंग मैंने तुमसे कह दिया। जो विवाह काल में, यज्ञ में अथवा किसी भी
शुभ कार्य के आरम्भ में भगवान शंकर की पूजा करके शान्तचित्त से इस कथा को सुनता है, उसका सारा कर्म तथा वैवाहिक आयोजन बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण होता है और दूसरे शुभ कर्म भी सदा निर्विघ्न पूर्ण होते हैं। इस शुभ उपाख्यान को प्रेमपूर्वक सुनकर विवाहित होने वाली कन्या भी सुख, सौभाग्य, सुशीलता और सदाचार आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न साध्वी स्त्री तथा पुत्रवती होती है।

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अध्याय 21: सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान शिव द्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्ति के स्वरूप का विवेचन

कैलास तथा हिमालय पर्वत पर श्रीशिव और सती के विविध विहारों का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा-मुने!
एक दिन की बात है, देवी सती एकान्त में भगवान शंकर से मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं। प्रभु शंकरको पूर्ण प्रसन्न जान नमस्कार करके विनीतभाव से खड़ी हुई दक्षकुमारी सती भक्तिभाव से अंजलि बाँधे बोलीं। सती ने कहा-देवदेव महादेव! करुणासागर ! प्रभो ! दीनोद्धारपरायण ! महायोगिन् ! मुझपर कृपा कीजिये। आप परम पुरुष हैं। सबके स्वामी हैं। रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणसे परे हैं। निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं। सबके साक्षी, निर्विकार
और महाप्रभु हैं। हर ! मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करने वाली आपकी प्रिया हुई।
स्वामिन् ! आप अपनी भक्तवत्सलता से ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ ! मैंने बहुत वर्षों तक आपके साथ विहार किया है। महेशान! इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हैं। और अब मेरा मन उधर से हट गया है। देवेश्वर हर! अब तो मैं उस परम तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो निरतिशय सुख प्रदान करने वाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःखसे अनायास ही
उद्धार पा सकता है। नाथ! जिस कर्म का अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पदको प्राप्त कर ले और संसार बन्धन में न बँधे, उसे आप बताइये, मुझपर कृपा कीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने! इस प्रकार
आदिशक्ति महेश्वरी सती ने केवल जीवों के उद्धार के लिये जब उत्तम भक्तिभाव के साथ भगवान शंकरसे प्रश्न किया, तब उनके उस प्रश्न को सुनकर स्वेच्छा से शरीर धारण करने वाले तथा योग के द्वारा भोग से विरक्त चित्तवाले स्वामी शिवने अत्यन्त प्रसन्न होकर सती से इस प्रकार कहा।
शिव बोले-देवि! दक्षनन्दिनि! महेश्वरि! सुनो; मैं उसी परमतत्त्वका वर्णन करता हूँ, जिससे वासना बद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है। परमेश्वरि !तुम विज्ञान को परमतत्व जानो। विज्ञान वह है, जिसके उदय होने पर ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है, ब्रह्म के सिवा दूसरी किसी वस्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती हैं। प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ है। इस त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म हैं। उस विज्ञानकी माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करने वाली है। वह मेरी कृपा से सुलभ होती है। भक्ति नौ प्रकार की बतायी गयी है। सती! भक्ति और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनों को ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्ति का विरोधी है, उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं ही होती। देवि ! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं
है।* सती ! वह भक्ति दो प्रकार की है-
सगुणा और निर्गुणा।

भक्तौ ज्ञाने न भेदो हि तत्कर्तः सर्वदा सुखम् । विज्ञानं न भवत्येव सति भक्तिविरोधिनः॥
भक्ताधीनः सदाहं वै तत्प्रभावाद् गृहेष्वपि । नीचान जातिहीनानां यामि देवि न संशयः॥
(शि० पु० रु० सं० स० खं० २३। १६-१७)

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अध्याय 22

जो वैधी (शास्त्र विधि से प्रेरित ) और स्वाभाविकी (हृदय के सहज अनुराग से प्रेरित ) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है। तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्न कोटि की मानी गयी है।
पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा-ये दोनों प्रकार की भक्तियाँ नैष्ठिकी और अनैष्ठिकी के भेद से दो भेद वाली हो जाती हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकारकी जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकार की कही गयी है। विद्वान पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेद से उसे अनेक प्रकार की मानते हैं। इन
द्विविध भक्तियोंके बहुत से भेद-प्रभेद होने के कारण इनके तत्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है। प्रिये! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा दोनों भक्तियोंके नौ अंग बताये हैं।
दक्षनन्दिनि! मैं उन नवों अंगों का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमसे सुनो। देवि! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण-ये विद्वानों ने भक्तिके नौ अंग माने हैं। शिवे! भक्ति के उपांग भी बहुत-से बताये गये हैं। देवि! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के पूर्वोक्त नवों अंगों के पृथक-पृथक लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। जो स्थिर आसन से बैठकर तन-मन आदि से मेरी कथा-कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नता- पूर्वक अपने श्रवणपुटों से उसके अमृतोपम रस का पान करता है, उसके इस साधन को ‘श्रवण’ कहते हैं। जो हृदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मो का चिन्तन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्च स्वर से उच्चारण करता है, उसके इस भजन- साधनको ‘कीर्तन’ कहते हैं। देवि! मुझ नित्य महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर जो संसार में निरन्तर निर्भय रहता है, उसी को स्मरण कहा गया है। अरुणोदय से लेकर हर समय सेव्यकी अनुकूलता का ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियों से जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही ‘सेवन’ नामक भक्ति है। अपने को प्रभु का किंकर समझ कर हृदयामृत के भोग से स्वामी का सदा प्रिय सम्पादन करना ‘दास्य’ कहा गया है। अपने धन-वैभवके अनुसार शास्त्रीय विधि से मुझ परमात्मा को सदा पाद्य आदि सोलह उपचारों का जो समर्पण करना है, उसे ‘अर्चन’ कहते हैं। मन से ध्यान और वाणी से वन्दनात्मक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक आठों अंगों से भूतल का स्पर्श करते हुए जो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है, उसे ‘वन्दन’ कहते हैं।
ईश्वर मंगल या अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगलके लिये ही है। ऐसा दृढ़ विश्वास रखना ‘सख्य’ भक्तिका लक्षण है। देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जाने वाली वस्तु है, वह सब भगवान की प्रसन्नता के लिये उन्हीं को समर्पित करके अपने निर्वाहके लिये भी कुछ बचाकर न रखना अथवा निर्वाह की चिन्तासे भी रहित हो जाना ‘आत्मसमर्पण कहलाता है। ये मेरी भक्तिके नौ अंग हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इनसे ज्ञान का प्राकट्य होता है तथा ये सब साधन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी भक्ति के बहुत-से उपांग भी कहे गये हैं, जैसे बिल्व आदि का सेवन आदि। इनको विचार से समझ लेना चाहिये।

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अध्याय 23

प्रिये! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है। यह ज्ञान-वैराग्य की जननी है और मुक्ति इसकी दासी है। यह सदा सब साधनों से ऊपर विराजमान है। इसके द्वारा सम्पूर्ण कर्मो के फल की प्राप्ति होती है। यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है। जिसके चित्तमें नित्य-निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यन्त प्यारा है। देवेश्वरि ! तीनों लोकों और चारों युगों में भक्तिके समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुग में तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है। देवि! कलियुग में प्रायः ज्ञान और वैराग्य के कोई ग्राहक नहीं हैं। इसलिये वे दोनों वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो गये हैं, परंतु भक्ति कलियुगमें तथा अन्य सब युगों में भी प्रत्यक्ष फल देने वाली है। भक्ति के प्रभाव से मैं सदा उसके वशमें रहता हूँ, इसमें संशय नहीं है। संसार में जो भक्तिमान पुरुष है, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ, उसके सारे विघ्नों को दूर हटाता हूँ। उस भक्त का जो शत्रु होता है, वह मेरे लिये दण्डनीय है इसमें संशय नहीं है। देवि! मैं अपने भक्तों का रक्षक हूँ। भक्त की रक्षा के लिये ही मैंने कुपित हो अपने नेत्रजनित अग्नि से काल को भी दग्ध कर डाला था।
प्रिये! भक्त के लिये मैं पूर्वकाल में सूर्यपर भी अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा था और शूल लेकर मैंने उन्हें मार भगाया था। देवि! भक्त के लिये मैंने सैन्य सहित रावण को भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया। सती ! देवेश्वरि ! बहुत कहने से क्या लाभ, मैं सदा ही भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति करने वाले पुरुष के अत्यन्त वश में हो जाता हूँ।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इस प्रकार भक्त का महत्व सुनकर दक्ष कन्या सती को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नता- पूर्वक भगवान शिव को मन-ही-मन प्रणाम किया। मुने! सती देवी ने पुनः भक्ति-काण्डविषयक शास्त्र के विषय में भक्ति- पूर्वक पूछा। उन्होंने जिज्ञासा की कि जो
लोकमें सुखदायक तथा जीवों के उद्धार के साधनों का प्रतिपादक है, वह शास्त्र कौन- सा है। उन्होंने यन्त्र-मन्त्र, शास्त्र, उसके माहात्म्य तथा अन्य जीवोद्धारक धर्ममय साधनों के विषय में विशेष रूप से जानने की इच्छा प्रकट की। सती के इस प्रश्न को सुनकर शंकर जी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जीवों के उद्धार के लिये सब शास्त्रों का प्रेमपूर्वक वर्णन किया। महेश्वर ने पाँचों अंगोंसहित तन्त्र शास्त्र, यन्त्र शास्त्र तथा भिन्न-भिन्न देवेश्वरों की महिमा का वर्णन किया।

मुनीश्वर ! इतिहास-कथासहित उन देवताओं के भक्तों की महिमा का, वर्णाश्रमधर्मो का तथा राजधर्मो का भी निरूपण किया। पुत्र और स्त्रीके धर्म की महिमा का, कभी नष्ट न होने वाले वर्णाश्रमधर्म का और जीवों को सुख देने वाले वैद्यक शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र का भी वर्णन किया। महेश्वर ने कृपा करके उत्तम सामुद्रिक शास्त्र का तथा और भी बहुत-से शास्त्रों का तत्त्वतः वर्णन किया। इस प्रकार लोकोपकार करनेके लिये सद्गुण सम्पन्न शरीर धारण करने वाले, त्रिलोक-सुखदायक और सर्वज्ञ सती-शिव हिमालय के कैलास शिखर पर तथा अन्यान्य स्थानों में नाना प्रकार की लीलाएँ करते थे। वे दोनों दम्पति साक्षात परब्रह्मस्वरूप हैं।

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अध्याय 24: श्रीराम के प्रति मस्तक झुकाते देख सती का मोह तथा श्रीराम की परीक्षा

नारदजी बोले—ब्रह्मन् ! विधे! प्रजानाथ! महाप्राज्ञ! दयानिधे! आपने भगवान शंकर तथा देवी सती के मंगलकारी सुयश का श्रवण कराया है। अब इस समय पुनः प्रेमपूर्वक उनके उत्तम यश का वर्णन कीजिये।
उन शिव-दम्पतिने वहाँ रहकर कौन-सा चरित्र किया था? ब्रह्माजी ने कहा-मुने! तुम मुझसे सती और शिव के चरित्र का प्रेम से श्रवण करो। वे दोनों दम्पति वहाँ लौकिकी गति का आश्रय ले नित्य-निरन्तर क्रीडा किया करते थे। तदनन्तर महादेवी सती को अपने पति शंकर का वियोग प्राप्त हुआ, ऐसा कुछ श्रेष्ठ बुद्धि वाले विद्वानों का कथन है। परंतु मुने! वास्तव में उन दोनों का परस्पर वियोग कैसे हो सकता है? क्योंकि वे दोनों वाणी और अर्थक समान एक-दूसरे से सदा मिले-जुले हैं, शक्ति और शक्तिमान हैं तथा चित्तस्वरूप हैं। फिर भी उनमें लीला-विषयक रुचि होने के कारण वह सब कुछ संघटित हो सकता है। सती और शिव यद्यपि ईश्वर हैं। तो भी लौकिक रीति का अनुसरण करके वे जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सब सम्भव हैं। दक्षकन्या सती ने जब देखा कि मेरे पतिने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्षके यज्ञ में गयीं और वहाँ भगवान शंकर का अनादर देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। वे ही सती पुनः हिमालय के घर पार्वती के नाम से प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने विवाह के द्वारा पुनः भगवान शिव को प्राप्त कर लिया।
सूतजी कहते हैं-महर्षियों! ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने विधाता से शिवा और शिव के महान यश के विषय में इस प्रकार पूछा।
नारदजी बोले–महाभाग विष्णु शिष्य! विधातः! आप मुझे शिवा और शिव के भाव तथा आचार से सम्बन्ध रखने वाले उनके चरित्र को विस्तार पूर्वक सुनाइये। तात ! भगवान शंकर ने अपने प्राणों से भी प्यारी धर्मपत्नी सती का किस लिये त्याग किया? यह घटना तो मुझे बड़ी विचित्र जान पड़ती है। अतः इसे आप अवश्य कहें। अज! आपके पुत्र दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का अनादर कैसे हुआ? और वहाँ पिता के यज्ञ में जाकर सती ने अपने शरीर का त्याग किस प्रकार किया? उसके बाद वहाँ क्या हुआ? भगवान महेश्वर ने क्या किया? ये सब बातें मुझसे कहिये। इन्हें सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है।

ब्रह्माजी ने कहा- मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ! महाप्राज्ञ ! तात नारद! तुम महर्षियों के साथ बड़े प्रेम से भगवान चन्द्रमौलि का यह चरित्र सुनो। श्रीविष्णु आदि देवताओं से सेवित परब्रह्म महेश्वर को नमस्कार करके मैं उनके महान अद्भुत चरित्र का वर्णन आरम्भ करता हैं। मुने! यह सब भगवान शिव की लीला ही है। वे प्रभु अनेक प्रकार की लीला करनेवाले, स्वतन्त्र और निर्विकार हैं। देवी सती भी वैसी ही हैं। अन्यथा वैसा कर्म करने में कौन समर्थ हो सकता है। परमेश्वर शिव ही परब्रह्म परमात्मा हैं।
एक समय की बात है, तीनों लोकों में विचरने वाले लीलाविशारद भगवान् रुद्र सती के साथ बैलपर आरूढ़ हो इस भूतल पर भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ उन्होंने लक्ष्मण सहित भगवान श्रीराम को देखा, जो रावण द्वारा छलपूर्वक हरी गयी अपनी प्यारी पत्नी सीता की खोज कर रहे थे। वे ‘हा सीते!’ ऐसा उच्च स्वर से पुकारते, जहाँ-तहाँ देखते और बारंबार रोते थे। उनके मनमें विरहका आवेश छा गया था। सूर्यवंश में उत्पन्न, वीरभूपाल, दशरथनन्दन, भरताग्रज श्रीराम आनन्दरहित हो लक्ष्मण के साथ वनमें भ्रमण कर रहे थे और उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। उस समय उदारचेता पूर्णकाम भगवान शंकर ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया और जय-जयकार करके वे दूसरी ओर चल दिये। भक्तवत्सला शंकर ने उस वन में श्रीराम के सामने अपनेको प्रकट नहीं किया। भगवान शिव की मोह में डालने वाली ऐसी लीला देख सती को बड़ा विस्मय हुआ। वे उनकी माया से मोहित हो उनसे इस प्रकार बोलीं।
सतीने कहा–देवदेव सर्वेश! परब्रह्म परमेश्वर! ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवता आपकी ही सदा सेवा करते हैं। आप ही सबके द्वारा प्रणाम करने योग्य हैं। सबको आपका ही सर्वदा सेवन और ध्यान करना चाहिये। वेदान्त-शास्त्रके द्वारा यत्नपूर्वक जानने योग्य निर्विकार परमप्रभु आप ही हैं।
नाथ! ये दोनों पुरुष कौन हैं। इनकी आकृति विरहव्यथा से व्याकुल दिखायी देती है। ये दोनों धनुर्धर वीर वनमें विचरते हुए क्लेश के भागी और दीन हो रहे हैं। इनमें जो ज्येष्ठ है, उसकी अंगकान्ति नीलकमल के समान श्याम है। उसे देखकर किस कारण से आप आनन्द विभोर हो उठे थे? आपका चित्त क्यों अत्यन्त प्रसन्न हो गया था ? आप इस समय भक्त के समान विनम्र क्यों हो गये थे? स्वामिन्! कल्याणकारी शिव! आप मेरे संशयको सुनें। प्रभो! सेव्य स्वामी अपने सेवक को प्रणाम करे, यह उचित नहीं जान पड़ता।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! कल्याणमयी परमेश्वरी आदिशक्ति सती देवी ने शिव की माया के वशीभूत होकर जब भगवान शिव से इस प्रकार प्रश्न किया, तब सती की वह बात सुनकर लीलाविशारद परमेश्वर शंकर हँसकर उनसे इस प्रकार बोले।
परमेश्वरने कहा-देवि ! सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक यथार्थ बात कहता हूँ। इसमें छल नहीं है। वरदानके प्रभावसे ही मैंने इन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया है। प्रिये ! ये दोनों भाई वीरों द्वारा सम्मानित हैं। इनके नाम हैं-श्रीराम और लक्ष्मण। इनका प्राकट्य सूर्यवंश में हुआ है। ये दोनों राजा दशरथ के विद्वान् पुत्र हैं। इनमें जो गोरे रंगके छोटे बन्धु हैं, वे साक्षात शेष के अंश हैं। उनका नाम लक्ष्मण है। इनके बड़े भैया का नाम श्रीराम है। इनके रूप में भगवान विष्णु ही अपने सम्पूर्ण अंश से प्रकट हुए हैं। उपद्रव इनसे दूर ही रहते हैं। ये साधु पुरुषों की रक्षा और हम लोगों के कल्याण के लिये इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं! ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता भगवान् शम्भु चुप हो गये। भगवान् शिवकी ऐसी बात सुनकर भी सतीके मनको इस पर विश्वास नहीं हुआ। क्यों न हो, भगवान शिव की माया बड़ी प्रबल हैं, वह सम्पूर्ण त्रिलोकी को मोह में डाल देने वाली है। सतीके मनमें मेरी बातपर विश्वास नहीं है, यह जानकर लीलाविशारद प्रभु सनातन शम्भु यों बोले।
शिवने कहा-देवि! मेरी बात सुनो। यदि तुम्हारे मन में मेरे कथन पर विश्वास नहीं है तो तुम वहाँ जाकर अपनी ही बुद्धि से श्रीरामकी परीक्षा कर लो। प्यारी सती! जिस प्रकार तुम्हारा मोह या भ्रम नष्ट हो जाय, वह करो। तुम वहाँ जाकर परीक्षा करो। तबतक मैं इस बरगद के नीचे खड़ा हूँ।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! भगवान शिवकी आज्ञा से ईश्वरी सती वहाँ गयीं और मन-ही-मन यह सोचने लगीं कि ‘मैं वनचारी रामकी कैसे परीक्षा करूं, अच्छा, मैं सीता का रूप धारण कर के राम के पास चलें। यदि राम साक्षात् विष्णु हैं, तब तो सब कुछ जान लेंगे; अन्यथा वे मुझे नहीं पहचानेंगे।’
ऐसा विचार सती सीता बनकर श्रीराम के समीप उनकी परीक्षा लेने के लिये गयीं। वास्तव में वे मोह में पड़ गयी थीं। सती को सीता के रूप में सामने आयी देख शिव-शिव का जप करते हुए रघुकुल नन्दन श्रीराम सब कुछ जान गये और हँसते हुए उन्हें नमस्कार करके बोले। श्रीरामने पूछा-सतीजी! आपको नमस्कार है। आप प्रेमपूर्वक बतायें, भगवान शम्भु कहाँ गये हैं? आप पति के बिना अकेली ही इस वनमें क्यों कर आयीं? देवि! आपने अपना रूप त्यागकर किस लिये यह नूतन रूप धारण किया है? मुझ पर कृपा करके इसका कारण बताइये। श्रीरामचन्द्र जी की यह बात सुनकर सती
उस समय आश्चर्यचकित हो गयीं। वे शिवजीकी कही हुई बातका स्मरण करके और उसे यथार्थ समझकर बहुत लज्जित हुई। श्रीरामको साक्षात विष्णु जान अपने रूप को प्रकट करके मन-ही-मन भगवान शिवके चरणारविन्दों का चिन्तन कर प्रसन्नचित्त हुई सती उनसे इस तरह बोली-
‘रघुनन्दन! स्वतन्त्र परमेश्वर भगवान शिव मेरे तथा अपने पार्षदोंके साथ पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इस वनमें आ गये थे। यहाँ उन्होंने सीता की खोज में लगे हुए लक्ष्मण सहित तुमको देखा। उस समय सीताके लिये तुम्हारे मनमें बड़ा क्लेश था और तुम विरहशोक से पीड़ित दिखायी देते थे। उस अवस्था में तुम्हें प्रणाम करके वे चले गये और उस वटवृक्ष के नीचे अभी खड़े ही हैं। भगवान शिव बड़े आनन्द के साथ तुम्हारे वैष्णवरूप की उत्कृष्ट महिमा का गान कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने तुम्हें चतुर्भुज विष्णुके रूपमें नहीं देखा तो भी तुम्हारा दर्शन करते ही वे आनन्द विभोर हो गये। इस निर्मल रूपकी ओर देखते हुए उन्हें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। इस विषय में मेरे पूछने पर भगवान शम्भु ने जो बात कही, उसे सुनकर मेरे मन में भ्रम उत्पन्न हो गया। अतः राघवेन्द्र! मैंने उनकी आज्ञा लेकर तुम्हारी परीक्षा की है। श्रीराम! अब मुझे ज्ञात हो गया कि तुम साक्षात विष्णु हो।
तुम्हारी सारी प्रभुता मैंने अपनी आँखों देख ली। अब मेरा संशय दूर हो गया तो भी महामते ! तुम मेरी बात सुनो। मेरे सामने यह सच-सच बताओ कि तुम भगवान शिव के भी वन्दनीय कैसे हो गये? मेरे मन में यही एक संदेह है। इसे निकाल दो और शीघ्र ही मुझे पूर्ण शान्ति प्रदान करो।’
सतीका यह वचन सुनकर श्रीराम के नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान खिल उठे। उन्होंने मन-ही-मन अपने प्रभु भगवान शिवका स्मरण किया। इससे उनके हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गयी। मुने! आज्ञा न होने के कारण वे सतीके साथ भगवान शिव के निकट नहीं गये तथा मन-ही-मन उनकी महिमा का वर्णन करके श्रीरघुनाथजी ने सती से कहना प्रारम्भ किया।

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अध्याय 25 : श्रीराम का सती के मन का संदेह दूर करना, सती का शिव के द्वारा मानसिक त्याग

श्रीराम बोले–देवि! प्राचीनकाल में एक समय परम सृष्टा भगवान शम्भु ने अपने परात्पर धाम में विश्वकर्मा को बुलाकर उनके द्वारा अपनी गोशाला में एक रमणीय भवन बनवाया, जो बहुत ही विस्तृत था। उसमें एक श्रेष्ठ सिंहासन का भी निर्माण कराया। उस सिंहासन पर भगवान शंकर ने
विश्वकर्मा द्वारा एक छत्र बनवाया, जो बहुत ही दिव्य, सदाके लिये अद्भुत और परम उत्तम था। तत्पश्चात उन्होंने सब ओरसे इन्द्र आदि देवगणों, सिद्धों, गन्धर्वो, नागादि कों तथा सम्पूर्ण उपदेवों को भी शीघ्र वहाँ बुलवाया। समस्त वेदों और आगमों को, पुत्रों सहित ब्रह्माजी को, मुनियों को तथा अप्सराओं सहित समस्त देवियों को, जो नाना प्रकार की वस्तुओं से सम्पन्न थीं, आमन्त्रित किया। इनके सिवा देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागोंकी सोलह-सोलह कन्याओं को भी बुलवाया, जिनके हाथों में मांगलिक वस्तुएँ थीं। मुने! वीणा, मृदंग आदि नाना प्रकार के वाद्यों को बजवा कर
सुन्दर गीतों द्वारा महान उत्सव रचाया। सम्पूर्ण ओषधियों के साथ राज्याभिषेक के योग्य द्रव्य एकत्र किये गये। प्रत्यक्ष तीर्थो के जलोंसे भरे हुए पाँच कलश भी मँगवाये गये। इनके सिवा और भी बहुत-सी दिव्य सामग्रियों को भगवान शंकर ने अपने पार्षदों द्वारा मँगवाया और वहाँ उच्च स्वर से वेद मन्त्रों का घोष करवाया।
देवि! भगवान् विष्णु को पूर्ण भक्ति से महेश्वरदेव सदा प्रसन्न रहते थे। इसलिये उन्होंने प्रीतियुक्त हृदय से श्रीहरि को वैकुण्ठ से बुलवाया और शुभ मुहूर्त में श्रीहरि को उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठाकर महादेव जी ने स्वयं ही प्रेमपूर्वक उन्हें सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया। उनके मस्तक पर मनोहर मुकुट बाँधा गया और उनसे मंगल-कौतुक कराये गये। यह सब से जानेके बाद महेश्वर ने स्वयं ब्रह्माण्ड मण्डप में श्रीहरि का अभिषेक किया और उन्हें अपना वह सारा ऐश्वर्य प्रदान किया, जो दूसरोंके पास नहीं था।
तदनन्तर स्वतन्त्र ईश्वर भक्तवत्सला शम्भु ने श्रीहरि का स्तवन किया और अपनी पराधीनता
(भक्तपरवशता) को सर्वत्र प्रसिद्ध करते हुए वे लोककर्ता ब्रह्मासे इस प्रकार बोले। महेश्वर ने कहा-लोकेश! आज से मेरी आज्ञा के अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये। इस बात को सभी सुन रहे हैं। तात! तुम सम्पूर्ण देवता आदि के साथ इन श्रीहरिको प्रणाम करो और ये वेद मेरी आज्ञासे मेरी ही तरह इन श्रीहरि का वर्णन करें।
श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं-देवि! भगवान विष्णु को शिव भक्ति देखकर प्रसन्नचित्त हुए वरदायक भक्तवत्सला रुद्रदेव ने उपर्युक्त बात कहकर स्वयं ही श्रीगरुडध्वज को प्रणाम किया। तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवताओं, मुनियों और सिद्ध आदिने भी उस समय श्रीहरि की वन्दना की। इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न हुए भक्तवत्सला महेश्वर ने देवताओं के समक्ष श्रीहरि को बड़े-बड़े वर प्रदान किये। महेश बोले- हरे! तुम मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण लोकोंके कर्ता, पालक और संहारक होओ। धर्म, अर्थ और काम के दाता तथा दुर्नीति अथवा अन्याय करने वाले दुष्टों को दण्ड देने वाले होओ; महान बल-पराक्रम से सम्पन्न, जगत्पूज्य जगदीश्वर बने रहो। समरांगण में तुम कहीं भी जीते नहीं जा सकोगे। मुझसे भी तुम कभी पराजित नहीं होओगे। तुम मुझसे मेरी दी हुई तीन प्रकार की शक्तियाँ ग्रहण करो। एक तो इच्छा आदि की सिद्धि, दूसरी नाना प्रकार की लीलाओं को प्रकट करने की शक्ति और तीसरी तीनों लोकोंमें नित्य स्वतन्त्रता। हरे! जो तुमसे द्वेष करने वाले हैं, वे निश्चय ही मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक दण्डनीय होंगे। विष्णो ! मैं तुम्हारे भक्तों को उत्तम मोक्ष प्रदान करूंगा।
तुम इस मायाको भी ग्रहण करो, जिसका निवारण करना देवता आदिके लिये भी कठिन है तथा जिससे मोहित होने पर यह विश्व जडरूप हो जायगा। हरे! तुम मेरी बायीं भुजा हो और विधाता दाहिनी भुजा हैं। तुम इन विधाताके भी उत्पादक और पालक होओगे। मेरा हृदयरूप जो रुद्र है, वही मैं हूँ इसमें संशय नहीं है। वह रुद्र तुम्हारा और ब्रह्मा आदि देवताओं का भी निश्चय ही पूज्य है। तुम यहाँ रहकर विशेष रूप से सम्पूर्ण जगत का पालन करो। नाना प्रकार की लीलाएँ करने वाले विभिन्न अवतारों से सदा सबकी रक्षा करते रहो। मेरे चिन्मय धाममें तुम्हारा जो यह परम वैभवशाली और अत्यन्त उज्ज्वल स्थान है, वह गोलोक नाम से विख्यात होगा। हरे! भूतलपर जो तुम्हारे अवतार होंगे, वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे। मैं उनका अवश्य दर्शन करूंगा। वे मेरे वर से सदा प्रसन्न रहेंगे।
श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं देवि! इस प्रकार श्रीहरि को अपना अखण्ड ऐश्वर्य सौंपकर उमावल्लभ भगवान हर स्वयं कैलास पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदोंके साथ स्वच्छन्द क्रीडा करते हैं। तभीसे भगवान लक्ष्मीपति वहाँ गोपवेष धारण करके आये और गोप- गोपी तथा गौओं के अधिपति होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे। वे श्रीविष्णु प्रसन्नचित्त हो समस्त जगत की रक्षा करने लगे। वे शिव की आज्ञा से नाना प्रकार के अवतार ग्रहण करके जगत्का पालन करते हैं। इस समय वे ही श्रीहरि भगवान शंकर की आज्ञा से चार भाइयों के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। उन चार भाइयों में सबसे बड़ा मैं राम हूँ, दूसरे भरत हैं, तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न हैं। देवि! मैं पिता की आज्ञा से
सीता और लक्ष्मण के साथ वन में आया था। यहाँ किसी निशाचरने मेरी पत्नी सीता को हर लिया है और मैं विरही होकर भाई के साथ इस वन में अपनी प्रिया का अन्वेषण करता हूँ। जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब सर्वथा मेरा कुशल-मंगल ही होगा। माँ सती ! आपकी कृपा से ऐसा होने में कोई संदेह नहीं हैं। देवि! निश्चय ही आपकी ओरसे मुझे सीता की प्राप्तिविषयक वर प्राप्त होगा। आपके अनुग्रह से उस दु:ख देने वाले पापी राक्षस को मारकर मैं सीता को अवश्य प्राप्त करूंगा। आज मेरा महान सौभाग्य है जो आप दोनोंने मुझपर कृपा की। जिसपर आप दोनों दयालु हो जायें, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है। इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याणमयी सती देवी को प्रणाम करके रघुकुल शिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञा से उस वन में विचरने लगे। पवित्र हृदय वाले श्रीरामकी यह बात सुनकर सती मन-ही- मन शिवभक्ति परायण रघुनाथजी की प्रशंसा करती हुई बहुत प्रसन्न हुई। पर अपने कर्मको याद करके उनके मनमें बड़ा शोक हुआ। उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी।
वे उदास होकर शिवजीके पास लौटीं। मार्ग में जाती हुई देवी सती बारंबार चिन्ता करने लगीं कि मैंने भगवान शिव की बात नहीं मानी और श्रीराम के प्रति कुत्सित बुद्धि कर ली। अब शंकरजी के पास जाकर उन्हें क्या उत्तर देंगी। इस प्रकार बारंबार विचार करके उन्हें उस समय बड़ा पश्चाताप हुआ। शिव के समीप जाकर सती ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया। उनके मुखपर विषाद छा रहा था। वे शोक से व्याकुल और निस्तेज हो गयी थीं। सती को दुःखी देख भगवान हरने उनका कुशल- समाचार पूछा और प्रेमपूर्वक कहा–’ तुमने किस प्रकार परीक्षा ली?’ उनकी यह बात सुनकर सती मस्तक झुकाये उनके पास खड़ी हो गयीं। उनका मन शोक और विषाद में डूबा हुआ था। भगवान महेश्वर ने ध्यान लगाकर सतीका सारा चरित्र जान लिया और उन्हें मनसे त्याग दिया। वेदधर्म का प्रतिपालन करनेवाले परमेश्वर शिवने अपनी पहले की की हुई प्रतिज्ञा को नष्ट नहीं होने दिया। सती का मन से त्याग करके वे अपने निवासभूत कैलास पर्वत पर चले गये। मार्ग में महेश्वर और सती को सुनाते हुए आकाशवाणी बोली-‘परमेश्वर ! तुम धन्य हो और तुम्हारी यह प्रतिज्ञा भी धन्य है। तीनों लोकों में तुम्हारे-जैसा मह्मयोगी और महाप्रभु दूसरा कोई नहीं है।’ वह आकाशवाणी सुनकर देवी सती- की कान्ति फीकी पड़ गयी। उन्होंने भगवान शिवसे पूछा-‘नाथ! मेरे परमेश्वर! आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है? बताइये।’
सती के इस प्रकार पूछने पर भी उनका हित चाहने वाले प्रभुने पहले अपने विवाह के विषय में भगवान विष्णु के सामने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे नहीं बताया। मुने! उस समय सती ने अपने प्राणवल्लभ पति भगवान शिव का ध्यान करके उस समस्त कारण को जान लिया, जिससे उनके प्रियतम ने उन्हें त्याग दिया था। ‘शम्भुने मेरा त्याग कर दिया’ इस बात को जानकर दक्षकन्या सती शीघ्र ही अत्यन्त शोक में डूब गयीं और बारंबार सिसकने लगीं। सती के मनोभाव को जानकर शिव ने उनके लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे गुप्त ही रखा और वे दूसरी-दूसरी बहुत-सी कथाएँ कहने लगे। नाना प्रकार की कथाएँ कहते हुए वे सतीके साथ कैलास पर जा पहुँचे और श्रेष्ठ आसन पर स्थित हो चित्त वृत्तियों के निरोध पूर्वक समाधि लगा अपने स्वरूप का ध्यान करने लगे। सती मन में अत्यन्त विषाद ले अपने उस धाम में रहने लगीं। मुने! शिवा और शिव के उस चरित्र को कोई नहीं जानता था।
महामुने! स्वेच्छा से शरीर धारण करके लोकलीला का अनुसरण करने वाले उन दोनों प्रभुओं का इस प्रकार वहाँ रहते हुए दीर्घकाल व्यतीत हो गया। तत्पश्चात उत्तम लीला करने वाले महादेवजी ने ध्यान तोड़ा। यह जानकर जगदम्बा सती वहाँ आयीं और उन्होंने व्यथित हृदय से शिव के चरणों में प्रणाम किया। उदारचेता शम्भु ने उन्हें अपने सामने बैठने के लिये आसन दिया और बड़े प्रेम से बहुत- सी मनोरम कथाएँ कहीं। उन्होंने वैसी ही लीला करके सती के शोक को तत्काल दूर कर दिया। वे पूर्ववत सुखी हो गयीं। फिर भी शिव ने अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ा। तात! परमेश्वर शिव के विषय में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये। मुने! मुनि लोग शिवा और शिव की ऐसी ही कथा कहते हैं। कुछ मनुष्य उन दोनों में वियोग मानते हैं। परंतु उनमें वियोग कैसे सम्भव है। शिवा और शिव के चरित्र को वास्तविक रूप से कौन जानता है। वे दोनों सदा अपनी इच्छा से खेलते और भाँति- भाँति की लीलाएँ करते हैं। सती और शिव वाणी और अर्थ की भाँति एक-दूसरे से नित्य संयुक्त हैं। उन दोनों में वियोग होना असम्भव है। उनकी इच्छा से ही उनमें लीला-वियोग हो सकता है।

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अध्याय 26: प्रयाग में यज्ञ का आयोजन और राजा दक्ष द्वारा शिव का तिरस्कार करना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा मुनि प्रयागमें एकत्र हुए थे। वहाँ सम्मिलित हुए उन सब महात्माओं का । विधि-विधानसे एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ। उस यज्ञ में सनकादि सिद्धगण, देवाघ, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाले ज्ञानी भी पधारे थे। मैं भी पर्तिमान महातेजस्वी निगमों और आगमॉस युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था। अनेक प्रकारके उत्सवों के साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था। नाना शास्त्रों के सम्बन्ध में ज्ञानचर्चा एवं वाद-विवाद हो रहे थे। मुने! उसी अवसर पर सती तथा पार्षदों के साथ त्रिलोक हितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके
स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ आ पहुँचे। भगवान शिव को आया देख सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों तथा मुनियों ने और मैंने भी भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। फिर शिव की आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये। भगवान का दर्शन पाकर सब लोग संतुष्ट थे और अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। इसी बीच में प्रजापतियों के भी पति प्रभु दक्ष, जो बड़े
तेजस्वी थे, अकस्मात घूमते हुए प्रसन्नता- पूर्वक वहाँ आये। वे मुझे प्रणाम करके मेरी आज्ञा ले वहाँ बैठे। दक्ष उन दिनों समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति बनाये गये थे, अतएव सबके द्वारा सम्माननीय थे। परंतु अपने इस गौरवपूर्ण पद को लेकर उनके मनमें बड़ा अहंकार था; क्योंकि वे तत्व- ज्ञान से शून्य थे। उस समय समस्त देवर्षियों ने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणाम के द्वारा
दोनों हाथ जोड़ कर उत्तम तेजस्वी दक्ष का आदर-सत्कार किया। परंतु जो नाना प्रकार के लीला विहार करने वाले, सबके स्वामी और उत्कृष्ट लीलाकारी स्वतन्त्र परमेश्वर हैं, उन महेश्वर ने उस समय दक्ष को मस्तक नहीं झुकाया। वे अपने आसन पर बैठे ही रह गये (खड़े होकर दक्ष का स्वागत नहीं किया)। महादेव जी को वहाँ मस्तक झुकाते न देख मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये। उन्हें रुद्र पर सहसा क्रोध हो आया, वे ज्ञानशून्य तथा महान अहंकारी होने के कारण महाप्रभु रुद्र को क्रूर दृष्टि से देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वर से कहने लगे। दक्ष ने कहा-ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राहाण तथा ऋषि मुझे विशेष रूप से मस्तक झुकाते हैं। परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचों से घिरा हुआ महामनस्वी बनकर बैठा है, वह दुष्ट मनुष्यके समान क्यों मुझे प्रणाम नहीं करता? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जो मुझे इस समय प्रणाम नहीं करता, इसका क्या कारण है? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गये हैं। यह भूतों और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बना फिरता है और शास्त्रीय विधि की अवहेलना करके नीतिमार्ग को सदा कलंकित किया करता है। इसके साथ रहने वाले या इसका अनुसरण करने वाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मण को देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करने वाले होते हैं। यह स्वयं ही स्त्री में आसक्त रहने वाला तथा रतिकर्म में ही दक्ष है। अतः मैं इसे शाप देनेको उद्यत हुआ हूँ। यह रुद्र चारों वर्गोंसे पृथक् और कुरूप है। इसे यज्ञसे बहिष्कृत कर दिया जाय। यह श्मशान में निवास करने वाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन है। इसलिये देवताओं के
साथ यह यज्ञ में भाग न पाये।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! दक्ष की कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुत-से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर देवताओं के साथ उनकी निन्दा करने लगे। देक्षकी बात सुनकर नन्दी को बड़ा रोष हुआ। उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्षको शाप देने के विचार से तुरंत इस प्रकार बोले।
नन्दीश्वरने कहा-अरे रे महामूढ़ ! दुष्टबुद्धि शठ दक्ष! तूने मेरे स्वामी महेश्वर को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कर दिया? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेव जी को तूने श्राप कैसे दे दिया? दुर्बुद्धि दक्ष! तूने ब्राह्मण जाति की चपलता से प्रेरित हो इन रुद्रदेव को व्यर्थ ही श्राप दे डाला है। महाप्रभु रुद्र सर्वथा निर्दोष हैं, तथापि तूने व्यर्थ ही उनका उपहास किया है। ब्राह्मणाधम! जिन्होंने इस जगत्की सृष्टि की, जो इसका पालन करते हैं और अन्त में जिनके द्वारा इसका संहार होगा, उन्हीं इन महेश्वर- रूपको तूने श्राप कैसे दे दिया।
नन्दी के इस प्रकार फटकारने पर प्रजापति दक्ष रोषसे आग-बबूला हो गये और उन्हें श्राप देते हुए बोले-‘अरे रुद्रगणो! तुम सब लोग वेदसे बहिष्कृत हो जाओ। वैदिक मार्ग से भ्रष्ट तथा महर्षियों-
द्वारा परित्यक्त हो पाखण्डवाद में लग जाओ और शिष्टाचार से दूर रहो। सिर पर जटा और शरीरमें भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण करके मद्यपानमें आसक्त रहो।’
जब दक्ष ने शिव के पार्षदों को इस प्रकार श्राप दे दिया, तब उस श्राप को सुनकर शिवके प्रियभक्त नन्दी अत्यन्त रोषके वशीभूत हो गये। शिलादपुत्र नन्दी भगवान शिव के प्रिय पार्षद और तेजस्वी हैं। वे गर्वसे भरे हुए महादुष्ट दक्ष को तत्काल इस प्रकार उत्तर देने लगे।
नन्दीश्वर बोले-अरे शठ! दुर्बुद्धि दक्ष ! तुझे शिव के तत्व का बिलकुल ज्ञान नहीं है। अतः तूने शिव के पार्षदों को व्यर्थ ही शाप दिया है। अहंकारी दक्ष! जिनके चित्त में दुष्टता भरी है, उन भृगु आदि ने भी ब्राह्मणत्व के अभिमान में आकर महाप्रभु महेश्वर का उपहास किया है। अतः यहाँ जो भगवान रुद्र से विमुख तुझ-जैसे दुष्ट ब्राह्मण विद्यमान हैं, उनको मैं रुद्र तेज के प्रभाव से ही श्राप दे रहा हूँ। तुझ-जैसे ब्राह्मण कर्मफल के प्रशंसक वेदवाद में फँसकर वेद के तत्वज्ञान से शून्य हो जायँ। वे ब्राह्मण सदा भोगों में तन्मय रहकर स्वर्ग को ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ मानते हुए ‘स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है’ ऐसा कहते रहें। तथा क्रोध, लोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहें। कितने ही ब्राह्मण वेदमार्गको सामने रखकर शूद्रोंका यज्ञ कराने वाले और दरिद्र होंगे। सदा दान लेने में ही लगे रहेंगे, दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सब-के-सब नरकगामी होंगे।
दक्ष! उनमें से कुछ ब्राह्मण तो ब्रह्म राक्षस भी होंगे। जो परमेश्वर शिवको सामान्य देवता समझकर उनसे द्रोह करता है, वह दुष्ट बुद्धिवाला प्रजापति दक्ष तत्त्वज्ञान से विमुख हो जाय। यह विषय सुख की इच्छा से कामना रूपी कपट से युक्त धर्म वाले गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर कर्मकाण्ड का
तथा कर्मफल की प्रशंसा करनेवाले सनातन वेदवाद का ही विस्तार करता रहे। इसका आनन्ददायी मुख नष्ट हो जाय। यह आत्मज्ञान को भूलकर पशु के समान हो जाय तथा यह दक्ष कर्मभ्रष्ट हो शीघ्र ही बकरेके मुखसे युक्त हो जाय। इस प्रकार कुपित हुए नन्दी ने जब ब्राह्मणों को और दक्ष ने महादेवजी को श्राप दिया, तब वहाँ महान हाहाकार मच गया। नारद! मैं वेदों का प्रतिपादक होने के कारण शिव तत्व को जानता हूँ। इसलिये दक्ष का वह शाप सुनकर मैंने बारंबार उसकी तथा भृगु आदि ब्राह्मणों की भी निन्दा की। सदाशिव महादेव जी भी नन्दी की वह बात सुनकर हँसते हुए-से मधुर वाणी में बोले-वे नन्दी को समझाने लगे।
सदाशिव ने कहा- नन्दिन! मेरी बात सुनो। तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। तुमने भ्रम से यह समझकर कि मुझे श्राप दिया गया, व्यर्थ ही ब्राह्मण- कुल को श्राप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का श्राप छू ही नहीं सकता; अतः तुम्हें उत्तेजित नहीं होना चाहिये। वेद मन्त्राक्षरमय और सूक्तमय है। उसके प्रत्येक सूक्तमें समस्त देहधारियों के आत्मा (परमात्मा) प्रतिष्ठित हैं। अतः उन मन्त्रोंके ज्ञाता नित्य आत्मवेत्ता हैं। इसलिये तुम रोषवश उन्हें शाप न दो। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को श्राप नहीं दे सकता। इस समय मुझे श्राप नहीं मिला है, इस बात को तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिये। महामते! तुम सनकादि सिद्धों को भी तत्वज्ञान का उपदेश देनेवा ले हो। अतः शान्त हो जाओ। मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हैं, यज्ञों के अंगभूत समस्त उपकरण भी मैं ही हूँ। यज्ञकी आत्मा मैं हूँ। यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूँ और यज्ञ से बहिष्कृत भी मैं ही हूँ। यह कौन, तुम कौन और ये कौन? वास्तव में सब मैं ही हूँ। तुम अपनी बुद्धि से इस बात का विचार करो। तुमने ब्राह्मणों को व्यर्थ ही श्राप दिया है। महामते! नन्दिन् ! तुम तत्वज्ञान के द्वारा प्रपंच-रचना का बाध करके आत्मनिष्ठ ज्ञानी एवं क्रोध आदि से शून्य हो जाओ।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! भगवान् शम्भु के इस प्रकार समझाने पर नन्दिकेश्वर विवेकपरायण हो क्रोधरहित एवं शान्त हो गये। भगवान् शिव भी अपने प्राणप्रिय पार्षद नन्दी को शीघ्र ही तत्व का बोध कराकर प्रमथगणों के साथ वहाँ से प्रसन्नता- पूर्वक अपने स्थान को चल दिये। इधर रोषावेश से युक्त दक्ष भी ब्राह्मणों से घिरे हुए अपने स्थान को लौट गये। परंतु उनका चित्त शिवद्रोह में ही तत्पर था। उस समय रुद्रको शाप दिये जानेकी घटनाका स्मरण करके दक्ष सदा महान रोष से भरे रहते थे उनकी बुद्धिपर मूढ़ता छा गयी थी। वे शिवके प्रति श्रद्धा को त्यागकर शिवपूजकों की निन्दा करने लगे। तात नारद! इस प्रकार परमात्मा शम्भुके साथ दुर्व्यवहार करके दक्ष ने अपनी जिस दुष्ट बुद्धि का परिचय दिया था, वह मैंने तुम्हें बता दी। अब तुम उनकी पराकाष्ठा को पहुँची हुई दुर्बुद्धिका वृत्तान्त सुनो, मैं बता रहा हूँ।

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अध्याय 27: कनखल हरिद्वार में दक्ष द्वारा यज्ञ का आयोजन

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! एक समय दक्ष ने एक बहुत बड़े यज्ञका आरम्भ किया। उस यज्ञ की दीक्षा लेकर उन्होंने उस समय समस्त देवर्षियों, महर्षियों तथा देवताओं को बुलाया। वे सभी उस यज्ञ में पधारे। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल,
पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैशम्पायन-ये तथा दूसरे बहुसंख्यक मुनि अपने स्त्री-पुत्रों को साथ ले मेरे पुत्र दक्ष के यज्ञ में हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए थे। इनके सिवा समस्त देवगण, महान् अभ्युदयशाली लोकपालगण और सभी उपदेवता अपनी उपकारक सैन्य शक्ति के साथ वहाँ पधारे थे। दक्ष ने प्रार्थना करके सदल-बल मुझ विश्वसृष्टा ब्रह्मा को भी सत्यलोक से बुलवाया था।
इसी तरह भाँति-भाँति से सादर प्रार्थना करके वैकुण्ठलोक से भगवान विष्णु भी उस यज्ञमें बुलाये गये थे। शिवद्रोही दुरात्मा दक्ष ने उन सबका बड़ा सत्कार किया। विश्वकर्मा ने अत्यन्त दीप्तिमान, विशाल और बहुमूल्य दिव्य भवन बनाये थे। दक्ष ने वे ही भवन समागत अतिथियों को ठहरने के
लिये दिये। सभी लोग सम्मानित हो उन सम्पूर्ण भवनों में यथायोग्य स्थान पाकर ठहरे हुए थे। दक्ष का वह महायज्ञ उस समय कनखल नामक तीर्थ में हो रहा था। उसमें दक्षने भृगु आदि तपोधनों को ऋत्विज बनाया। सम्पूर्ण मरुद्गणों के साथ स्वयं भगवान विष्णु उसके अधिष्ठाता थे। मैं वेदत्रयी की
विधि को दिखाने या बतानेवाला ब्रह्मा बना था। इसी तरह सम्पूर्ण दिगपाल अपने आयुधों और परिवारों के साथ द्वारपाल एवं रक्षक बने थे और सदा कौतूहल पैदा करते थे। स्वयं यज्ञ सुन्दर रूप धारण करके दक्ष के उस यज्ञमण्डल में उपस्थित था।

महामुनियों में श्रेष्ठ सभी महर्षि स्वयं वेदों के धारण करने वाले हुए थे। अग्नि ने भी उस यज्ञ महोत्सव में शीघ्र ही हविष्य ग्रहण करने के लिये अपने सहस्रों रूप प्रकट किये थे। वहाँ अट्ठासी हजार ऋत्विज एक साथ हवन करते थे। चौंसठ हजार देवर्षि उद्गाता थे। अध्वर्यु एवं होता भी उतने ही थे। नारद आदि देवर्षि और सप्तर्षि पृथक-पृथक गाथा-गान कर रहे थे। दक्ष ने अपने उस महा यज्ञ में गन्धर्वो, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों, उनके गणों, यज्ञों तथा नागलोक में विचरने वाले समस्त नागों का भी बहुत बड़ी संख्या में वरण किया था। ब्रह्मर्षि, राजर्षि और देवर्षियों के समुदाय तथा बहुसंख्यक नरेश भी उसमें आमन्त्रित थे, जो अपने मित्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओं के साथ आये थे। यजमान दक्ष ने उस यज्ञ में वसु आदि समस्त गणदेवताओं का भी वरण किया था। कौतुक और मंगलाचार करके जब दक्ष ने यज्ञ की दीक्षा ली तथा जब उनके लिये बारंबार स्वस्तिवाचन किया जाने लगा, तब वे अपनी पत्नी के साथ बड़ी शोभा पाने लगे। इतना सब करने पर भी दक्ष ने उस यज्ञमें भगवान शम्भु को नहीं आमन्त्रित किया। उनकी दृष्टि में कपालधारी होने के कारण वे निश्चय ही यज्ञ में भाग पाने योग्य नहीं थे। सती प्रजापति दक्षकी प्रिय पुत्री थीं तो भी कपाली की पत्नी होने के कारण दोषदर्शी दक्षने उन्हें अपने यज्ञमें नहीं बुलाया। इस प्रकार जब दक्ष का वह यज्ञ- महोत्सव आरम्भ हुआ और यज्ञ मण्डप में आये हुए सब ऋत्विज अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गये, उस समय वहाँ भगवान शंकर को उपस्थित ने देख शिवभक्त दधीचिका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और वे यों बोले।

दधीचि ने कहा-मुख्य-मुख्य देवताओं तथा महर्षियों! आप सब लोग प्रशंसा पूर्वक मेरी बात सुनें। इस यज्ञ-महोत्सव में भगवान शंकर नहीं आये हैं, इसका क्या कारण है? यद्यपि ये देवेश्वर, बड़े-बड़े मुनि और लोकपाल यहाँ पधारे हैं, तथापि उन महात्मा पिनाकपाणि शंकर के बिना यह यज्ञ अधिक शोभा नहीं पा रहा है। बड़े-बड़े विद्वान कहते हैं कि मंगलमय भगवान शिवकी कृपादृष्टि से ही समस्त मंगल- कार्य सम्पन्न होते हैं। जिनका ऐसा प्रभाव है, वे पुराण-पुरुष, वृषभध्वज, परमेश्वर श्रीनीलकण्ठ यहाँ क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं? दक्ष ! जिनके सम्पर्क में आनेपर अथवा जिनके स्वीकार कर लेने पर अमंगल भी मंगल हो जाते हैं तथा जिनके पंद्रह नेत्रों से देखे जानेपर बड़े-बड़े नगर तत्काल मंगलमय हो जाते हैं, उनका इस यज्ञमें पदार्पण होना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये तुम्हें स्वयं ही परमेश्वर शिवको यहाँ शीघ्र बुलाना चाहिये अथवा ब्रह्मा, प्रभावशाली भगवान विष्णु, देवराज इन्द्र, लोकपालगणों, ब्राह्मणों और सिद्धों की सहायता से सर्वथा प्रयल करके इस समय यज्ञ की पूर्ति के लिये तुम्हें भगवान शंकर को यहाँ ले आना चाहिये। आप सब लोग उस स्थानपर जायँ, जहाँ महेश्वरदेव विराजमान हैं। वहाँ से दक्ष नन्दिनी सती के साथ भगवान शम्भु को यहाँ तुरंत ले आयें।
देवेश्वरो! जगदम्बासहित वे परमात्मा शिव यदि यहाँ आ गये तो उनसे सब कुछ पवित्र हो जायगा; उनके स्मरणसे, उनके नाम लेनेसे सारा कार्य पुण्यमय बन जाता है। अतः पूर्ण प्रयत्न करके भगवान वृषभध्वज को यहाँ ले आना चाहिये। भगवान शंकर के यहाँ पदार्पण करते ही यह यज्ञ पवित्र हो जायगा; अन्यथा यह पूरा नहीं हो सकेगा- यह मैं सत्य कहता हूँ। दधीचिका यह वचन सुनकर दुष्ट बुद्धिवाले मूढ़ दक्ष ने हँसते हुए से रोष पूर्वक कहा-‘भगवान विष्णु सम्पूर्ण देवताओं के मूल हैं, जिनमें सनातन धर्म प्रतिष्ठित है। जब इनको मैंने सादर बुला लिया है तब इस यज्ञकर्म में क्या कमी हो सकती है? जिनमें वेद, यज्ञ और नाना प्रकार के समस्त कर्म प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान विष्णु तो यहाँ आ ही गये हैं। इनके सिवा सत्यलोक से लोक पितामह ब्रह्मा वेदों, उपनिषदों और विविध आगमों के साथ यहाँ पधारे हैं। देवगणोंके साथ स्वयं देवराज इन्द्र का भी शुभागमन हुआ है तथा आप- जैसे निष्पाप महर्षि भी यहाँ आ गये हैं। जो-जो महर्षि यज्ञ में सम्मिलित होने के योग्य, शान्त और सुपात्र हैं, वेद और वेदार्थ के तत्व को जानने वाले हैं और दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हैं, वे सब और स्वयं आप भी जब यहाँ पदार्पण कर चुके हैं, तब हमें यहाँ रुद्रसे क्या प्रायोजन हैं? विप्रवर! मैंने ब्रह्माजी के कहने से ही अपनी कन्या रुद्र को ब्याह दी थी। वैसे मैं जानता हूँ, हर कुलीन नहीं हैं। उनके न माता हैं न पिता। वे भूतों, प्रेतों और पिशाचों के स्वामी हैं। अकेले रहते हैं। उनका अतिक्रमण करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। वे आत्मप्रशंसक, मूढ़, जड, मौनी और ईष्र्यालु हैं। इस यज्ञकर्म में बुलाये जाने योग्य नहीं हैं। इसलिये मैंने उनको यहाँ नहीं बुलाया है। अतः दधीचिजी! आपको फिर कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये।
मेरी प्रार्थना है कि आप सब लोग मिलकर मेरे इस महान यज्ञको सफल बनावें।’ दक्ष की यह बात सुनकर दधीचि ने समस्त देवताओं और मुनियों को सुनाते हुए यह सारगर्भित बात कही। दधीचि बोले-दक्ष! उन भगवान शिव के बिना यह महान् यज्ञ अयज्ञ हो गया-अब यह यज्ञ कहलाने योग्य ही नहीं रह गया। विशेषतः इस यज्ञ में तुम्हारा विनाश हो जायगा।
ऐसा कहकर दधीचि दक्ष की यज्ञशाला से अकेले ही निकल पड़े और तुरंत अपने आश्रम को चल दिये। तदनन्तर जो मुख्य मुख्य शिवभक्त तथा शिव के मत का अनुसरण करने वाले थे, वे भी दक्ष को वैसा ही श्राप देकर तुरंत वहाँ से निकले और अपने आश्रम को चले गये। मुनिवर दधीचि तथा दूसरे ऋषियों के उस यज्ञमण्डप से निकल जाने पर दक्ष ने उन मुनियों का उपहास करते हुए कहा।
दक्ष बोले-जिन्हें शिव ही प्रिय हैं, वे नाममात्र के ब्राह्मण दधीचि चले गये। उन्हीं के समान जो दूसरे थे, वे भी मेरी यज्ञशाला से निकल गये। यह बड़ी शुभ बात हुई। मुझे सदा यही अभीष्ट है। देवेश! देवताओं और मुनियो! मैं सत्य कहता हूँ जिनके चित्त की विचारशक्ति नष्ट हो गयी है, जो मन्दबुद्धि हैं और मिथ्यावाद में लगे हुए हैं, ऐसे वेद- बहिष्कृत दुराचारी लोगों को यज्ञकर्म में त्याग
ही देना चाहिये। विष्णु आदि आप सब देवता और ब्राह्मण वेदवादी हैं। अतः मेरे इस यज्ञ को शीघ्र ही सफल बनावें।
ब्रह्मा जी कहते हैं-दक्ष की यह बात सुनकर शिव की माया से मोहित हुए समस्त देवर्षि उस यज्ञ में देवताओं का पूजन और हवन करने लगे।
मुनीश्वर नारद! इस प्रकार उस यज्ञको जो शाप मिला, उसका वर्णन किया गया। अब यज्ञ के विध्वंस की घटना को बताया जाता है, आदरपूर्वक सुनो।

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अध्याय 28: सती का शिव से यज्ञ में चलने के लिये अनुरोध, सती का पिता के यज्ञमण्डप की ओर प्रस्थान

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! जब देवर्षिगण बड़े उत्साह और हर्ष के साथ दक्ष के यज्ञ में जा रहे थे, उसी समय दक्षकन्या देवी सती गन्धमादन पर्वत पर चँदोवे से युक्त धारागृह में सखियों से घिरी हुई भाँति-भाँति की उत्तम क्रीडाएँ कर रही थीं। प्रसन्नता पूर्वक क्रीडा में लगी हुई देवी सती ने उस समय रोहिणी के साथ दक्षयज्ञ में जाते हुए चन्द्रमा को देखा। देखकर वे अपनी हितकारिणी प्राणप्यारी श्रेष्ठ सखी विजया से बोलीं-‘मेरी सखियों में श्रेष्ठ प्राणप्रिये विजये! जल्दी जाकर पूछ
तो आ, ये चन्द्रदेव रोहिणीके साथ कहाँ जा रहे हैं?
सती के इस प्रकार आज्ञा देने पर विजया तुरंत उनके पास गयी और उसने यथोचित शिष्टाचार के साथ पूछा-‘चन्द्रदेव! आप कहाँ जा रहे हैं? विजया का यह प्रश्न सुनकर चन्द्रदेव ने अपनी यात्रा को उद्देश्य आदरपूर्वक बताया। दक्षके यहाँ होने वाले यज्ञोत्सव आदि का सारा वृत्तान्त कहा। वह सब सुनकर विजया बड़ी उतावली के साथ देवी सती के पास आयी और चन्द्रमाने जो कुछ कहा था, वह सब उसने कह सुनाया। उसे सुनकर कालिका सती देवी को बड़ा विस्मय हुआ। अपने यहाँ सूचना न मिलने का क्या कारण है, यह बहुत सोचने-विचारनेपर भी उनकी समझ में नहीं आया। तब उन्होंने
पार्षदों से घिरे अपने स्वामी भगवान शिव के पास आकर भगवान शंकर से पूछा। सती बोलीं-प्रभो! मैंने सुना है कि मेरे पिताजीके यहाँ कोई बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है। उसमें बहुत बड़ा उत्सव होगा।
उसमें सब देवर्षि एकत्र हो रहे हैं। देवदेवेश्वर! पिताजी के उस महान यज्ञ में चलने की रुचि आपको क्यों नहीं हो रही है? इस विषय में जो बात हो, वह सब बताइये। महादेव! सुहृदयों का यह धर्म है कि वे सुहृदयों के साथ मिले-जुलें। यह मिलन उनके महान प्रेम को बढ़ाने वाला होता है। अतः प्रभो! मेरे स्वामी! आप मेरी प्रार्थना मानकर सर्वथा मेरे साथ पिताजी की यज्ञशाला में आज ही चलिये।
सती की यह बात सुनकर भगवान महेश्वरदेव, जिनका हृदय दक्ष के वाग्वाणों से घायल हो चुका था, मधुर वाणी में बोले- ‘देवि! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं। जो प्रमुख देवता और ऋषि अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य हैं, वे ही सब तुम्हारे पिताके यज्ञ में गये हैं। जो लोग बिना बुलाये दूसरेके घर जाते हैं, वे वहाँ अनादर पाते हैं, जो मृत्यु से भी बढ़कर कष्टदायक है। अतः प्रिये! तुमको और मुझको तो विशेषरूप से दक्ष के यज्ञ में नहीं जाना चाहिये, क्योंकि वहाँ हमें बुलाया नहीं गया है।
यह मैंने सच्ची बात कही है।’ महात्मा महेश्वरके ऐसा कहने पर सती रोषपूर्वक बोलीं-शम्भो! आप सबके ईश्वर हैं। जिनके जानेसे यज्ञ सफल होता है, उन्हीं आपको मेरे दुष्ट पिताने इस समय आमन्त्रित नहीं किया है। प्रभो! उस दुरात्माका अभिप्राय क्या है, वह सब मैं जानना चाहती हैं। साथ ही वहाँ आये हुए सम्पूर्ण दुरात्मा देवर्षियों के मनोभाव का भी मैं पता लगाना चाहती हूँ। अतः
प्रभो! मैं आज ही पिता के यज्ञ में जाती हूँ। नाथ ! महेश्वर ! आप मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दें।
देवी सती के ऐसा कहने पर सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सृष्टिकर्ता एवं कल्याणस्वरूप साक्षात भगवान रुद्र उनसे इस प्रकार बोले। शिवने कहा-उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवि! यदि इस प्रकार तुम्हारी
रुचि वहाँ अवश्य जानेके लिये हो गयी है। तो मेरी आज्ञा से तुम शीघ्र अपने पिता के यज्ञ में जाओ। यह नन्दी वृषभ सुसज्जित है, तुम एक महारानी के अनुरूप राजोपचार साथ ले सादर इसपर सवार हो बहुसंख्यक प्रमथगणोंके साथ यात्रा करो। प्रिये! इस विभूषित वृषभ पर आरूढ होओ। रुद्र के इस प्रकार आदेश देने पर आभूषणों से अलंकृत सती देवी सब साधनों से युक्त हो पिता के घर की ओर चलीं। परमात्मा शिवने उन्हें सुन्दर वस्त्र, आभूषण तथा परम उज्ज्वल छत्र, चामर आदि मह्मराजोचित उपचार दिये। भगवान शिव की आज्ञा से साठ हजार रुद्रगण बड़ी प्रसन्नता और
महान उत्साह के साथ कौतूहलपूर्वक सती के साथ गये। उस समय वहाँ यज्ञ के लिये यात्रा करते समय सब ओर महान उत्सव होने लगा। महादेवजीके गणोंने शिवप्रिया सती के लिये बड़ा भारी उत्सव रचाया। वे सभी गण कौतूहलपूर्ण कार्य करने तथा सती और शिव के यश को गाने लगे। शिव के प्रिय और महान वीर प्रमथगण प्रसन्नतापूर्वक उछलते-कूदते चल रहे थे। जगदम्बा के यात्राकाल में सब प्रकार से बड़ी भारी शोभा हो रही थी। उस समय जो सुखद जय- जयकार आदि का शब्द प्रकट हुआ, उससे तीनों लोक गूंज उठे।

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अध्याय 29
यज्ञ में शिव का भाग न देखकर सती के रोष पूर्ण वचन, दक्ष द्वारा शिव की निन्दा, सती द्वारा अपने प्राण त्यागने का निश्चय

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! दक्षकन्या सती उस स्थान पर गयीं, जहाँ वह महान प्रकाश से युक्त यज्ञ हो रहा था। वहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदि के द्वारा कौतूहलपूर्ण कार्य हो रहे थे। सती ने वहाँ अपने पिता के भवन को नाना प्रकार की आश्चर्यजनक वस्तुओं से सम्पन्न, उत्तम प्रभा से परिपूर्ण, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियों के समुदाय से भरा हुआ देखा। देवी सती भवन के
द्वार पर जाकर खड़ी हुईं और अपने वाहन नन्दी से उतरकर अकेली ही शीघ्रतापूर्वक यज्ञशाला के भीतर चली गयीं। सती को आयी देख उनकी यशस्विनी माता असिक्नी (वीरिणी)-ने और बहिनों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। परंतु दक्ष ने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उन्हीं के भय से शिव की माया से मोहित हुए दूसरे लोग भी उनके प्रति आदर का भाव न दिखा सके। मुने! सब लोगों के द्वारा तिरस्कार प्राप्त होने से सती देवी को बड़ा विस्मय हुआ तो भी उन्होंने अपने माता- पिता के चरणों में मस्तक झुकाया। उस यज्ञ में सती ने विष्णु आदि देवताओं के भाग देखे, परंतु शम्भु का भाग उन्हें कहीं नहीं दिखायी दिया। तब सती ने दुस्सह क्रोध प्रकट किया। वे अपमानित होने पर भी रोष से भरकर सब लोगों की ओर क्रूर दृष्टि से देखती और दक्ष को जलाती हुई सी बोलीं।
सती ने कहा-प्रजापते! आपने परम मंगलकारी भगवान शिव को इस यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया? जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत पवित्र होता है, जो स्वयं ही यज्ञ, यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ, यज्ञ के अंग, यज्ञकी दक्षिणा और यज्ञकर्ता यजमान हैं, उन भगवान शिव के बिना यज्ञ की सिद्धि
कैसे हो सकती है? अहो ! जिनके स्मरण करने मात्र से सब कुछ पवित्र हो जाता है, उन्हीं के बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा। द्रव्य, मन्त्र आदि हव्य और कव्य-ये सब जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान् शिवके बिना इस यज्ञ का आरम्भ कैसे किया गया? क्या आपने भगवान शिव को सामान्य देवता समझकर उनका अनादर किया है? आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। इसलिये आप पिता होकर भी मुझे अधम हुँच रहे हैं। अरे! ये विष्णु और ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिवके आये बिना इस यज्ञ में कैसे चले आये? ऐसा कहनेके बाद शिव स्वरूपा परमेश्वरी सतीने भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि सब देवताओं को तथा समस्त ऋषियों को बड़े कड़े शब्दों में फटकारा।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इस प्रकार क्रोध से भरी हुई जगदम्बा सती ने वहाँ व्यथित हृदय से अनेक प्रकार की बातें कहीं। श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, सती की बात सुनकर चुप रह गये। अपनी पुत्री के वैसे वचन सुनकर कुपित हुए दक्ष ने सती की ओर क्रूर दृष्टि से देखा और इस प्रकार कहा।
दक्ष बोले-भद्रे! तुम्हारे बहुत कहने से क्या लाभ। इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। तुम जाओ या ठहरो, यह तुम्हारी इच्छापर निर्भर है। तुम यहाँ आयी ही क्यों? समस्त विद्वान् जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव अमंगलरूप हैं। वे कुलीन भी नहीं हैं। वेदसे बहिष्कृत हैं और भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों के स्वामी हैं। वे बहुत ही कुवेष धारण किये रहते हैं। इसीलिये रुद्र को इस यज्ञ के लिये नहीं बुलाया गया है। बेटी! मैं रुद्रको अच्छी तरह जानता हूँ। अतः जान-बूझकर ही मैंने देवर्षियों की
सभा में उनको आमन्त्रित नहीं किया है। रुद्रको शास्त्र के अर्थ का ज्ञान नहीं है। वे उद्दण्ड और दुरात्मा हैं। मुझ मूढ़ पापी ने ब्रह्माजी के कहने से उनके साथ तुम्हारा विवाह कर दिया था। अतः शुचिस्मिते! तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ (शान्त) हो जाओ। इस यज्ञ में तुम आ ही गयी तो स्वयं अपना भाग (या दहेज) ग्रहण करो।
दक्ष के ऐसा कहने पर उनकी त्रिभुवन- पूजिता पुत्री सती ने शिव की निन्दा करने वाले अपने पिता की ओर जब दृष्टिपात किया, तब उनका रोष और भी बढ़ गया। वे मन- ही मन सोचने लगीं कि ‘अब मैं शंकरजी के पास कैसे जाऊँगी। यदि शंकरजी के दर्शन की इच्छा से वहाँ गयी और उन्होंने यहाँ का समाचार पूछा तो मैं उन्हें क्या उत्तर देंगी?’
तदनन्तर तीनों लोकों की जननी सती रोष वेश से युक्त हो लंबी साँस खींचती हुई अपने दक्ष से बोलीं। सती ने कहा—जो महादेवजीकी निन्दा करता है अथवा जो उनकी होती हुई निन्दा को सुनता है, वे दोनों तब तक नरक में पड़े रहते हैं, जबतक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं। अतः तात! मैं अपने इस शरीरको त्याग देंगी, जलती आगमें प्रवेश कर जाऊँगी। अपने स्वामी का अनादर सुनकर
अब मुझे अपने इस जीवन की रक्षा से क्या प्रयोजन। यदि कोई समर्थ हो तो वह स्वयं विशेष यत्न करके शम्भु की निन्दा करने वाले पुरुष की जीभ को बलपूर्वक काट डाले। तभी वह शिव-निन्दा-श्रवणके पाप से शुद्ध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है। यदि कुछ कर सकने में असमर्थ हो तो बुद्धिमान्पु रुषको चाहिये कि वह दोनों कान बंद करके वहाँ से निकल जाय। इससे वह शुद्ध रहता है-दोष का भागी नहीं होता। ऐसा श्रेष्ठ विद्वान कहते हैं। इस प्रकार धर्म नीति बताने पर सती को
अपने आनेके कारण बड़ा पश्चाताप हुआ।
उन्होंने व्यथित चित्त से भगवान शंकर के वचन का स्मरण किया। फिर सती अत्यन्त कुपित हो दक्ष से, उन विष्णु आदि समस्त देवताओं से तथा मुनियों से भी निडर होकर बोलीं।

सतीने कहा–तात ! तुम भगवान शंकर के निन्दक हो। इसके लिये तुम्हें पश्चाताप होगा। यहाँ महान दुख भोगकर अन्त में तुम्हें यातना भोगनी पड़ेगी। इस लोक में जिनके लिये न कोई प्रिय है न अप्रिय, उन निर्वेर परमात्मा शिव के प्रतिकूल तुम्हारे सिवा दूसरा कौन चल सकता है। जो दुष्ट
लोग हैं, वे सदा ईष्र्यापूर्वक यदि महापुरुषों- की निन्दा करें तो उनके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परंतु जो माहात्माओं के चरणों की रज से अपने अज्ञानान्धकार को दूर कर चुके हैं, उन्हें महापुरुषों की निन्दा शोभा नहीं देती। जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरों का नाम कभी बातचीत के प्रसंग से मनुष्यों की वाणी द्वारा एक बार भी उच्चारित हो जाय तो वह सम्पूर्ण पापराशि को शीघ्र
ही नष्ट कर देता है, उन्हीं पवित्र कीर्ति वाले निर्मल शिवसे तुम द्वेष करते हो? आश्चर्य है। वास्तव में तुम अशिव ( अमंगल)- रूप हो। महापुरुषोंके मनरूपी मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके सर्वार्थदायक चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं, उन्हीं से तुम मूर्खतावश द्रोह करते हो ? जिन्हें तुम नाम से शिव और काम से अशिव बताते हो, उन्हें क्या तुम्हारे सिवा दूसरे विद्वान नहीं जानते। ब्रह्मा आदि देवता, सनक आदि न मुनि तथा अन्य ज्ञानी क्या उनके स्वरूप को नहीं समझते। उदारबुद्धि भगवान शिव जटा फैलाये, कपाल धारण किये श्मशान में भूतों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते तथा भस्म एवं नरमुण्डों की माला धारण करते हैं-
इस बात को जानकर भी जो मुनि और देवता उनके चरणों से गिरे हुए निर्माल्य को बड़े आदर के साथ अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं, इसका क्या कारण है? यही कि वे भगवान् शिव ही साक्षात परमेश्वर हैं।
प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति- (शम-दम आदि)-दो प्रकारके कर्म बताये गये हैं। मनीषी पुरुषों को उनका विचार करना चाहिये। वेदमें विवेचन पूर्वक उनके रागी और विरागी–दो प्रकार के अलग- अलग अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण उक्त दोनों प्रकार के कर्मो का
एक साथ एक ही कर्ताके द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं, उनमें इन दोनों ही प्रकार के कर्मों का प्रवेश नहीं है। उन्हें कोई कर्म प्राप्त नहीं होता, उन्हें किसी भी प्रकार के कर्म करने की आवश्यकता नहीं है। पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है। उसका कोई लक्षण व्यक्त नहीं है, सदा आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन करते हैं। तुम्हारे पास वह ऐश्वर्य नहीं है।
यज्ञशालाओं में रहकर वहाँ के अन्न से तृप्त होने वाले कर्मठ लोगों को जो भोग प्राप्त होता है, उससे वह ऐश्वर्य बहुत दूर है। जो महापुरुषोंकी निन्दा करनेवाला और दुष्ट है, उसके जन्म को धिक्कार है। विद्वान पुरुष को चाहिये कि उसके सम्बन्ध को विशेषरूप से प्रयल करके त्याग दे! जिस समय भगवान शिव तुम्हारे साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे दाक्षायणी कहकर पुकारेंगे, उस समय मेरा मन सहसा अत्यन्त दु:खी हो जायगा। इसलिये तुम्हारे अंगसे उत्पन्न हुए सदा शिव के तुल्य घृणित इस शरीर को इस समय मैं निश्चय ही त्याग देंगी और ऐसा करके सुखी हो जाऊँगी। हे देवताओं और मुनियों! तुम सब लोग मेरी बात सुनो।
तुम्हारे हृदयमें दुष्टता आ गयी है। तुम लोगों का यह कर्म सर्वथा अनुचित है। तुम सब लोग मूढ़ हो; क्योंकि शिव की निन्दा और कलह तुम्हें प्रिय है। अत: भगवान हर से तुम्हें इस कुकर्म का निश्चय ही पूरा-पूरा दण्ड मिलेगा।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! उस यज्ञ में दक्ष तथा देवताओं से ऐसा कहकर सती- देवी चुप हो गयीं और मन-ही-मन अपने प्राणवल्लभ शम्भु का स्मरण करने लगीं।

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अध्याय 30: सती का योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर देना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! मौन हुई सती देवी अपने पति का सादर स्मरण करके शान्तचित्त हो सहसा उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने विधिपूर्वक आचमन करके वस्त्र ओढ़ लिया और पवित्रभाव से आँखें मूंदकर पति का चिन्तन करती हुई वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा जल का प्राण और अपान को एकरूप करके नाभि- चक्र में स्थित किया। फिर उदान वायु को बलपूर्वक नाभिचक्र से ऊपर उठाकर बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। तत्पश्चात शंकर की प्राणवल्लभा अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार दक्ष पर कुपित हो सहसा अपने शरीर को त्यागने की इच्छा से सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि की धारणा की।
तदनन्तर अपने पति के चरणारविन्दों का चिन्तन करती हुई सती ने अन्य सब वस्तुओं का ध्यान भुला दिया। उनका चित्त योगमार्ग में स्थित हो गया था। इसलिये वहाँ उन्हें पति के चरणों के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ! सती का निष्पाप शरीर तत्काल गिरा और उनकी इच्छा के अनुसार योगाग्नि से जलकर उसी क्षण भस्म हो गया। उस समय वहाँ आये हुए देवता आदिने जब यह घटना देखी, तब वे बड़े जोर से हाहाकार करने लगे। उनका वह महान , अद्भुत, विचित्र एवं भयंकर हाहाकार आकाश में और पृथ्वीतल पर सब ओर फैल गया। लोग कह रहे थे-‘हाय! महान देवता भगवान शंकर की परम प्रेयसी सती देवी ने किस दुष्ट के दुर्व्यवहार से कुपित हो अपने प्राण त्याग दिये। अहो ! ब्रह्माजी के पुत्र इस दक्ष की बड़ी भारी दुष्टता तो देखो।
सारा चराचर जगत जिसकी संतान है, उसी की पुत्री मनस्विनी सती देवी, जो सदा ही मान पानेके योग्य थीं, उसके द्वारा ऐसी निरादृत हुई कि प्राणोंसे ही हाथ धो बैठीं। भगवान वृषभध्वज की प्रिया
सती सदा सभी सत्पुरुषों के द्वारा निरन्तर सम्मान पाने की अधिकारिणी थीं। वास्तव में उसका हृदय बड़ा ही असहिष्णु है। वह प्रजापति दक्ष ब्राह्मणद्रोही है। इसलिये सारे संसार में उसे महान अपयश प्राप्त होगा। उसकी अपनी ही पुत्री उसी के अपराध से जब प्राणत्याग करने को उद्यत हो गयी, तब भी उस महानरक भोगी शंकर द्रोही ने उसे रोका तक नहीं!’ जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख तुरंत ही क्रोधपूर्वक अस्त्र-शस्त्र ले दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। यज्ञमण्डप के द्वार पर खड़े हुए वे भगवान शंकर के समस्त साठ हजार पार्षद, जो बड़े भारी बलवान थे, अत्यन्त रोष से भर गये और हमें धिक्कार है, धिक्कार है’, ऐसा कहते हुए भगवान शंकर के गणों के वे सभी वीर युथपति  उच्च स्वर से हाहाकार करने लगे। देवर्षे! कितने ही पार्षद तो वहाँ शोकसे ऐसे व्याकुल हो गये कि वे अत्यन्त तीखे प्राणनाशक शस्त्रों द्वारा अपने ही मस्तक और मुख आदि अंगों पर आघात करने लगे। इस प्रकार बीस हजार पार्षद उस समय दक्ष कन्या सती के साथ ही नष्ट हो गये। वह एक अद्भुत-सी बात हुई। नष्ट होने से बचे हुए महात्मा शंकर के वे प्रमथगण क्रोधयुक्त दक्ष को मारने के लिये हथियार लिये उठ खड़े हुए। मुने! उन आक्रमणकारी पार्षदों का वेग देखकर भगवान भृगु ने
यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिये नियत ‘अपहता असुराः रक्षाऽसि वेदिषदः
इस यजुर्मन्त्र से दक्षिणाग्नि में आहुति दी।
भृगुके आहुति देते ही यज्ञकुण्ड से ऋभु नामक सहस्रों महान देवता, जो बड़े प्रबल वीर थे, वहाँ प्रकट हो गये। मुनीश्वर! उन सबके हाथमें जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उनके साथ प्रमथगणों का अत्यन्त विकट युद्ध हुआ, जो सुनने वालों के भी रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। उन ब्रह्मतेज से सम्पन्न महावीर ऋभुओं की सब ओरसे ऐसी मार पड़ी, जिससे प्रमथगण बिना अधिक प्रयास के ही भाग खड़े हुए। इस प्रकार उन देवताओं ने उन शिवगणों को तुरंत मार भगाया। यह अद्भुत-सी घटना भगवान शिव की महाशक्ति सती इच्छा से ही हुई। वह सब देखकर ऋषि, इन्द्रादि देवता, मरुद्गण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार और लोकपाल चुप ही रहे। कोई सब ओर से आ-आकर वहाँ भगवान विष्णु से प्रार्थना करते थे कि किसी तरह विघ्न टल जाय। वे उद्विग्न हो बारंबार विघ्न-निवारण के लिये आपस में सलाह करने लगे। प्रमथगणों के नाश होने और भगाये जाने से जो भावी परिणाम होने वाला था, उसका भलीभाँति विचार करके उत्तम बुद्धिवाले श्रीविष्णु आदि देवता अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे।
मुने! इस प्रकार दुरात्मा शंकर-द्रोही ब्रह्मबन्धु दक्ष के यज्ञ में उस समय बड़ा भारी विघ्न उपस्थित
हो गया।

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अध्याय 31: आकाशवाणी द्वारा दक्ष की भर्सना, उनके विनाश की सूचना

ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर! इसी बीच में वहाँ दक्ष तथा देवता आदिके सुनते हुए आकाशवाणी ने यह यथार्थ बात कही-
‘अरे-अरे दुराचारी दक्ष ! ओ दम्भाचारपरायण महामूढ़ ! यह तूने कैसा अनर्थकारी कर्म कर डाला? ओ मूर्ख! शिव भक्तराज दधीचि के कथन को भी तूने प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिये सब प्रकार से आनन्ददायक और मंगलकारी था। वे ब्राह्मण देवता तुझे दुस्सह शाप देकर तेरी यज्ञशाला से निकल गये तो भी तुझ मूढ़ने अपने मन में कुछ भी नहीं समझा। उसके बाद तेरे घर में मंगलमयी सतीदेवी स्वतः पधारीं, जो तेरी अपनी ही पुत्री थीं; किंतु तूने उनका भी परम आदर नहीं किया! ऐसा क्यों हुआ? ज्ञानदुर्बल दक्ष! तूने सती और महादेवजी की पूजा नहीं की, यह क्या किया? ‘मैं ब्रह्माजी का बेटा हूँ’ ऐसा समझकर तू व्यर्थ ही घमंड में भरा रहता है और इसीलिये तुझ पर मोह छा गया है। वे सतीदेवी ही सत्पुरुषों की आराध्या देवी हैं अथवा सदा आराधना करने के योग्य हैं, वे समस्त पुण्योंका फल देनेवाली, तीनों लोक की माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान शंकर के आधे अंग में निवास करने वाली हैं। वे सती देवी ही पूजित होनेपर सदा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करने वाली हैं। वे ही महेश्वरकी शक्ति हैं और अपने भक्तों को सब प्रकार के मंगल देती हैं। वे सती देवी ही पूजित होने पर सदा संसार का भय दूर करती हैं, मनोवांछित फल देती
हैं तथा वे ही समस्त उपद्रवों को नष्ट करने वाली देवी हैं। वे सती ही सदा पूजित होने पर कीर्ति और सम्पत्ति प्रदान करती हैं। वे ही पराशक्ति तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली परमेश्वरी हैं। वे सती ही जगत को जन्म देने वाली माता, जगत की रक्षा करने वाली अनादि शक्ति और प्रलयकाल में जगत का संहार करनेवाली हैं। वे जगन्माता सती ही भगवान विष्णु की माता रूप से सुशोभित होने वाली तथा ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, अग्नि एवं सूर्यदेव आदि की जननी मानी गयी हैं।
वे सती ही तप, धर्म और दान आदि का फल देने वाली हैं। वे ही शम्भुशक्ति महादेवी हैं तथा दुष्टों का हनन करने वाली परात्पर शक्ति हैं। ऐसी महिमावाली सतीदेवी जिनकी सदा प्रिय धर्मपत्नी हैं, उन भगवान महादेवको तूने यज्ञमें भाग नहीं दिया ! अरे! तू कैसा मूढ़ और कुविचारी है। “भगवान शिव ही सबके स्वामी तथा परात्पर परमेश्वर हैं। वे समस्त देवताओं के सम्यक् सेव्य हैं और सबका कल्याण करने वाले हैं। इन्हीं के दर्शन की इच्छा से सिद्ध पुरुष तपस्या करते हैं और इन्हीं के साक्षात्कार की अभिलाषा मन में लेकर योगी लोग योग-साधना में प्रवृत्त होते हैं। अनन्त धन-धान्य और यज्ञ-याग आदि का सबसे महान फल यही बताया गया है कि भगवान शंकर को दर्शन सुलभ हो। शिव ही जगत ​का धारण-पोषण करने वाले हैं। वे ही समस्त विद्याओं के पति एवं सब कुछ
करनेमें समर्थ हैं। आदिविद्या के श्रेष्ठ स्वामी और समस्त मंगलों के भी मंगल वे ही हैं। दुष्ट दक्ष! तूने उनकी शक्ति का आज सत्कार नहीं किया है। इसीलिये इस यज्ञ का विनाश हो जायगा। पूजनीय व्यक्तियों की पूजा न करने से अमंगल होता ही है। तूने परम पूज्य शिवस्वरूपा सती का पूजन नहीं किया है। शेषनाग अपने सहस्र मस्तकों से प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक जिनके चरणों की रज धारण करते हैं, उन्हीं भगवान शिव की शक्ति सती देवी थीं। जिनके चरणकमलों का निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके ब्रह्माजी ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए हैं, उन्हीं भगवान शिवकी प्रिय पत्नी सतीदेवी थीं। जिनके चरणकमलों का निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके इन्द्र आदि लोकपाल अपने- अपने उत्तम पद को प्राप्त हुए हैं, वे भगवान शिव सम्पूर्ण जगत्के पिता हैं और शक्तिस्वरूपा सतीदेवी जगत की माता कही गयी हैं। मूढ़ दक्ष! तूने उन माता- पिता का सत्कार नहीं किया, फिर तेरा कल्याण कैसे होगा। “तुझ पर दुर्भाग्य का आक्रमण हो गया और विपत्तियाँ टूट पड़ीं; क्योंकि तूने उन भवानी सती और भगवान शंकर की भक्ति- भावसे आराधना नहीं की। ‘कल्याणकारी शम्भु का पूजन न करके भी मैं कल्याण का भागी हो सकता हूँ’ यह तेरा कैसा गर्व है? वह दुर्वार गर्व आज नष्ट हो जायगा। इन देवताओं में से कौन ऐसा है, जो सर्वेश्वर शिव से विमुख होकर तेरी सहायता करेगा? मुझे तो ऐसा कोई देवता नहीं दिखायी देता। यदि देवता इस समय तेरी सहायता करेंगे तो जलती आगसे खेलने वाले पतंगों के समान नष्ट हो जायेंगे। आज तेरा मुँह जल जाय, तेरे यज्ञका नाश हो जाय और जितने तेरे सहायक हैं वे भी आज शीघ्र ही जल मरें। इस दुरात्मा दक्ष की जो सहायता करने वाले हैं, उन समस्त देवताओं के लिये आज शपथ है। वे तेरे अमंगल के लिये ही तेरी सहायता से विरत हो जायें। समस्त देवता आज इस यज्ञमण्डप से निकलकर अपने- अपने स्थान को चले जायँ, अन्यथा सब लोगों का सब प्रकार से नाश हो जायगा।
अन्य सब मुनि और नाग आदि भी इस यज्ञसे निकल जायें, अन्यथा आज सब लोगों का सर्वथा नाश हो जायगा। श्रीहरे ! और विधात:! आप लोग भी इस यज्ञमण्डप से शीघ्र निकल जाइये।”
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! सम्पूर्ण यज्ञशाला में बैठे हुए लोगों से ऐसा कहकर सबका कल्याण करने वाली वह आकाशवाणी मौन हो गयी।

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अध्याय 32: शिवजी द्वारा वीरभद्र और महाकाली का प्रकट करना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! वह आकाशवाणी सुनकर सब देवता आदि भयभीत तथा विस्मित हो गये। उनके मुखसे कोई बात नहीं निकली। वे इस तरह खड़े या बैठे रह गये, मानो उनपर विशेष मोह छा गया हो। भृगुके मन्त्रबल से भाग जाने के कारण जो वीर शिवगण नष्ट होने से बच गये थे, वे भगवान शिव की शरण में गये। उन सबने अमित तेजस्वी भगवान रुद्रको भलीभाँति सादर प्रणाम करके वहाँ यज्ञ में जो कुछ हुआ था, वह सारी घटना उनसे कह सुनायी।
गण बोले–महेश्वर ! दक्ष बड़ा दुरात्मा और घमंडी है। उसने वहाँ जानेपर सतीदेवी का अपमान किया और देवताओं ने भी उनका आदर नहीं किया। अत्यन्त गर्व से भरे हुए उस दुष्ट दक्ष ने आपके लिये यज्ञ में भाग नहीं दिया। दूसरे देवताओं के लिये दिया और आपके विषय में उच्चस्वर से दुर्वचन कहे।
प्रभो! यज्ञमें आपका भाग न देखकर सतीदेवी कुपित हो उठीं और पिता की बारंबार निन्दा करके उन्होंने तत्काल अपने शरीर को योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। यह देख दस हजार से अधिक पार्षद लज्जावश शस्त्रों द्वारा अपने ही अंगों को काट-काटकर वहाँ मर गये। शेष हम लोग
दक्ष पर कुपित हो उठे और सबको भय पहुँचाते हुए वेगपूर्वक उस यज्ञका विध्वंस करने को उद्यत हो गये; परंतु विरोधी भृगु ने अपने प्रभाव से हमें तिरस्कृत कर दिया। हम उनके मन्त्रबल का सामना न कर सके। प्रभो! विश्वम्भर! वे ही हमलोग आज आपकी शरण में आये हैं। दयालु ! वहाँ प्राप्त हुए भयसे आप हमें बचाइये, निर्भय कीजिये। महाप्रभो ! उस यज्ञ में दक्ष आदि सभी दुष्टों ने घमंड में आकर आपका विशेष रूप से अपमान किया है। कल्याणकारी शिव! इस प्रकार हमने अपना, सतीदेवी का और मूढ़ बुद्धि वाले दक्ष आदि का भी सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा करें।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! अपने पार्षदों की यह बात सुनकर भगवान शिव ने वहाँ की सारी घटना जाननेके लिये शीघ्र ही तुम्हारा स्मरण किया। देवर्षे ! तुम दिव्य दृष्टि से सम्पन्न हो। अतः भगवान के स्मरण करने पर तुम तुरंत वहाँ आ पहुँचे और शंकरजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके खड़े हो गये। स्वामी शिव ने तुम्हारी प्रशंसा करके तुमसे दक्ष यज्ञ में गयी हुई सती का समाचार तथा दूसरी घटनाओं को पूछा। तात! शम्भु के पूछने पर शिव में मन लगाये रखने वाले तुमने शीघ्र ही वह सारा वृतांत कह सुनाया, जो दक्ष यज्ञ में घटित हुआ था। मुने! तुम्हारे मुख से निकली हुई बात सुनकर उस समय मह्मन रौद्र पराक्रम से सम्पन्न सर्वेश्वर रुद्रने तुरंत ही बड़ा भारी क्रोध प्रकट किया। लोक संहारकारी रुद्र ने अपने सिरसे एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक उस पर्वत के ऊपर दे मारा। मुने! भगवान शंकर के पटकने से उस जटा के दो टुकड़े हो गये और महाप्रलय के समान
भयंकर शब्द प्रकट हुआ। देवर्षे! उस जटा के पूर्वभाग से महाभयंकर महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों के अगुआ हैं। वे भूमण्डल को सब ओर से व्याप्त करके उससे भी दस अंगुल अधिक होकर खड़े हुए। वे देखने में प्रलयाग्नि के समान जान पड़ते थे। उनका शरीर बहुत ऊँचा था। वे एक हजार भुजाओं से युक्त थे। उन सर्वसमर्थ महारुद्र के क्रोधपूर्वक प्रकट हुए नि:श्वास से सौ प्रकार के ज्वर और तेरह प्रकार के संनिपात रोग पैदा हो गये। तात! उस जटा के दूसरे भाग से
महाकाली उत्पन्न हुईं, जो बड़ी भयंकर दिखायी देती थीं। वे करोड़ों भूतों से घिरी हुई थीं। जो ज्चर पैदा हुए, वे सब-के-सब शरीरधारी, क्रूर और समस्त लोकों के लिये भयंकर थे। वे अपने तेज से प्रज्वलित हो सब ओर दाह उत्पन्न करते हुए से प्रतीत होते थे। वीरभद्र बातचीत करने में बड़े कुशल थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा। वीरभद्र बोले–महारुद्र! सोम, सूर्य और अग्नि को तीन नेत्रों के रूप में धारण करने वाले प्रभो! शीघ्र आज्ञा दीजिये।
मुझे इस समय कौन-सा कार्य करना होगा?
ईशान! क्या मुझे आधे ही क्षणमें सारे समुद्रों को सुखा देना है? या इतने ही समय में सम्पूर्ण पर्वतों को पीस डालना है? हर! मैं एक ही क्षणमें ब्रह्माण्ड को भस्म कर डालें या समस्त देवताओं और मुनीश्वरों को जलाकर राख कर दें? शंकर! ईशान ! क्या मैं समस्त लोकों को उलट-पलट दें या सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश कर डालें ? महेश्वर! आपकी कृपा से कहीं कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे मैं न कर सकें। पराक्रम के द्वारा मेरी समानता करने वाला वीर न पहले कभी हुआ है और न आगे होगा। शंकर! आप किसी तिनके को भेज दें तो वह भी बिना किसी यम के क्षणभर में बड़े-से-बड़ा कार्य सिद्ध कर सकता है, इसमें संशय नहीं है। शम्भो ! यद्यपि आपकी लीलामात्र से सारा कार्य सिद्ध हो जाता है, तथापि जो मुझे भेजा जा रहा है, यह मुझ पर आपका अनुग्रह ही हैं। शम्भो ! मुझमें भी जो ऐसी शक्ति है, वह आपकी कृपा से ही प्राप्त हुई है। शंकर! आपकी कृपा के बिना किसी में भी कोई शक्ति नहीं हो सकती। वास्तव में आपकी आज्ञा के बिना कोई तिनके आदि को भी हिलानेमें समर्थ नहीं है, यह निस्संदेह का जा सकता है। महादेव! मैं आपके चरणों में बारंबार प्रणाम करता हूँ। हर ! आप अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये आज मुझे शीघ्र भेजिये । शम्भो ! मेरे दाहिने अंग बारंबार फड़क रहे हैं। इससे सूचित होता है कि मेरी विजय अवश्य होगी। अतः प्रभो! मुझे भेजिये। शंकर! आज मुझे कोई अभूतपूर्व एवं विशेष हर्ष तथा उत्साह का अनुभव हो रहा है और मेरा चित्त आपके चरणकमल में लगा हुआ है। अतः पग-पग पर मेरे लिये शुभ परिणाम का विस्तार होगा। शम्भो! आप शुभके आधार हैं। जिसकी आपमें सुदृढ़ भक्ति है, उसी को सदा विजय प्राप्त होती है और उसीका दिनों दिन शुभ होता है।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! उसकी यह बात सुनकर सर्वमंगला के पति भगवान शिव बहुत संतुष्ट हुए और ‘वीरभद्र ! तुम्हारी जय हो’ ऐसा आशीर्वाद देकर वे फिर बोले। महेश्वर ने कहा-मेरे पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र! ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा दुष्ट है। उस मूर्ख को बड़ा घमंड हो गया है। अतः इन दिनों वह विशेष रूप से मेरा विरोध करने लगा है। दक्ष इस समय एक यज्ञ करने के लिये उद्यत है। तुम याग-परिवार सहित उस यज्ञ को भस्म करके फिर शीघ्र मेरे स्थान पर लौट आओ। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई तुम्हारा सामना करने के लिये उद्यत हों तो उन्हें भी आज ही शीघ्र और सहसा भस्म कर डालना। दधीचि की दिलायी हुई मेरी शपथ का उल्लंघन करके जो देवता आदि वहाँ ठहरे हुए हैं, उन्हें तुम निश्चय ही प्रयत्नपूर्वक जलाकर भस्म कर देना।जो मेरी शपथ का उल्लंघन करके गर्वयुक्त हो वहाँ ठहरे हुए हैं, वे सब के सब मेरे द्रोही हैं। अतः उन्हें अग्निमयी माया से जला डालो। दक्षकी यज्ञशाला में जो अपनी पत्नियों और सारभूत उपकरणों के साथ बैठे हों, उन सबको जलाकर भस्म कर देने के पश्चात फिर शीघ्र लौट आना। तुम्हारे वहाँ जाने पर विश्वदेव आदि देवगण भी यदि सामने आ तुम्हारी सादर स्तुति करें तो भी तुम उन्हें शीघ्र आग की ज्वाला से जलाकर ही छोड़ना। वीर! वहाँ दक्ष आदि सब लोगोंको पत्नी और बन्धु-बान्धवों सहित जलाकर (कलशों में रखे हुए) जल को लीलापूर्वक पी जाना।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! जो वैदिक मर्यादाके पालक, कालके भी शत्रु तथा सबके ईश्वर हैं, वे भगवान रुद्र रोष से लाल आँखें किये महावीर वीरभद्र से ऐसा कहकर चुप हो गये।

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अध्याय 33: वीरभद्र और महाकाली का दक्षयज्ञ-विध्वंस के लिये प्रस्थान

ब्रह्माजी कहते हैं— नारद! महेश्वर के इस वचन को आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने महेश्वर को प्रणाम किया। तत्पश्चात् उन देवाधिदेव शूली की उपर्युक्त आज्ञा को शिरोधार्य करके वीरभद्र वहाँ से शीघ्र ही दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर चले। भगवान शिव ने केवल शोभा के लिये उनके साथ करोड़ों महावीर गणों को भेज दिया, जो प्रलयाग्नि के समान तेजस्वी थे। वे कौतूहल कारी प्रबल वीर प्रमथगण वीर- भद्र के आगे और पीछे भी चल रहे थे। काल के भी काल भगवान रुद्रके वीरभद्र- सहित जो लाखों पार्षदगण थे, उन सबका स्वरूप रुद्रके ही समान था। उन गणों के साथ महात्मा वीरभद्र भगवान शिव के समानही वेश-भूषा धारण किये रथ पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। उनके एक सहस्र भुजाएँ थीं। शरीरमें नागराज लिपटे हुए थे। वीरभद्र बड़े प्रबल और भयंकर दिखायी देते थे। उनका रथ बहुत ही विशाल था। उसमें दस हजार सिंह जोते जाते थे, जो प्रयत्नपूर्वक उस रथको खींचते थे। उसी प्रकार बहुत- से प्रबल सिंह, शार्दूल, मगर, मत्स्य और
सहस्रों हाथी उस रथके पाश्र्वभाग की रक्षा करते थे। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता तथा वैष्णवी-इन नव दुर्गाओंके साथ तथा समस्त भूतगणों के साथ महाकाली दक्ष का विनाश करने के लिये चलीं। डाकिनी, शाकिनी, भूत, प्रमथ, गुह्यक, कूष्माण्ड, पर्पट, चटक, ब्रह्मराक्षस, भैरव तथा क्षेत्रपाल आदि-ये सभी वीर भगवान शिव की आज्ञा का पालन एवं दक्षके यज्ञ का विनाश करनेके लिये तुरंत चल दिये। इनके सिवा चौंसठ गणों के साथ योगिनियों का मण्डल भी सहसा कुपित हो दक्षयज्ञका विनाश करने के लिये वहाँ से प्रस्थित हुआ। इस प्रकार कोटि-कोटि गण एवं विभिन्न प्रकार के गणाधीश वीरभद्र के साथ चले। उस समय भेरियों की गम्भीर ध्वनि होने लगी। नाना प्रकारके शब्द करने वाले शंख बज उठे। भिन्न-भिन्न प्रकार की
सींगें बजने लगीं। महामुने! सेनासहित वीरभद्र की यात्राके समय वहाँ बहुत-से सुखद शकुन होने लगे।
इस प्रकार जब प्रमथगणों सहित वीरभद्र ने प्रस्थान किया, तब उधर दक्ष तथा देवताओंको बहुत-से अशुभ लक्षण दिखायी देने लगे।

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अध्याय 34 : देवर्षे यज्ञ-

विध्वंस की सूचना देने वाले त्रिविध उत्पात प्रकट होने लगे। दक्ष की बायीं आँख, बायीं भुजा और बायीं जाँघ फड़कने लगी। तात! वाम अंगों का वह फड़कना सर्वथा अशुभसूचक था और नाना प्रकार के कष्ट मिलने की सूचना दे रहा था। उस समय दक्षकी यज्ञशाला में धरती डोलने लगी। दक्ष को दोपहर के समय दिन में ही अद्भुत तारे दीखने लगे। दिशाएँ मलिन हो गयीं। सूर्यमण्डल चितकबरा दीखने लगा। उस पर हजारों घेरे पड़ गये, जिससे वह भयंकर जान पड़ता था। बिजली और अग्निके समान दीप्तिमान तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा और भी बहुत-से भयानक अपशकुन होने लगे।
इसी बीच में वहाँ आकाशवाणी प्रकट हुई जो सम्पूर्ण देवताओं और विशेषतः दक्ष को अपनी बात सुनाने लगी।
आकाशवाणी बोली-ओ दक्ष ! आज तेरे जन्म को धिक्कार है! तू महामूढ़ और पापात्मा है। भगवान हर की ओर से आज तुझे महान् दुःख प्राप्त होगा, जो किसी तरह टल नहीं सकता। अब यहाँ तेरा हाहाकार भी नहीं सुनायी देगा। जो मूढ़ देवता आदि तेरे यज्ञ में स्थित हैं, उनको भी महान् दु:ख
होगा-इसमें संशय नहीं है। ब्रह्माजी कहते हैं-मुने! आकाशवाणी की यह बात सुनकर और पूर्वोक्त अशुभसूचक लक्षणों को देखकर दक्ष तथा दूसरे देवता आदि को भी अत्यन्त भय प्राप्त हुआ। उस
समय दक्ष मन-ही-मन अत्यन्त व्याकुल हो काँपने लगे और अपने प्रभु लक्ष्मीपति भगवान विष्णु को शरण में गये। वे भय से अधीर हो बेसुध हो रहे थे। उन्होंने स्वजनवत्सल देवाधिदेव भगवान विष्णु को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके कहा।

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अध्याय 35:

दक्ष के यज्ञ की रक्षा के लिये भगवान विष्णु से प्रार्थना, सेना सहित वीरभद्र का आगमन

दक्ष बोले-देवदेव! हरे ! विष्णो ! दीनबन्धो! कृपानिधे! आपको मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये। प्रभो! आप ही यज्ञके रक्षक हैं, यज्ञ ही आपको कर्म है और आप यज्ञस्वरूप हैं। आपको ऐसी कृपा करनी चाहिये, जिससे यज्ञको विनाश न हो।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर ! इस तरह अनेक प्रकार से सादर प्रार्थना करके दक्ष भगवान श्रीहरिके चरणोंमें गिर पड़े। उनका चित्त भयसे व्याकुल हो रहा था। तब जिनके मन में घबराहट आ गयी थी, उन प्रजापति दक्ष को उठाकर और उनकी पूर्वोक्त बात सुनकर भगवान विष्णु ने देवाधिदेव शिव का स्मरण किया। अपने प्रभु एवं महान ऐश्वर्य से युक्त परमेश्वर शिव का स्मरण करके शिवतत्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले।
श्रीहरिने कहा-दक्ष ! मैं तुमसे तत्व बात बता रहा हूँ। तुम मेरी बात ध्यान देकर सुनो। मेरा यह वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर तथा महामन्त्र के समान सुखदायक होगा। दक्ष ! तुम्हें तत्त्वका ज्ञान नहीं है। इसलिये तुमने सब के अधिपति परमात्मा शंकर की अवहेलना की है। ईश्वर की अवहेलना से सारा कार्य सर्वथा निष्फल हो जाता है। केवल इतना ही नहीं, पग-पगपर विपत्ति भी आती है। जहाँ अपूज्य पुरुषों की पूजा होती है और पूजनीय पुरुष की पूजा नहीं की जाती, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु तथा भय-ये तीन संकट अवश्य प्राप्त होंगे।” इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्नसे तुम्हें भगवान
वृषभध्वज का सम्मान करना चाहिये। महेश्वर का अपमान करने से ही तुम्हारे ऊपर महान भय उपस्थित हुआ है। हम सब लोग प्रभु होते हुए भी आज तुम्हारी दुर्नीति के कारण जो संकट आया है, उसे टालने में समर्थ नहीं हैं। यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! भगवान विष्णु का यह वचन सुनकर दक्ष चिन्तामें डूब गये। उनके चेहरेका रंग उड़ गया और वे चुपचाप पृथ्वी पर खड़े रह गये। इसी समय भगवान रुद्र के भेजे हुए गणनायक वीरभद्र अपनी सेनाके साथ यज्ञस्थल में जा पहुँचे। वे सब-के-सब बड़े शूरवीर, निर्भय तथा रुद्र के समान ही पराक्रमी थे। भगवान शंकर की आज्ञा से आये हुए उन गणों की गणना असम्भव थी। वे वीर शिरोमणि रुद्रसैनिक जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। उनके उस महानाद से तीनों लोक गूंज उठे। आकाश धूलसे ढक गया और दिशाएँ अन्धकार से आवृत हो गयी। सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी
अत्यन्त भय से व्याकुल हो पर्वत, वन और काननों सहित काँपने लगी तथा सम्पूर्ण समद्रों में भूचाल आ गया। इस प्रकार समस्त लोकों का विनाश करने में समर्थ उस विशाल सेना को देखकर समस्त देवता आदि चकित हो गये। सेना के उद्योग को देख दक्षके मुँह से खून निकल आया। वे अपनी स्त्री को साथ ले भगवान विष्णु के चरणों में दण्ड की भाँति गिर पड़े और इस प्रकार बोले।
दक्ष ने कहा-विष्णु ! महाप्रभो! आपके बल से ही मैंने इस महान यज्ञ का आरम्भ किया है। सत्कर्म की सिद्धि के लिये आप ही प्रमाण माने गये हैं। विष्णु! आप कर्मों के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं।
महाप्रभो! आप वेदोक्त धर्म तथा ब्रह्माजी के रक्षक हैं। अतः प्रभो! आपको मेरे इस यज्ञकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि आप सबके प्रभु हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं-दक्ष की अत्यन्त दीनतापूर्ण बात सुनकर भगवान विष्णु उस समय शिवतत्व से विमुख हुए दक्ष को समझानेके लिये इस प्रकार बोले।
श्रीविष्णुने कहा दक्ष ! इसमें संदेह नहीं कि मुझे तुम्हारे यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि धर्म-परिपालनविषयक जो मेरी सत्य प्रतिज्ञा है, वह सर्वत्र विख्यात है। परंतु दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे तुम सुनो। इस समय अपनी क्रूरतापूर्ण बुद्धि को त्याग दो। देवताओंके क्षेत्र नैमिषारण्य में जो अद्भुत घटना घटित हुई थी, उसका तुम्हें स्मरण नहीं हो रहा है। क्या तुम अपनी कुबुद्धि के कारण उसे भूल गये? यहाँ कौन भगवान रुद्रके कोप से तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ है। दक्ष! तुम्हारी रक्षा
किसको अभिमत नहीं है? परंतु जो तुम्हारी रक्षा करने को उद्यत होता है, वह अपनी दुर्बुद्धि का ही परिचय देता है। दुर्मते ! क्या कर्म है और क्या अकर्म, इसे तुम नहीं समझ पा रहे हो। केवल कर्म ही कभी कुछ करने में समर्थ नहीं हो सकता। जिसके सहयोग से कर्म में कुछ करने की सामर्थ्य आती है, उसी को तुम स्वकर्म समझो। भगवान शिव के बिना दूसरा कोई कर्म में कल्याण करने की शक्ति देने वाला नहीं है। जो शान्त हो ईश्वरमें मन लगाकर उनकी भक्तिपूर्वक कार्य करता है, उसीको भगवान शिव तत्काल उस कर्मका फल देते हैं। जो मनुष्य केवल ज्ञानका सहारा ले अनीश्वरवादी हो जाते या ईश्वरको नहीं मानते हैं, वे शतकोटि कल्पों तक नरकमें ही पड़े रहते हैं। फिर वे कर्मपाशमें बँधे हुए जीव प्रत्येक जन्म में नरकों की यातना भोगते हैं; क्योंकि वे केवल सकाम कर्मके ही स्वरूप का आश्रय लेने वाले होते हैं। ये शत्रुमर्दन वीरभद्र, जो यज्ञशाला के आँगनमें आ पहुँचे हैं, भगवान रुद्र की क्रोधाग्नि से प्रकट हुए हैं। इस समय समस्त रुद्रगणों के नायक ये ही हैं। ये हम लोगों के विनाश के लिये आये हैं, इसमें संशय नहीं है। कोई भी कार्य क्यों न हो; वस्तुतः इनके लिये कुछ भी अशक्य है ही नहीं। ये महान सामर्थ्यशाली वीरभद्र सब देवताओं को अवश्य जलाकर ही शान्त होंगे—इसमें संशय नहीं जान पड़ता। मैं भ्रम से महादेवजी की शपथ का उल्लंघन करके जो यहाँ ठहरा रहा, उसके कारण तुम्हारे साथ मुझे भी इस कष्ट का सामना करना ही पड़ेगा। भगवान विष्णु इस प्रकार कह ही रहे। थे कि वीरभद्रके साथ शिवगणों की सेना का समुद्र उमड़ आया। समस्त देवता आदि ने उसे देखा।

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अध्याय 36: देवताओं का पलायन, वीरभद्र का देवताओं को युद्ध के लिये ललकारना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! उस समय देवताओं के साथ शिवगणों का घोर युद्ध आरम्भ हो गया। उसमें सारे देवता पराजित हुए और भागने लगे। वे एक-दूसरे का साथ छोड़कर स्वर्गलोक में चले गये। उस
समय केवल महाबली इन्द्र आदि लोकपाल ही उस दारुण संग्राम में धैर्य धारण करके उत्सुकतापूर्वक खड़े रहे। तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवता मिलकर उस समरांगण में बृहस्पतिजी को विनीतभाव से नमस्कार करके पूछने लगे।
लोकपाल बोले-गुरुदेव बृहस्पते ! तात! महाप्राज्ञ! दयानिधे ! शीघ्र बताइये, हम जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी? उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति ने प्रयलपूर्वक भगवान शम्भु का स्मरण किया और ज्ञानदुर्बल महेन्द्र से कहा। बृहस्पति बोले-इन्द्र! भगवान विष्णु ने पहले जो कुछ कहा था, वह सब इस समय घटित हो गया। मैं उसी को स्पष्ट कर रहा हूँ। सावधान होकर सुनो। समस्त कर्मो का फल देने वाला जो कोई ईश्वर है, वह कर्ता का ही आश्रय लेता है-कर्म करने वाले को ही उस कर्मका फल देता है।
जो कर्म करता ही नहीं, उसको फल देने में वह भी समर्थ नहीं है, अतः जो ईश्वर को जानकर उसका आश्रय लेकर सत्कर्म करता है, उसी को उस कर्मका फल मिलता है, ईश्वरद्रोही को नहीं। न मन्त्र, न ओषधियाँ, न समस्त आभिचारिक कर्म, न लौकिक पुरुष, न कर्म, न वेद, न पूर्व और
उत्तरमीमांसा तथा न नाना वेदों से युक्त अन्यान्य शास्त्र ही ईश्वर को जानने समर्थ होते हैं—ऐसा प्राचीन विद्वानों का कथन है। अनन्यशरण भक्तों को छोड़कर दूसरे लोग सम्पूर्ण वेदों का दस हजार बार स्वाध्याय करके भी महेश्वर को भलीभाँति नहीं जान सकते—यह महाश्रुति का कथन है। अवश्य भगवान शिव के अनुग्रह से ही सर्वथा शान्त, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से सदाशिव के तत्व का साक्षात्कार (ज्ञान) हो सकता है। सुरेश्वर! क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य, इसका विवेचन करना
अभीष्ट होने पर मैं जो इसमें सिद्धि का उत्तम अंश है, उसी का प्रतिपादन करूंगा। तुम अपने हित के लिये उसे ध्यान देकर सुनो। इन्द्र! तुम लोकपालों के साथ आज नादान बनकर दक्ष-यज्ञमें आ गये। बताओ तो, यहाँ क्या पराक्रम करोगे? भगवान रुद्र जिनके सहायक हैं, ऐसे ये परम क्रोधी
रुद्रगण इस यज्ञमें विघ्न डालने के लिये आये हैं और अपना काम पूरा करेंगे- इसमें संशय नहीं है। मैं सत्य-सत्य कहता हूं कि इस यज्ञ के विघ्न का निवारण करने के लिये वस्तुतः तुममें से किसी के पास भी सर्वथा कोई उपाय नहीं है। बृहस्पति की यह बात सुनकर वे इन्द्र- सहित समस्त लोकपाल बड़ी चिन्ता में पड़ गये। तब महावीर रुद्रगणोंसे घिरे हुए वीरभद्र ने मन-ही-मन भगवान शंकर का स्मरण करके इन्द्र आदि लोकपालों को डॉटा और इसके पश्चात रुद्रगणों के नायक
वीरभद्र ने रोष से भरकर तुरंत ही सम्पूर्ण देवताओं को तीखे बाणों से घायल कर दिया। उन बाणोंकी चोट खाकर इन्द्र आदि समस्त सरेश्वर भागते हुए दसों दिशाओं में चले गये। जब लोकपाल चले गये और देवता भाग खड़े हुए तब वीरभद्र अपने गणों के साथ यज्ञशाला के समीप गये। उस समय वहाँ विद्यमान समस्त ऋषि अत्यन्त भयभीत हो परमेश्वर श्रीहरि से रक्षा की प्रार्थना करनेके लिये सहसा नतमस्तक हो शीघ्र बोले-‘देवदेव! रमानाथ! सर्वेश्वर! महाप्रभो! आप दक्ष के यज्ञ की रक्षा कीजिये।
आप ही यज्ञ हैं, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ आपका कर्म, रूप और अंग है। आप यज्ञ के रक्षक हैं। अतः दक्ष-यज्ञकी रक्षा कीजिये। आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक नहीं है।’
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! ऋषियों का यह वचन सुनकर मेरे सहित भगवान विष्णु वीरभद्र के साथ युद्ध करने की इच्छा से चले। श्रीहरि को युद्ध के लिये उद्यत देख शत्रुमर्दन वीरभद्र, जो वीर प्रमथगणों से घिरे हुए थे, कड़े शब्दों में भगवान विष्णु को डाँटने लगे।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! वीरभद्र की यह बात सुनकर बुद्धिमान देवेश्वर विष्णु वहाँ प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए बोले।
श्रीविष्णुने कहा-वीरभद्र! आज तुम्हारे सामने मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो- मैं भगवान शंकर का सेवक हूँ, तुम मुझे रुद्रदेव से विमुख न कहो। दक्ष अज्ञानी है। कर्मकाण्ड में ही इसकी निष्ठा है। इसने मूढ़तावश पहले मुझसे बारंबार अपने यज्ञ में चलने के लिये प्रार्थना की थी। मैं भक्त के अधीन ठहरा, इसलिये चला आया। भगवान महेश्वर भी भक्तके अधीन रहते हैं। तात! दक्ष मेरा भक्त हैं। इसीलिये मुझे यहाँ आना पड़ा है। रुद्र के क्रोध से उत्पन्न हुए वीर! तुम रुद्र-तेज:स्वरूप से, उत्तम प्रताप के आश्रय हो, मेरी प्रतिज्ञा सुनो। मैं तुम्हें आगे बढ़ने से रोकता हूँ और तुम मुझे रोको। परिणाम वही होगा, जो होनेवाला होगा। मैं पराक्रम करूंगा।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर महाबाहु वीरभद्र हँसकर बोला-‘आप मेरे प्रभु के प्रिय भक्त हैं, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।’ इतना कहकर गणनायक वीरभद्र
हँस पड़ा और विनय से नतमस्तक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ श्रीविष्णु देव से कहने लगा।
वीरभद्र ने कहा-महाप्रभो! मैंने आपके भाव की परीक्षा के लिये कड़ी बातें कही थीं। इस समय यथार्थ बात कहता हूँ, सावधान होकर सुनो। हरे! जैसे शिव हैं, वैसे आप हैं। जैसे आप हैं, वैसे शिव हैं।ऐसा वेद कहते हैं और वेदों का यह कथन शिव की आज्ञा के अनुसार ही है।’ रमानाथ! भगवान शिव की आज्ञा से हम सब लोग उनके सेवक ही हैं; तथापि मैंने जो बात कही है, वह इस वाद-विवाद के अवसरके अनुरूप ही है। आप मेरी हर बात को आपके प्रति आदर के भाव से ही कही गयी समझिये।
ब्रह्माजी कहते हैं कि — वीरभद्र का यह वचन सुनकर भगवान श्रीहरि हँस पड़े और उसके लिये हितकर वचन बोले। श्रीविष्णु ने कहा-महावीर! तुम मेरे साथ नि:शंक होकर युद्ध करो। तुम्हारे अस्त्रों से शरीर के भर जाने पर ही मैं अपने आश्रम को जाऊँगा।

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अध्याय 37:शिवगणों द्वारा देवता व मुनियों का पराजित होना

ब्रह्मा तथा श्री विष्णु के चले जाने पर मुनियों सहित समस्त यज्ञ के आधार रहने वाले देवता
शिवगणों द्वारा पराजित हो भाग गये। उस उपद्रव को देखकर और उस महामख का विध्वंस निकट जानकर वह यज्ञ भी अत्यन्त भयभीत हो मृग का रूप धारण करके वहाँ से भागा। मृग के रूप में आकाश की ओर भागते देख वीरभद्र ने उसे पकड़ लिया और उसका मस्तक काट डाला। फिर उन्होंने मुनियों तथा देवताओं के अंग- भंग कर दिये और बहुतों को मार डाला। प्रतापी मणिभद्र ने भृगु को उठाकर पटक दिया और उनकी छाती को पैरों से दबाकर तत्काल उनकी दाढ़ी-मूंछ नोच ली। चण्ड ने बड़े वेग से पूषा के दाँत उखाड़ लिये; क्योंकि पूर्वकाल में जिस समय महादेवजी को दक्ष द्वारा गालियाँ दी जा रही थीं, उस समय वे दाँत दिखा दिखाकर हँसे थे। नन्दी ने भग को रोष पूर्वक पृथ्वी पर दे मारा और उनकी दोनों आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष शिवजी को श्राप दे रहे थे, उस समय वे आँखों के संकेत से अपना अनुमोदन सूचित कर रहे थे। वहाँ रुद्रगण नायकों ने स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा देवियों की बड़ी विडम्बना (दुर्दशा) की। वहाँ जो मन्त्र-तन्त्र तथा दूसरे लोग थे,
उनका भी बहुत तिरस्कार किया। ब्रह्मपुत्र दक्ष भय के मारे अन्तर्वेदी के भीतर छिप गये। वीरभद्र उनका पता लगाकर उन्हें बलपूर्वक पकड़ लाये। फिर उनके दोनों गाल पकड़कर उन्होंने उनके मस्तक पर तलवार से आधात किया। परंतु योग के प्रभाव से दक्ष का सिर अभेद्य हो गया था, इसलिये कट नहीं सका। जब वीरभद्र को ज्ञात हुआ कि सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से इनके मस्तक का भेदन नहीं हो सकता, तब उन्होंने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दबाया और दोनों हाथों से गर्दन मरोड़कर तोड़
डाली। फिर शिवद्रोही दुष्ट दक्ष के उस सिर को गणनायक वीरभद्र ने अग्निकुण्ड में डाल दिया। तदनन्तर जैसे सूर्य घोर अन्धकार राशिका नाश करके उदयाचल पर आरूढ़ होते हैं, उसी प्रकार वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञका विध्वंस करके कृतकार्य हो तुरंत ही वहाँ से उत्तम कैलास पर्वत को
चले गये। वीरभद्र को काम पूरा करके आया देख परमेश्वर शिव मन ही मन बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उन्हें वीर प्रमथ- गणों का अध्यक्ष बना दिया।

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अध्याय 38: दधीचि और क्षुव के विवाद का इतिहास, मृत्युंजय-मन्त्र के अनुष्ठान से दधीचि की अवध्यता

सूतजी कहते हैं—महर्षियों! बुद्धिमान् ब्रह्माजी की कही हुई यह कथा सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारद विस्मय में पड़ गये। उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक प्रश्न किया। नारदजी ने पूछा-पिताजी! भगवान विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गये, जिसके कारण वहाँ उनका तिरस्कार हुआ? क्या वे प्रलयकारी पराक्रम वाले भगवान शंकर को नहीं जानते थे? फिर उन्होंने
अज्ञानी पुरुष की भाँति रुद्रगणों के साथ युद्ध क्यों किया? करुणानिधे! मेरे मन में यह बहुत बड़ा संदेह है। आप कृपा करके मेरे इस संशय को नष्ट कर दीजिये और प्रभो! मनमें उत्साह पैदा करने वाले शिवचरित को कहिये।
ब्रह्माजी ने कहा-नारद! पूर्वकाल में राजा क्षुव की सहायता करने वाले श्रीहरि को दधीचि मुनिने शाप दे दिया था, जिससे उस समय वे इस बात को भूल गये और वे दूसरे देवताओं को साथ ले दक्ष के यज्ञ में चले गये। दधीचि ने क्यों श्राप दिया, यह सुनो। प्राचीनकाल में क्षुव नाम से प्रसिद्ध
एक महातेजस्वी राजा हो गये हैं। वे महाप्रभावशाली मुनीश्वर दधीचि के मित्र थे। दीर्घकाल की तपस्या के प्रसंग से क्षुव और दधीचि में विवाद आरम्भ हो गया, जो तीनों लोकों में महान अनर्थकारी के रूपमें विख्यात हुआ। उस विवाद में वेद के विद्वान शिवभक्त दधीचि कहते थे कि शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय-इन तीनों वर्गों से ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है, इसमें संशय नहीं है। महामुनि दधीचि की वह बात सुनकर धन-वैभव के मद से मोहित हुए राजा क्षुव ने उसका इस प्रकार प्रतिवाद किया। क्षुव बोले-राजा इन्द्र आदि आठ लोकपालों के स्वरूप को धारण करता है। वह समस्त वर्गों और आश्रमका पालक एवं प्रभु है। इसलिये राजा ही सबसे श्रेष्ठ है। राजा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करनेवा ली श्रुति भी कहती है कि राजा सर्वदेवमय है।
मुने! इस श्रुति के कथनानुसार जो सबसे बड़ा देवता है, वह मैं ही हूँ। इस विवेचन से ब्राह्मण की अपेक्षा राजा ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। च्यवननन्दन! आप इस विषय में विचार करें और मेरा अनादर न करें, क्योंकि मैं सर्वथा आपके लिये पूजनीय हैं। राजा ध्रुवका यह मत श्रुतियों और स्मृतियों के विरुद्ध था। इसे सुनकर भृगु कुलभूषण मुनिश्रेष्ठ दधीचि को बड़ा क्रोध हुआ। मुने! अपने गौरवका विचार करके कुपित हुए महातेजस्वी दधीचि ने क्षुव मस्तक पर बायें मुक्के से प्रहार किया। उनके
मुक्के की मार खाकर ब्रह्माण्ड के अधिपति कुत्सित बुद्धिवाले क्षुव अत्यन्त कुपित हो गरज उठे और उन्होंने वज्रसे दधीचि को काट डाला। उस वज्रसे आहत हो भृगुवंशी दधीचि पृथ्वी पर गिर पड़े। भार्गववंशधर दधीचि ने गिरते समय शुक्राचार्य का स्मरण किया। योगी शुक्राचार्य ने आकर दधीचि के
शरीर को, जिसे क्षुव काट डाला था, तुरंत जोड़ दिया। दधीचि के अंगों को पूर्ववत जोड़कर शिवभक्त शिरोमणि तथा मृत्युंजय- विद्या के प्रवर्तक शुक्राचार्य ने उनसे कहा।
शुक्र वोले–तात दधीचि! मैं सर्वेश्वर भगवान शिवका पूजन करके तुम्हें श्रुतिप्रतिपादित महामृत्युंजय नामक श्रेष्ठ मन्त्र का उपदेश देता हूँ।
‘क्रयम्बकं यजामहे’ हम भगवान त्र्यम्बक का यजन (आराधन) करते हैं। त्र्यम्बक का अर्थ है–तीनों लोकों के पिता प्रभावशाली शिव। वे भगवान सूर्य, सोम और अग्नि–तीनों मण्डलों के पिता हैं। सत्व, रज और तम–तीनों गुणोंके महेश्वर हैं। आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिवतत्व- इन तीन तत्वों के आह्वानीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि -इन तीनों अग्नियों के; सर्वत्र उपलब्ध होनेवाले पृथ्वी, जल एवं तेज- इन तीन मूर्त भूतोंके (अथवा सात्विक आदि भेद से त्रिविध भूतों के), त्रिदिव (स्वर्ग) के, त्रिभुजके, विधाभूत सबके ब्रह्मा, विष्णु और शिव-तीनों देवताओंके महान ईश्वर महादेवजी ही हैं। (यहाँ तक मन्त्र के प्रथम चरणकी व्याख्या हुई।) मन्त्र का द्वितीय चरण है-‘सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्’-जैसे फूलों में उत्तम गन्ध होती है, उसी प्रकार वे भगवान शिव सम्पूर्ण भूतों में, तीनों गुणों में, समस्त कृत्यों में, इन्द्रियों में, अन्यान्य देवों में और गणों में उनके प्रकाशक सारभूत आत्मा के रूपमें व्याप्त हैं, अतएव सुगन्धयुक्त एवं सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर हैं। (यहाँ तक ‘सुगन्धिम्’ पदकी व्याख्या हुई। अब ‘पुष्टिवर्धनम्’ की व्याख्या करते हैं-) उत्तम
व्रत का पालन करने वाले द्विजश्रेष्ठ! महामुने।
नारद ! उन अन्तर्यामी पुरुष शिव से प्रकृति का पोषण होता है—महत्त तत्व से लेकर विशेष पर्यन्त सम्पूर्ण विकल्पों की पुष्टि होती है। तथा मुझ ब्रह्मा का, विष्णु का, मुनियों का और इन्द्रियों सहित देवताओं का भी पोषण होता है, इसलिये वे ही ‘पुष्टिवर्धन’ हैं। (अब मन्त्र के तीसरे और चौथे चरण की व्याख्या करते हैं।) उन दोनों चरणों का स्वरूप यों है-उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्यो- मुक्षीयमामृतात्-अर्थात ‘प्रभो! जैसे खरबूजा पक जाने पर लताबन्धन से छूट जाता है, उसी तरह मैं मृत्युरूप बन्धन से मुक्त हो जाऊँ, अमृतपद (मोक्ष)-से पृथक न होऊँ।’ वे रुद्रदेव अमृतस्वरूप हैं; जो पुण्यकर्म से, तपस्या से, स्वाध्याय से, योग से अथवा ध्यानसे उनकी आराधना करता है, उसे नूतन जीवन प्राप्त होता है। इस सत्य के प्रभाव से भगवान शिव स्वयं ही अपने भक्त को मृत्यु के सूक्ष्म बन्धन से मुक्त कर देते हैं, क्योंकि वे भगवान ही बन्धन और मोक्ष देने वाले हैं-ठीक उसी तरह, जैसे ‘उर्वारुक अर्थात ककड़ी का पौधा अपने फलको स्वयं ही लता के बन्धन में बाँधे रखता है और पक जानेपर स्वयं ही उसे बन्धन से मुक्त कर देता है।’

यह मृतसंजीवनी मन्त्र हैं, जो मेरे मत से सर्वोत्तम है। तुम प्रेमपूर्वक नियम से भगवान शिव का स्मरण करते हुए इस मन्त्र का जप करो। जप और हवनके पश्चात इसी से अभिमन्त्रित किये हुए जल को दिन और रात में पीओ तथा शिव विग्रहके समीप बैठकर उन्हींका ध्यान करते रहो। इससे कहीं भी मृत्यु का भय नहीं रहता। न्यास आदि सब कार्य करके विधिवत भगवान शिव की पूजा करो। यह सब करके शान्तभाव से बैठकर भक्तवत्सला शंकर का ध्यान करना चाहिये। मैं भगवान् शिव का ध्यान बता रहा हूँ, जिसके अनुसार उनका चिन्तन करके मन्त्र- जप करना चाहिये। इस तरह निरन्तर जप करने से बुद्धिमान पुरुष भगवान शिव के प्रभाव से उस मन्त्र को सिद्ध कर लेता है।
मृत्युंजय का ध्यान
हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगलादुद्धृत्य तोयं शिरः
सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वाङ्के सकुम्भी करौ ।
अक्षत्रगृहस्तमम्बुजगतं मूर्धस्थचन्द्रस्रवत्
पीयूषार्दतर्नु भजे सगिरिजं यक्षं च मृत्युञ्जयम् ॥

जो अपने दो करकमलों में रखे हुए दो कलशों से जल निकाल कर उनसे ऊपर वाले दो हाथों द्वारा अपने मस्तक को सींचते हैं। अन्य दो हाथों में दो घड़े लिये उन्हें अपनी गोद में रखे हुए हैं तथा शेष दो हाथों में रुद्राक्ष एवं मृगमुद्रा धारण करते हैं, कमल के आसन पर बैठे हैं, सिर पर स्थित चन्द्रमा से निरन्तर झरते हुए अमृत से जिनका सारा शरीर भीगा हुआ है। तथा जो तीन नेत्र धारण करने वाले हैं, उन भगवान मृत्युंजय का, जिनके साथ गिरिराजनन्दिनी उमा भी विराजमान हैं, मैं
भजन (चिन्तन) करता हूँ।
ब्रह्माजी कहते हैं—तात! मुनिश्रेष्ठ दधीचि को इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य भगवान शंकर का स्मरण करते हुए अपने स्थान को लौट गये। उनकी वह बात सुनकर महामुनि दधीचि बड़े प्रेम से
शिवजी का स्मरण करते हुए तपस्या के लिये वन में गये। वहाँ जाकर उन्होंने विधि- पूर्वक महामृत्युंजय-मन्त्रका जप और प्रेम- पूर्वक भगवान शिव का चिन्तन करते हुए तपस्या प्रारम्भ की। दीर्घकाल तक उस मन्त्र का जप और तपस्या द्वारा भगवान शंकर की आराधना करके दधीचि ने मह्ममृत्युंजय शिव को संतुष्ट किया। महामुने ! उस जप से प्रसन्नचित्त हुए भक्तवत्सल भगवान शिव दधीचि के प्रेमवश उनके सामने प्रकट हो गये। अपने प्रभु शम्भुका साक्षात दर्शन करके मुनीश्वर दधीचि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने विधिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ भक्ति भावसे शंकर का स्तवन किया। तात! मुने! तदनन्तर मुनि के प्रेम से प्रसन्न हुए शिव ने च्यवन कुमार दधीचि से कहा- तुम वर माँगो।’ भगवान शिव का यह वचन सुनकर भक्तशिरोमणि दधीचि दोनों हाथ जोड़ नतमस्तक हो भक्तवत्सला शंकर से बोले।
दधीचिने कहा–देवदेव महादेव! मुझे तीन वर दीजिये। मेरी हड़ी वज्र हो जाये। कोई भी मेरा वध न कर सके और मैं सर्वत्र अदीन रहँ-कभी मुझमें दीनता न आये। दधीचि का यह वचन सुनकर प्रसन्न हुए परमेश्वर शिवने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें वे तीनों वर दे दिये। शिवजी से तीन वर पाकर वेदमार्ग में प्रतिष्ठित महामुनि दधीचि आनन्दमग्न हो गये और शीघ्र ही राजा क्षुव के स्थान में गये।महादेव जी से अवध्यता, वज्रमय अस्थि और अदीनता पाकर दधीचि ने राजेन्द्र क्षुव के मस्तक पर लात मारी। फिर तो राजा क्षुव ने भी क्रोध करके दधीचि पर वज्र से प्रहार किया। वे भगवान विष्णु के गौरव से अधिक गर्व में भरे हुए थे। परंतु क्षुव का चलाया हुआ वह वज़ परमेश्वर शिव के प्रभाव से
महात्मा दधीचि का नाश न कर सका। इससे क्षुव को बड़ा विस्मय हुआ। मुनीश्वर दधीचि की अवध्यता, अदीनता तथा वज़्र से भी बढ़-चढ़कर प्रभाव देखकर ब्रह्मकुमार क्षुवके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने शीघ्र ही उनमें जाकर इन्द्र के छोटे भाई मुकुन्द की आराधना आरम्भ की। वे शरणागतपालक नरेश मृत्युंजय सेवक दधीचि से पराजित हो गये थे। क्षुव की पूजा से गरुडध्वज भगवान मधुसूदन बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने राजा को दिव्य दृष्टि प्रदान की। उस दिव्य दृष्टि से ही
जनार्दन देव का दर्शन करके उन गरुडध्वज को प्रणाम किया और प्रिय वचनों द्वारा उनकी स्तुति की। इस प्रकार देवेश्वर आदि से प्रशंसित उन अजेय ईश्वर श्रीनारायणदेव का पूजन और स्तवन करके राजा ने भक्तिभाव से उनकी ओर देखा तथा उन जनार्दनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करनेके पश्चात उन्हें अपना अभिप्राय सूचित किया।
राजा बोले-भगवन्! दधीचि नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण हैं, जो धर्म के ज्ञाता हैं। उनके हृदय में विनय का भाव है। वे पहले मेरे मित्र थे। इन दिनों रोग-शोक से रहित मृत्युंजय महादेव जी की आराधना करके वे उन्हीं कल्याणकारी शिव के प्रभाव से समस्त अस्त्र-शस्त्रों द्वारा सदा के लिये अवध्य हो गये हैं। एक दिन उन महातपस्वी दधीचि ने भरी सभा में आकर अपने बायें पैर से मेरे
मस्तक पर बड़े वेग से अवहेलना पूर्वक प्रहार किया और बड़े गर्वसे कहा-‘मैं किसी से नहीं डरता।’ हरे! वे मृत्युंजय से उत्तम वर पाकर अनुपम गर्व से भर गये हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! महात्मा दधीचि की अवध्यता का समाचार जानकर श्रीहरि ने महादेव जी के अतुलित प्रभाव का स्मरण किया। फिर वे ब्रह्मपुत्र राजा क्षुव से बोले-‘राजेन्द्र ! ब्राह्मणों को कहीं थोड़ा- सा भी भय नहीं है। भूपते ! विशेषतः रुद्रभक्तों के लिये तो भय नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। यदि मैं तुम्हारी ओर से कुछ करूं तो ब्राह्मण दधीचि को दुःख होगा और वह मुझ-जैसे देवता के लिये भी श्राप का कारण बन जायगा। राजेन्द्र! दधीचि के श्राप से दक्ष के यज्ञ में सुरेश्वर
शिवसे मेरी पराजय होगी और फिर मेरा उत्थान भी होगा। महाराज! इसलिये मैं तुम्हारे साथ रहकर कुछ करना नहीं चाहता, मैं अकेला ही तुम्हारे लिये दधीचि को जीतने का प्रयत्न करूंगा।’ भगवान विष्णु का यह वचन सुनकर क्षुव बोले-‘बहुत अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा कहकर वे उस कार्यके लिये मन ही मन उत्सुक हो प्रसन्नतापूर्वक वहीं ठहर गये।

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अध्याय 39: श्री विष्णु और देवताओं से अपराजित दधीचि का उनके लिये श्राप और क्षुव पर अनुग्रह

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद ! भक्तवत्सल भगवान विष्णु राजा क्षुव का हित साधन करने के लिये ब्राह्मण का रूप धारण कर दधीचि के आश्रम पर गये। वहाँ उन जगद्गुरु श्रीहरि ने शिवभक्त शिरोमणि ब्रह्मर्षि दधीचि को प्रणाम करके क्षुव के कार्य की सिद्धि के लिये उद्यत हो उनसे यह बात कही। श्रीविष्णु बोले-भगवान शिव की आराधना में तत्पर रहनेवाले अविनाशी ब्रह्मर्षि दधीचि ! मैं तुमसे एक वर माँगता हूँ। उसे तुम मुझे दे दो। क्षुव के कार्य की सिद्धि चाहने वाले
देवाधिदेव श्रीहरि के इस प्रकार याचना करने पर शैवशिरोमणि दधीचि ने शीघ्र ही
भगवान विष्णु से इस प्रकार कहा।
दधीचि बोले-ब्रह्मन् ! आप क्या चाहते हैं, यह मुझे ज्ञात हो गया। आप क्षुव का काम बनाने के लिये साक्षात भगवान श्रीहरि ही ब्राह्मण का रूप धारण करके यहाँ आये हैं। इसमें संदेह नहीं कि आप पूरे मायावी हैं। किंतु देवेश! जनार्दन! मुझे भगवान रुद्रकी कृपा से भूत, भविष्य और वर्तमान-
तीनों कालों का ज्ञान सदा ही बना रहता है।
सुव्रत! मैं आपको जानता हूँ। आप पापहारी श्रीहरि एवं विष्णु हैं। यह ब्राह्मण का वेश छोड़िये। दुष्टबुद्धि वाले राजा क्षुव ने आपकी आराधना की है। (इसीलिये आप पधारे हैं) भगवन् ! हरे ! आपकी भक्तवत्सलता को भी मैं जानता हूँ। यह छल छोड़िये। अपने रूप को ग्रहण कीजिये और भगवान शंकर के स्मरण में मन लगाइये। मैं भगवान शंकर की आराधना में लगा रहता हूँ। ऐसी
दशामें भी यदि मुझसे किसी को भय हो तो आप उसे यत्नपूर्वक सत्य की शपथ के साथ कहिये। मेरा मन शिव के स्मरण में ही लगा रहता है। मैं कभी झूठ नहीं बोलता। इस संसार में किसी देवता या दैत्य से भी मुझे भय नहीं होता। श्रीविष्णु बोले-उत्तम व्रत का पालन करने वाले दधीचि! तुम्हारा भय सर्वथा नष्ट ही है; क्योंकि तुम शिव की आराधना में तत्पर रहते हो। इसीलिये सर्वज्ञ हो। परंतु मेरे कहने से तुम एक बार अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा क्षुव से जाकर कह दो कि ‘राजेन्द्र!
मैं तुमसे डरता हूँ।

भगवान विष्णु का यह वचन सुनकर भी शैवशिरोमणि दधीचि निर्भय ही रहे और हँसकर बोले। दधीचि ने कहा-मैं देवाधिदेव पिनाकपाणि भगवान शम्भु के प्रसाद से कहीं, कभी किसी से और किंचिन्मात्र भी नहीं डरता- सदा ही निर्भय रहता हूँ। इस पर श्रीहरि ने मुनि को दबाने की चेष्टा की। देवताओं ने भी उनका साथ दिया; किंतु सबके सभी अस्त्र कुण्ठित हो गये। तदनन्तर भगवान श्रीविष्णु ने अगणित गणों की सृष्टि की। परंतु महर्षि ने उनको भी भस्म कर दिया। तब भगवान ने अपनी अनन्त विष्णुमूर्ति प्रकट की। यह सब देखकर च्यवनकुमार ने वहाँ जगदीश्वर भगवान विष्णु से कहा।
दधीचि बोले–महाबाहो ! माया को त्याग दीजिये। विचार करने से यह प्रतिभासमात्र प्रतीत होती है। माधव! मैंने सहस्रों दुर्विज्ञेय वस्तुओं को जान लिया है। आप मुझ में अपने सहित सम्पूर्ण जगत को देखिये। निरालस्य होकर मुझमें ब्रह्मा एवं रुद्र का भी दर्शन कीजिये। मैं आपको दिव्य दृष्टि देता हैं।
ऐसा कहकर भगवान शिव के तेज से पूर्ण शरीर वाले च्यवनकुमार दधीचि मुनि ने अपनी देह में समस्त ब्राण्ड का दर्शन कराया। तब भगवान विष्णु ने उन पर पुनः कोप करना चाहा। इतने में ही मेरे साथ राजा क्षुव वहाँ आ पहुँचे। मैंने निश्चेष्ट खड़े हुए भगवान पानाभ को तथा देवताओं को क्रोध करने से रोका। मेरी बात सुनकर इन लोगों ने ब्राह्मण दधीचि को परास्त नहीं किया। श्रीहरि उनके पास गये और उन्होंने मुनि को प्रणाम किया। तदनन्तर क्षुव अत्यन्त दीन हो उन मुनीश्वर दधीचि के निकट गये और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना करने लगे। क्षुव बोले—मुनिश्रेष्ठ! शिवभक्त- शिरोमणे! मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर ! आप दुर्जनों की दृष्टि से दूर रहने वाले हैं। मुझ पर कृपा कीजिये। ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! राजा क्षुव की यह बात सुनकर तपस्या की निधि ब्राह्मण दधीचि ने उन पर अनुग्रह किया। तत्पश्चात श्रीविष्णु आदि को देखकर वे मुनि क्रोध से व्याकुल हो गये और मन-ही-मन शिव को स्मरण करके विष्णु तथा देवताओं को श्राप देने लगे। दधीचि ने कहा-देवराज इन्द्र सहित देवताओं और मुनीश्वरों ! तुम लोग रुद्र की क्रोधाग्नि से श्रीविष्णु तथा अपने गणों सहित पराजित और ध्वस्त हो जाओ।
देवताओं को इस तरह श्राप दे क्षुव की और देखकर देवताओं और राजाओं के पूजनीय द्विज श्रेष्ठ दधीचि ने कहा-‘राजेन्द्र! ब्राह्मण ही बली और प्रभावशाली होते हैं।’ ऐसा स्पष्ट रूप से कहकर ब्राह्मण दधीचि अपने आश्रम में प्रविष्ट हो गये। फिर दधीचि को नमस्कार मात्र करके क्षुव अपने घर चले गये। तत्पश्चात् भगवान विष्णु देवताओं के साथ जैसे आये थे, उसी तरह अपने वैकुण्ठलोक को लौट गये। इस प्रकार वह स्थान स्थानेश्वर नामक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। स्थानेश्वर की यात्रा करके मनुष्य शिव का सायुज्य प्राप्त कर लेता है। तात! मैंने तुम्हें संक्षेप से क्षुव और दधीचि के विवाद की कथा सुनायी और भगवान शंकर को छोड़कर केवल ब्रह्मा और विष्णु को ही जो शाप प्राप्त हुआ, उसका भी वर्णन किया। जो क्षुव और दधीचि के विवाद सम्बन्धी इस प्रसंग का नित्य पाठ करता है, वह अपमृत्यु को जीतकर देहत्याग के पश्चात ब्रह्मलोक में जाता है। जो इसका पाठ करके रणभूमि में प्रवेश करता है, उसे कभी मृत्युका भय नहीं होता तथा वह निश्चय ही विजयी होता है।

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अध्याय 40: देवताओं सहित ब्रह्मा का विष्णुलोक में जाकर अपना दुःख निवेदन करना

नारदजी ने कहा-विधातः! महाप्राज्ञ! आप शिवतत्व का साक्षात्कार कराने वाले हैं। आपने यह बड़ी अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है। तात! वीर वीरभद्र जब दक्ष के यज्ञ का विनाश करके कैलास पर्वत पर चले गये, तब क्या हुआ? यह हमें बताइये।
ब्रह्माजी बोले-नारद! रुद्रदेव के सैनिकों ने जिनके अंग-भंग कर दिये थे, वे समस्त पराजित देवता और मुनि उस समय मेरे लोक में आये। वहाँ मुझ स्वयम्भू को नमस्कार करके सबने बारंबार मेरा स्तवन किया। फिर अपने विशेष क्लेश को पूर्णरूप से सुनाया। उसे सुनकर मैं पुत्रशोक से पीड़ित
हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथित चित्त से बड़ी चिन्ता करने लगा। फिर मैंने भक्तिभाव से भगवान विष्णु का स्मरण किया। इससे मुझे समयोचित ज्ञान प्राप्त हुआ। तदनन्तर देवताओं और मुनियों के साथ मैं विष्णुलोकमें गया और वहाँ भगवान विष्णु को नमस्कार एवं नाना प्रकार के स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे अपना दु:ख निवेदन किया। मैंने कहा-‘देव! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यजमान जीवित हो और समस्त देवता तथा मुनि सुखी हो जायें, वैसा उपाय कीजिये। देवदेव! रमानाथ! देवसुखदायक विष्णु! हम देवता और मुनि निश्चय ही आपकी शरण में आये हैं।’
मुझ ब्रह्मा की यह बात सुनकर भगवान लक्ष्मीपति विष्णु, जिनका मन सदा शिव में लगा रहता है और जिनके हृदय में कभी दीनता नहीं आती, शिवका स्मरण करके इस प्रकार बोले।
श्रीविष्णु ने कहा-देवताओं! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई अपराध बन जाय तो भी उसके बदले में अपराध करने वाले मनुष्यों के लिये वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता। विधातः! समस्त देवता परमेश्वर शिव के अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने भगवान शम्भु को यज्ञ का भाग नहीं दिया। अब तुम सब लोग शुद्ध हृदय से शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले उन भगवान शिव के पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो।
उनसे क्षमा माँगो। जिन भगवान के कुपित होने पर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है। तथा जिनके शासन से लोकपाल सहित यज्ञ का जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है, वे भगवान महादेव इस समय अपनी प्राणवल्लभा सती से बिछड़ गये हैं तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्ष ने अपने दुर्वचनरूपी बाणों से उनके हृदय को पहले से ही घायल कर दिया है; अतः तुम लोग शीघ्र ही जाकर उनसे अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगो। विधे! उन्हें शान्त करने का केवल यही सबसे बड़ा उपाय हैं। मैं समझता हूँ ऐसा करने से भगवान शंकर को संतोष होगा। यह मैंने सच्ची बात कही है। ब्रह्मन्! मैं भी तुम सब लोगों के साथ शिव के निवास स्थान पर चलँगा और उनसे क्षमा माँगूंगा। देवता आदि सहित मुझ ब्रह्मा को इस प्रकार आदेश देकर श्रीहरि ने देवगणों के साथ कैलास पर्वत पर जाने का विचार किया।
तदनन्तर देवता, मुनि और प्रजापति आदि जिनके स्वरूप ही हैं, वे श्रीहरि उन सबको साथ ले अपने वैकुण्ठधाम से भगवान शिवके शुभ निवास गिरिश्रेष्ठ कैलास को गये। कैलास भगवान शिव को सदा ही अत्यन्त प्रिय है। मनुष्योंसे भिन्न किंनर, अप्सराएँ और योगसिद्ध महात्मा पुरुष उसका
भली भाँति सेवन करते हैं तथा वह पर्वत बहुत ही ऊँचा है। उसके निकट रुद्रदेव के मित्र कुबेर की अलका नामक महादिव्य एवं रमणीय पुरी है, जिसे सब देवताओं ने देखा। उस परी के पास ही सौगन्धिक वन भी देवताओं की दृष्टि में आया, जो सब प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा एवं दिव्य था।
उसके भीतर सर्वत्र सुगन्ध फैलाने वाले सौगन्धिक नामक कमल खिले हुए थे। उसके बाहरी भाग में नन्दा और अलकनन्दा– ये दो अत्यन्त पावन दिव्य सरिताएँ बहती हैं, जो दर्शनमात्र से प्राणियों के पाप हर लेती हैं। यक्षराज कुबेर की अलकापुरी और सौगन्धिक वन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते
हुए देवताओं ने थोड़ी ही दूर पर शंकरजी के वटवृक्ष को देखा। उसने चारों ओर अपनी अविचल छाया फैला रखी थी। वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था और उसकी शाखाएँ पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। उस पर कोई घोंसला नहीं था और ग्रीष्म का ताप तो उससे सदा दूर ही रहता था। बड़े पुण्यात्मा पुरुष को ही उसका दर्शन हो सकता है। वह परम रमणीय और अत्यन्त पावन है। वह दिव्य वृक्ष भगवान शम्भु का योगस्थल है। योगियों के द्वारा सेव्य और परम उत्तम है। मुमुक्षुओं के आश्रयभूत उस महायोगमय वटवृक्षके नीचे विष्णु आदि सब देवताओं ने भगवान शंकर को विराजमान देखा। मेरे पुत्र ब्रह्मसिद्ध सनकादि, जो सदा शिव-भक्ति में तत्पर रहनेवाले और शान्त हैं, बड़ी प्रसन्नता के साथ उनकी सेवा में बैठे थे। भगवान शिव का श्रीविग्रह परम शान्त दिखायी देता था। उनके सखा कुबेर, जो गुह्यकों और राक्षसोंके स्वामी हैं, अपने सेवकगणों तथा कुटुम्बीजनों के साथ सदा विशेषरूप से उनकी सेवा किया करते हैं। वे परमेश्वर शिव उस समय तपस्वीजनों को परमप्रिय
लगनेवाला सुन्दररूप धारण किये बैठे थे। भस्म आदि से उनके अंगों की बड़ी शोभा हो रही थी। भगवान शिव अपने वत्सल स्वभाव के कारण सारे संसार के सुहद् हैं। नारद! उस दिन वे एक कुशासन पर बैठे थे और सब संतों के सुनते हुए तुम्हारे प्रश्न करने पर तुम्हें उत्तम ज्ञानका उपदेश दे रहे थे। वे बायाँ चरण अपनी दायीं जाँघ पर और बायाँ हाथ बायें घुटने पर रखे, कलाई में रुद्राक्ष की माला डाले सुन्दर तर्कमुद्रा- से विराजमान थे। इस रूपमें भगवान् शिवका दर्शन करके उस समय विष्णु आदि सब देवताओं ने दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर तुरंत उनके चरणोंमें प्रणाम किया। मेरे साथ भगवान् विष्णु को आया देख सत्पुरुषों के आश्रयदाता भगवान रुद्र उठकर खड़े हो गये और उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम भी किया। फिर विष्णु आदि सब देवताओं ने जब भगवान शिव को प्रणाम कर लिया, तब उन्होंने मुझे नमस्कार किया-ठीक उसी तरह, जैसे लोकों को उत्तम गति प्रदान करने वाले भगवान् विष्णु प्रजापति कश्यप को प्रणाम करते हैं। तत्पश्चात् देवताओं, सिद्धों,
गणाधीशों और महर्षियों से नमस्कृत तथा स्वयं भी ( श्रीविष्णु को एवं मुझको) नमस्कार करने वाले भगवान शिव से श्रीहरि ने आदर- पूर्वक वार्तालाप आरम्भ किया।

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अध्याय 41: देवताओं द्वारा भगवान शिव की स्तुति, दक्ष के जीवित होने का वरदान देना

देवताओं ने भगवान शिवजी की अत्यन्त विनय के साथ स्तुति करते हुए अन्त में कहा- आप पर (उत्कृष्ट), परमेश्वर, परात्पर तथा परात्परतर हैं। आप सर्वव्यापी विश्वमूर्ति महेश्वर को नमस्कार है। आप विष्णुकलत्र, विष्णुक्षेत्र, भानु, भैरव, शरणागतवत्सल, त्र्यम्बक तथा विहरणशील हैं। आप
मृत्युंजय हैं। शोक भी आपका ही रूप है, आप त्रिगुण एवं गुणात्मा हैं। चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि आपके नेत्र हैं। आप सबके कारण तथा धर्ममर्यादास्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। आपने अपने ही तेज से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है। आप निर्विकार, प्रकाशपूर्ण, चिदानन्दस्वरूप, परब्रह्म परमात्मा हैं। महेश्वर ! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और चन्द्र आदि समस्त देवता तथा मुनि आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। चूंकि आप अपने शरीर को आठ भागों में विभक्त करके समस्त संसार का पोषण करते हैं, इसलिये अष्टमूर्ति कहलाते हैं। आप ही सबके आदिकारण करुणामय ईश्वर हैं। आपके भय से यह वायु चलती है। आपके भय से अग्नि जलाने का काम करती है, आपके भय से सूर्य तपता है और आपके ही भय से मृत्यु सब ओर दौड़ती फिरती है। दयासिन्धो! महेशान ! परमेश्वर! प्रसन्न होइये। हम नष्ट और अचेत हो रहे हैं। अतः सदा ही हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। नाथ! करुणानिधे! शम्भो ! आपने अबतक नाना प्रकार की आपत्तियों से जिस तरह हमें सदा सुरक्षित रखा है, उसी तरह आज भी आप हमारी रक्षा कीजिये। नाथ! दुर्गेश! आप शीघ्र कृपा करके इस अपूर्ण यज्ञ का और प्रजापति दक्ष का भी उद्धार कीजिये। यजमान दक्ष जीवित हो जायें, पूषा के दाँत जम जायें और भृगु की दाढ़ी-मूंछ पहले- जैसी हो जाय। शंकर! आयुधों और पत्थरों की वर्षा से जिनके अंग भंग हो गये हैं, उन देवता आदि पर आप सर्वथा अनुग्रह करें, जिससे उन्हें पूर्णतः आरोग्य लाभ हो। नाथ! यज्ञकर्म पूर्ण होने पर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका पूरा-पूरा
भाग हो (उसमें और कोई हस्तक्षेप न करे)। रुद्रदेव! आपके भाग से ही यज्ञ पूर्ण हो, अन्यथा नहीं।
ऐसा कहकर मुझ ब्रह्मा के साथ सभी देवता अपराध क्षमा कराने के लिये उद्यत हो हाथ जोड़ भूमि पर दण्ड के समान पड़ गये।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियों सहित श्रीपति विष्णु के अनुनय-विनय करने पर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये। देवताओं को आश्वासन दे हँसकर उन पर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिव ने कहा।
श्रीमहादेवजी बोले-सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा और विष्णुदेव! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कहता हूँ। तात !
आप दोनों की सभी बातों को मैंने सदा माना है। दक्ष के यज्ञ का यह विध्वंस मैंने नहीं किया है। दक्ष स्वयं ही दूसरोंसे द्वेष करते हैं। दूसरों के प्रति जैसा बर्ताव किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा। अतः ऐसा कर्म कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरों को कष्ट देने वाला हो।’ दक्ष का
मस्तक जल गया है, इस लिये इनके सिर के स्थान में बकरे का सिर जोड़ दिया जाये; भग देवता मित्र की आँख से अपने यज्ञभाग को देखें। तात! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमान के दाँतों से भली भाँति पिसे गये यज्ञान का भक्षण करें। यह मैंने सच्ची बात बतायी है। मेरा विरोध करने वाले भृगु की दाढ़ी के स्थान में बकरे की दाढ़ी लगा दी जाय। शेष सभी देवताओं के, जिन्होंने मुझे यज्ञभाग के रूप में यज्ञ की अवशिष्ट वस्तुएँ दी हैं, सारे अंग पहले की भाँति ठीक हो जायें। अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से, जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनी कुमारों की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषा के हाथों से अपने काम चलायें। यह मैंने
आप लोगों के प्रेमवश कहा है।

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अध्याय 42

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! ऐसा कहकर वेद का अनुसरण करने वाले सुर सम्राट चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेव जी चुप हो गये। भगवान शंकर का वह भाषण सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मा सहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हो उन्हें तत्काल साधुवाद देने लगे। तदनन्तर भगवान शम्भु को आमन्त्रित
करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियों के साथ श्रीविष्णु अत्यन्त हर्षपूर्वक पुनः दक्ष की यज्ञशाला की ओर चले। इस प्रकार उनकी प्रार्थना से भगवान शम्भु विष्णु आदि देवताओं के साथ कनखल में स्थित प्रजापति दक्षकी यज्ञशाला में पधारे। उस समय रुद्रदेव ने वहाँ यज्ञ का और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियों का जो वीरभद्र के द्वारा विध्वंस किया गया था, उसे देखा। स्वाहा, स्वधा, पृषा, तुष्टि, धृति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुत-से यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे। उनसे कुछ लोगों के अंग तोड़ डाले गये थे, कुछ लोगों के बाल नोच लिये गये थे और कितने ही उस समरांगण में अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे थे। उस यज्ञ की वैसी दुरवस्था देखकर भगवान शंकरने अपने गणनायक महापराक्रमी वीरभद्र को बुलाकर हँसते हुए कहा-‘महाबाहु वीरभद्र! यह तुमने कैसा काम किया? तात! तुमने थोड़ी ही देर में देवता तथा ऋषि आदि को बड़ा भारी दण्ड दे दिया। वत्स! जिसने ऐसा द्रोहपूर्ण कार्य किया, इस विलक्षण यज्ञ का आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्षको तुम शीघ्र यहाँ ले आओ।’ भगवान शंकर के ऐसा कहने पर वीरभद्र ने बड़ी उतावली के साथ दक्षका धड़ लाकर उनके सामने डाल दिया। दक्ष के उस शव को सिर से रहित देख लोककल्याणकारी भगवान शंकर ने आगे खड़े हुए वीरभद्र से हँसकर पूछा-‘दक्ष का सिर कहाँ है?’ तब प्रभावशाली वीरभद्र ने कहा-‘प्रभो शंकर! मैंने तो उसी समय दक्ष के सिर को आग में होम दिया था।’ वीरभद्र की यह बात सुनकर भगवान शंकर ने देवताओं को प्रसन्नता पूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले दे रखी थी। भगवान भव ने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओं ने भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया। तदनन्तर शम्भु के आदेश से प्रजापति के धड़ के साथ यज्ञपशु बकरे का सिर जोड़ दिया गया। उस सिर के जोड़े जाते ही शम्भु की शुभ दृष्टि पड़ने से प्रजापति के शरीर में प्राण आ गये और वे तत्काल सोकर जगे हुए पुरुष की भाँति उठकर खड़े हो गये। उठते ही उन्होंने अपने सामने करुणानिधि भगवान शंकर को देखा। देखते ही दक्ष के हृदय में प्रेम उमड़ आया। उस प्रेम ने उनके अन्त:करण को निर्मल एवं प्रसन्न कर दिया। पहले महादेवजी से द्वेष करने के कारण उनका अन्त:करण मलिन हो गया था। परंतु उस समय शिव के दर्शन से वे तत्काल शरद ऋतु के चन्द्रमा की भाँति निर्मल से गये। उनके मन में भगवान शिवकी स्तुति करने का विचार उत्पन्न हुआ। परंतु वे अनुरागाधिक्य के कारण तथा अपनी मरी हुई पुत्री का स्मरण करके व्याकुल हो जाने के कारण तत्काल उनका स्तवन न कर सके। थोड़ी देर बाद मन स्थिर होने पर दक्ष ने लज्जित हो लोकशंकर
शिवशंकर को प्रणाम किया और उनकी स्तुति आरम्भ की। उन्होंने भगवान शंकर की महिमा गाते हुए बारंबार उन्हें प्रणाम किया।
फिर अन्त में कहा- ‘परमेश्वर ! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने मुखसे विद्या, तप और व्रत धारण करने वाले ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। जैसे ग्वाला लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार मर्यादा का पालन करने वाले आप परमेश्वर दण्ड धारण किये उन साधु ब्राह्मणों की सभी विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मैंने दुर्वचनरूपी बाणों से
आप परमेश्वर को बाँध डाला था। फिर भी आप मुझपर अनुग्रह करने के लिये यहाँ आ गये। अब मेरी ही तरह अत्यन्त दैन्यपूर्ण आशा वाले इन देवताओं पर भी कृपा कीजिये। भक्तवत्सल ! दीनबन्धो ! शम्भो ! मुझमें आपको प्रसन्न करने के लिये कोई गुण नहीं है। आप षड़विध ऐश्वर्य से सम्पन्न परात्पर परमात्मा हैं। अतः अपने ही बहुमूल्य उदारतापूर्ण बर्ताव से मुझपर संतुष्ट हों।’
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इस प्रकार लोककल्याणकारी महाप्रभु महेश्वर शंकर की स्तुति करके विनीतचित्त प्रजापति दक्ष चुप हो गये। तदनन्तर श्रीविष्णु ने हाथ जोड़ भगवान वृषभध्वज को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्ण हृदय और वाष्पगद्गद वाणी द्वारा उनकी स्तुति प्रारम्भ की।
तदनन्तर मैंने कहा-देवदेव ! महादेव ! करुणासागर ! प्रभो ! आप स्वतन्त्र परमात्मा हैं, अद्वितीय एवं अविनाशी परमेश्वर हैं। देव! ईश्वर! आपने मेरे पुत्रपर अनुग्रह किया। अपने अपमान की ओर कुछ भी ध्यान न देकर दक्षके यज्ञ का उद्धार कीजिये। देवेश्वर! आप प्रसन्न होइये और समस्त शापों को दूर कर दीजिये। आप सज्ञान हैं। अतः आप ही मुझे कर्तव्य की ओर प्रेरित करने वाले हैं और आप ही अकर्तव्य से रोकने वाले हैं।
महामुने! इस प्रकार परम महेश्वर की स्तुति करके मैं दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर खड़ा हो गया। तब सुन्दर विचार रखनेवाले इन्द्र आदि देवता और लोकपाल शंकरदेव की स्तुति करने लगे। उस समय भगवान शिव को मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठा था। इसके बाद प्रसन्नचित्त हुए समस्त देवताओं, दूसरे-दूसरे सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियों ने भी शंकरजी का सहर्ष स्तवन किया। इसके अतिरिक्त उपदेवों, नागों, सदस्यों तथा ब्राह्मणों ने पृथक-पृथक प्रणामपूर्वक बड़े भक्तिभाव से उनकी स्तुति की।

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अध्याय 43: रुद्र संहिता सती खण्ड का उपसंहार और माहात्म्य

ब्रह्मा जी कहते हैं—नारद! इस प्रकार श्रीविष्ण के, मेरे, देवताओं और ऋषियों के तथा अन्य लोगों के स्तुति करने पर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन शम्भु ने समस्त ऋषियों, देवता आदि को कृपादृष्टि से देखकर तथा मुझ ब्रह्मा और विष्णु का समाधान करके दक्ष से इस प्रकार कहा।
महादेव जी बोले-प्रजापति दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यद्यपि मैं सबका ईश्वर और स्वतन्त्र हूँ तो भी सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहता हूँ। चार प्रकार के पुण्यात्मा पुरुष मेरा भजन करते हैं। दक्ष प्रजापते! उन चारों भक्तों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। पहले के तीन तो सामान्य श्रेणी के भक्त हैं। किंतु चौथे का अपना विशेष महत्त्व है। उन सब भक्तों में चौथा ज्ञानी ही मुझे अधिक प्रिय है। वह मेरा रूप माना गया है। उससे बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ। मैं आत्मज्ञ हूँ। वेद-वेदान्त के पारगामी विद्वान ज्ञान के द्वारा मुझे जान सकते हैं। जिनकी बुद्धि मन्द है, वे ही ज्ञान के बिना मुझे पाने का प्रयत्न करते हैं। कर्म के अधीन हुए मूढ़ मानव मुझे वेद, यज्ञ, दान और तपस्याद्वारा भी कभी नहीं पा सकते। अतः दक्ष! आज से तुम बुद्धि के द्वारा मुझ परमेश्वर को जानकर ज्ञान का आश्रय ले समाहितचित्त होकर कर्म करो। प्रजापते! तुम उत्तम बुद्धिके द्वारा मेरी दूसरी बात भी सुनो। मैं अपने सगुण स्वरूप के विषय में भी इस गोपनीय रहस्य को धर्म की दृष्टि से तुम्हारे सामने प्रकट करता हूँ। जगत्का परम
कारणरूप मैं ही ब्रह्मा और विष्णु हूँ। मैं
( चतुविधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनः सदा । उत्तरोत्तरतः श्रेष्ठास्तेषां दक्ष प्रजापते ।।
आत जिज्ञासुरर्थार्थी जानी चैव चतुर्थकः । पूर्वं त्रयश्च सामान्याश्चतुथों हि विशिष्यते ॥
तत्र ज्ञानी प्रिपतरो मम रूपं च स स्मृतः । तस्माप्रियतरो नान्यः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥
(शि० पु० रु० सं० स० खं० ४३।४-६)
सबका आत्मा ईश्वर और साक्षी हूँ।
स्वयंप्रकाश तथा निर्विशेष हूँ! मुने! अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत की पुष्टि, पालन और संहार करता हुआ उन क्रियाओंके अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करता हूँ। उस अद्वितीय (भेदरहित ) केवल (विशुद्ध) मुझ परब्रह्म परमात्मा में ही अज्ञानी पुरुष
ब्रह्म, ईश्वर तथा अन्य समस्त जीवों को भिन्न रूप से देखता है। जैसे मनुष्य अपने सिर और हाथ आदि अंगोंमें ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी परकीय बुद्धि कभी नहीं करता, उसी तरह मेरा भक्त प्राणिमात्र में मुझसे भिन्नता नहीं देखता। दक्ष! मैं, ब्रह्मा और विष्णु तीनों स्वरूपतः एक ही हैं तथा हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं—ऐसा समझकर जो हम तीनों देवताओं में भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है। जो नराधम हम तीनों देवताओं में भेदबुद्धि रखता है, वह निश्चय ही जबतक चन्द्रमा और तारे रहते हैं, तब तक नरक में निवास करता है। दक्ष! यदि कोई विष्णुभक्त होकर मेरी निन्दा करेगा और मेरा भक्त होकर विष्णुको निन्दा करेगा तो तुम्हें दिये हुए पूर्वोक्त सारे श्राप उन्हीं दोनों को प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्व ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने! भगवान महेश्वर के इस सुखदायक वचन को सुनकर सब देवता, मुनि आदि को उस अवसर पर बड़ा हर्ष हुआ। कुटुम्ब सहित दक्ष बड़ी प्रसन्नता के साथ शिव भक्ति में तत्पर हो गया। वे देवता आदि भी शिव को ही सर्वेश्वर जानकर भगवान शिव के भजन में लग गये। जिसने जिस प्रकार परमात्मा शम्भु की स्तुति की थी, उसे उसी प्रकार संतुष्टचित्त हुए शम्भु ने वर दिया। मुने! तदनन्तर भगवान शिव की आज्ञा पाकर प्रसन्नचित्त हुए शिव भक्त दक्ष ने शिव के ही
अनुग्रह से अपना यज्ञ पूरा किया। उन्होंने देवताओं को तो यज्ञ भाग दिये ही, शिव को भी पूर्ण भाग दिया। साथ ही ब्राहाणों को दान दिया ! इस तरह उन्हें शम्भु का अनुग्रह प्राप्त हुआ। इस प्रकार महादेव जी के उस महान कर्म का विधिपूर्वक वर्णन किया गया। प्रजापति ने ऋत्विजों के सहयोग से उस यज्ञकर्म को विधिवत समाप्त किया। मुनीश्वर ! इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप शंकर के प्रसाद से वह दक्ष का यज्ञ पूरा हुआ। तदनन्तर सब देवता और ऋषि संतुष्ट हो भगवान शिव के यश का वर्णन करते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। दूसरे लोग भी उस समय वहाँ से सुखपूर्वक विदा हो गये। मैं और श्रीविष्णु भी अत्यन्त प्रसन्न से भगवान शिव के सर्वमंगलदायक सुयश का निरन्तर गान करते हुए अपने अपने स्थान को सानन्द चले आये। सत्पुरुषों के आश्रयभूत महादेव जी भी दक्ष से सम्मानित हो प्रीति और प्रसन्नता के साथ गणों सहित अपने निवास स्थान कैलास पर्वत को चले गये। अपने पर्वत पर आकर शम्भुने अपनी प्रिया सती का स्मरण किया।
और प्रधान-प्रधान गणों से उनकी कथा कही। इस प्रकार दक्ष कन्या सती यज्ञ में अपने शरीर को त्यागकर फिर हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई, यह बात प्रसिद्ध है। फिर वहाँ तपस्या करके गौरी शिवा ने भगवान शिव का पति रूप में वरण किया। वे उनके वामांग में स्थान पाकर अद्भुत लीलाएँ करने लगीं।
नारद! इस तरह मैंने तुमसे सती के परम अद्भत दिव्य चरित्र का वर्णन किया है, जो भोग और मोक्ष को देने वाला तथा सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। यह उपाख्यान पाप को दूर करने वाला, पवित्र एवं परम पावन है। स्वर्ग, यश तथा आयुको देने वाला तथा पुत्र-पौत्ररूप फल प्रदान करने वाला है।
तात! जो भक्तिमान पुरुष भक्तिभाव से लोगों को यह कथा सुनाता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण कर्मों का फल पाकर परलोक में परमगति को प्राप्त कर लेता है।

रूद्र संहिता सती खण्ड संपन्न