अध्याय 1 : हिमालय के स्थावर-जंगम द्विविध स्वरूप एवं दिव्यत्व को वर्णन

नारद जी ने पूछा-ब्रह्मन् ! पिता के यज्ञ में अपने शरीर का परित्याग करके दक्ष कन्या जगदम्बा सती देवी किस प्रकार गिरिराज हिमालय की पुत्री हुई? किस तरह अत्यन्त उग्र तपस्या करके उन्होंने पुनः शिव को ही पति रूप में प्राप्त किया? यह मेरा प्रश्न है, आप इस पर भलीभाँति और विशेष रूप से प्रकाश डालिये।
ब्रह्माजी ने कहा—मुने ! नारद! तुम पहले पार्वती की माता के जन्म, विवाह और अन्य भक्तिवर्धक पावन चरित्र सुनो। मुनिश्रेष्ठ! उत्तर दिशा में पर्वतों का राजा हिमवान नामक महान पर्वत है, जो महा तेजस्वी और समृद्धिशाली है। उसके दो रूप प्रसिद्ध हैं- एक स्थावर और दूसरा जंगम। मैं संक्षेप से उसके सूक्ष्म (स्थावर ) स्वरूप का वर्णन करता हूँ। वह रमणीय पर्वत नाना प्रकार के रलों का आकर (खान) है और पूर्व तथा पश्चिम समुद्र के भीतर प्रवेश करके इस तरह खड़ा है, मानो भूमण्डल को नापने के लिये कोई मानदण्ड हो। वह नाना प्रकार के वृक्ष से व्याप्त है और अनेक शिखरों के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न दिखायी देता है। सिंह, व्याघ्र आदि पशु सदा सुखपूर्वक उसका सेवन करते हैं। हिम का तो वह भंडार ही है, इसलिये अत्यन्त उग्र जान पड़ता है। भाँति-भाँति के
आश्चर्यजनक दृश्यों से उसकी विचित्र शोभा होती है। देवता, ऋषि, सिद्ध और मुनि उस पर्वतका आश्रय लेकर रहते हैं। भगवान शिव को वह बहुत ही प्रिय है, तपस्या करने का स्थान है। स्वरूप से ही वह अत्यन्त पवित्र और महात्माओं को भी पावन करने वाला है। तपस्या में वह अत्यन्त शीघ्र सिद्धि प्रदान करता है। अनेक प्रकार के धातुओं की खान और शुभ है। वही दिव्य शरीर धारण करके
सर्वांग-सुन्दर रमणीय देवता के रूप में भी स्थित है। भगवान विष्णु का अविकृत अंश है, इसीलिये वह शैलराज साधु-संतों को अधिक प्रिय है।
एक समय गिरिवर हिमवान ने अपनी कुल-परम्परा की स्थिति और धर्म की वृद्धिके लिये देवताओं तथा पितरों का हित करने की अभिलाषा से अपना विवाह करने की इच्छा की। मुनीश्वर! उस अवसर पर सम्पूर्ण देवता अपने स्वार्थ का विचार करके दिव्य पितरों के पास आकर उनसे प्रसन्नता पूर्वक बोले। देवताओं ने कहा-पितरों! आप सब लोग प्रसन्नचित्त होकर हमारी बात सुनें और यदि देवताओं का कार्य सिद्ध करना आपको भी अभीष्ट हो तो शीघ्र वैसा ही करें। आपकी ज्येष्ठ पुत्री जो मेना नाम से प्रसिद्ध है, वह मंगलरूपिणी है। उसका विवाह आप लोग अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक हिमवान पर्वत से कर दें। ऐसा करने पर आप सब लोगों को सर्वथा महान लाभ होगा और देवताओं के दुःखोंका निवारण भी पग- पग पर होता रहेगा।
देवताओं की यह बात सुनकर पितरों ने परस्पर विचार करके स्वीकृति दे दी और अपनी पुत्री मैना को विधिपूर्वक हिमालय के हाथ में दे दिया। उस परम मंगलमय विवाह में बड़ा उत्सव मनाया गया। मुनीश्वर नारद! मैना साथ हिमालय के शुभ विवाह का यह सुखद प्रसंग मैंने तुमसे प्रसन्नता पूर्वक कहा है। अब और क्या सुनना चाहते हो?

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अध्याय 2:

नारदजी ने पूछा-विधे! विद्वन्! अब आदरपूर्वक मेरे सामने मैना की उत्पत्ति का वर्णन कीजिये। उसे किस प्रकार शाप प्राप्त हुआ था, यह कहिये और मेरे संदेह का निवारण कीजिये।
ब्रहााजी बोले—मुने! मैंने अपने दक्ष नामक जिस पुत्रकी पहले चर्चा की है, उनके साठ कन्याएँ हुई थीं, जो सृष्टि की उत्पत्ति में कारण बनीं। नारद! दक्ष ने कश्यप आदि श्रेष्ठ मुनियों के साथ उनका विवाह किया था, यह सब वृत्तान्त तो तुम्हें विदित ही है। अब प्रस्तुत विषय को सुनो। उन
कन्याओं में एक स्वधा नाम की कन्या थी, जिसका विवाह उन्होंने पितरोंके साथ किया। स्वधा की तीन पुत्रियाँ थीं, जो सौभाग्य- शालिनी तथा धर्म की मूर्ति थीं। उनमेंसे ज्येष्ठ पुत्री को नाम ‘मैना’ था। मंझली ‘धन्या’ के नाम से प्रसिद्ध थी और सबसे छोटी कन्याका नाम ‘कलावती’ था। ये सारी
कन्याएँ पितरों की मानसी पुत्रियाँ थीं- उनके मन से प्रकट हुई थीं। इनका जन्म किसी माता के गर्भ से नहीं हुआ था, अत: एवं ये अयोनिजा थीं; केवल लोक व्यवहार से स्वधा की पुत्री मानी जाती थीं। इनके सुन्दर नामों का कीर्तन करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। ये सदा सम्पूर्ण जगत की वन्दनीया लोक माताएँ हैं और उत्तम अभ्युदय से सुशोभित रहती हैं। सब की
सब परम योगिनी, ज्ञाननिधि तथा तीनों लोकों में सर्वत्र जा सकने वाली हैं। मुनीश्वर ! एक समय वे तीनों वहिने भगवान विष्णु के निवास स्थान श्वेतद्वीप में उनका दर्शन करने के लिये गयीं। भगवान विष्णु को प्रणाम और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करके वे उन्हीं की आज्ञा से वहाँ ठहर गयीं। उस समय वहाँ संतों का बड़ा भारी समाज एकत्र हुआ था। मुने! उसी अवसर पर मेरे पुत्र सनकादि
सिद्धगण भी वहाँ गये और श्रीहरि की स्तुति-वन्दना करके उन्हीं की आज्ञा से वहाँ ठहर गये। सनकादि मुनि देवताओं के आदि पुरुष और सम्पूर्ण लोकों में वन्दित हैं। वे जब वहाँ आकर खड़े हुए, उस समय श्वेतद्वीप के सब लोग उन्हें देख प्रणाम करते हुए उठकर खड़े हो गये। परंतु ये तीनों बहिनें उन्हें देखकर भी वहाँ नहीं उठीं। इससे सनत कुमार ने उनको (मर्यादा-रक्षार्थ ) उन्हें स्वर्ग से दूर होकर नर-स्त्री बनने का श्राप दे दिया। फिर उनके प्रार्थना करने पर वे प्रसन्न हो गये और बोले..
सनत कुमार ने कहा-पितरों की तीनों कन्याओं ! तुम प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनो। यह तुम्हारे शोक का नाश करने वाली और सदा ही तुम्हें सुख देने वाली हैं। तुममें से जो ज्येष्ठ है, वह भगवान विष्णु की अंशभूत हिमालय गिरि की पली हो। उससे जो कन्या होगी, वह ‘पार्वती’ के नाम से विख्यात होगी। पितरों की दूसरी प्रिय कन्या, योगिनी धन्या राजा जनक की पली होगी।
उसकी कन्या के रूप में महालक्ष्मी अवतीर्ण होंगी, जिनका नाम ‘सीता’ होगा। इसी प्रकार पितरों की छोटी पुत्री कलावती द्वापर के अन्तिम भाग में वृषभानु वैश्य की पली होगी और उसकी प्रिय पुत्री ‘राधा’ के नाम से विख्यात होगी। योगिनी मेनका (मैना) पार्वतीजी के वरदान से अपने पति के साथ उसी शरीर से कैलास नामक परमपद को प्राप्त हो जायगी। धन्या तथा उनके पति, जनक कुल में उत्पन्न हुए जीवन्मुक्त महायोगी राजा सीरध्वज, लक्ष्मी स्वरूपा सीता के प्रभाव से वैकुण्ठ धाम में जायेंगे। वृषभानु के साथ वैवाहिक मंगल कृत्य सम्पन्न होने के कारण जीवनमुक्त योगिनी कलावती भी अपनी कन्या राधा के साथ गोलोक धाम में जायगी-इसमें संशय नहीं है। विपत्ति में
पड़े बिना कहाँ किन की महिमा प्रकट होती है। उत्तम कर्म करने वाले पुण्यात्मा पुरुष को संकट जब टल जाता है, तब उन्हें दुर्लभ सुखकी प्राप्ति होती है। अब तुम लोग प्रसन्नतापूर्वक मेरी दूसरी बात भी सुनो, जो सदा सुख देने वाली है। मैना की पुत्री जगदम्बा पार्वती देवी अत्यन्त दुस्सह तप करके
भगवान् शिवकी प्रिय पत्नी बनेंगी। धन्या की पुत्री सीता भगवान श्रीरामजी की पत्नी होंगी और लोकाचार का आश्रय ले श्रीराम के साथ विहार करेंगी। साक्षात गोलोकधाम में निवास करने वाली राधा ही कलावती की पुत्री होंगी। वे गुप्त स्नेह में बँधकर श्रीकृष्ण की प्रियतमा बनेगी।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! इस प्रकार श्राप के ब्याज से दुर्लभ वरदान देकर सबके द्वारा प्रशंसित भगवान सनतकुमार मुनि भाइयों सहित वहीं अन्तर्धान हो गये। तात! पितरों की मानसी पुत्री वे तीनों बहिनें इस प्रकार श्रापमुक्त हो सुख पाकर तुरंत अपने घरको चली गयीं।

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अध्याय 3 : देवताओं का हिमालय के पास जाना और उनकी स्तुति करना

नारद जी बोले–महामते ! आपने मैना के पूर्वजन्म की यह शुभ एवं अद्भुत कथा कही है। उनके विवाह का प्रसंग भी मैंने सुन लिया। अब आगे के उत्तम चरित्र का वर्णन कीजिये।
ब्रह्माजी ने कहा-नारद! जब मैना के साथ विवाह करके हिमवान अपने घर को गये, तब तीनों लोकों में बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। हिमालय भी अत्यन्त प्रसन्न हो मैना के साथ अपने सुखदायक सदन में निवास करने लगे। मुने! उस समय श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और महात्मा
मुनि गिरिराज के पास गये। उन सब देवताओं को आया देख महान हिमगिरि ने प्रशंसापूर्वक उन्हें प्रणाम किया और अपने भाग्य की सराहना करते हुए भक्तिभाव से उन सबका आदर-सत्कार किया। हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर वे बड़े प्रेम से स्तुति करने को उद्यत हुए। शैलराज के शरीर में महान रोमांच हो आया। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू बहने लगे। मुने! हिमशैल ने प्रसन्न मन से अत्यन्त प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और विनीतभाव से खड़े हो श्रीविष्णु आदि देवताओं से कहा।
हिमाचल बोले-आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरी बड़ी भारी तपस्या सफल हुई । आज मेरा ज्ञान सफल हुआ और आज मेरी सारी क्रियाएँ सफल हो गयीं। आज मैं धन्य हुआ। मेरी सारी भूमि धन्य
हुई । मेरा कुल धन्य हुआ। मेरी स्त्री तथा मेरा सब कुछ धन्य हो गया, इसमें संशय नहीं
है; क्योंकि आप सब महान देवता एक साथ मिलकर एक ही समय यहाँ पधारे हैं। मुझे अपना सेवक समझकर प्रसन्नता- पूर्वक उचित कार्य के लिये आज्ञा दें।
हिमगिरि का यह वचन सुनकर वे सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और अपने कार्य की सिद्धि मनाते हुए बोले। देवताओं ने कहा—महाप्राज्ञ हिमाचल! हमारा हितकारक वचन सुनो। हम सब लोग जिस काम के लिये यहाँ आये हैं, उसे प्रसन्नतापूर्वक बता रहे हैं। गिरिराज ! पहले जो जगदम्बा उमा दक्ष कन्या सती के रूपमें प्रकट हुई थीं और रुद्रपली होकर सुदीर्घकाल तक इस भूतलपर क्रीडा करती
रहीं, वे ही अम्बिका सती अपने पिता से अनादर पाकर अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करके यज्ञ में शरीर त्याग अपने परम धाम को पधार गयी। हिमगिरे ! वह कथा लोक में विख्यात हैं और तुम्हें भी विदित है। यदि वे सती पुनः तुम्हारे घर में प्रकट हो जायें तो देवताओं का महान लाभ हो सकता है।
ब्रह्माजी कहते हैं-श्रीविष्णु आदि देवताओं की यह बात सुनकर गिरिराज हिमालय मन-ही-मन प्रसन्न हो आदर से झुक गये और बोले-‘प्रभो! ऐसा हो तो बड़े सौभाग्य की बात है।

तदनन्तर वे देवता उन्हें बड़े आदर से उमा को प्रसन्न करने की विधि बताकर स्वयं सदाशिव- पली उमा की शरण में गये। एक सुन्दर स्थान में स्थित हो समस्त देवताओं ने जगदम्बा का स्मरण किया और बारंबार प्रणाम करके वे वहाँ श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे।
देवता बोले-शिवलोक में निवास करने वाली देवि ! उमे ! जगदम्बे ! सदाशिव- प्रिये !दुर्गे ! महेश्वरि ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप पावन शान्तस्वरूप श्रीशक्ति हैं, परमपावन पुष्टि हैं। अव्यक्त प्रकृति और महत्तत्त्व-ये आपके ही रूप हैं। हम भक्तिपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं।
आप कल्याणमयी शिवा हैं। आपके हाथ भी कल्याणकारी हैं। आप शुद्ध, स्थूल, सूक्ष्म और सबका परम आश्रय हैं। अन्तर्विद्या और सुविद्या से अत्यन्त प्रसन्न रहने वाली आप देवी को हम प्रणाम करते हैं। आप श्रद्धा हैं। आप धृति हैं। आप श्री हैं और आप ही सबमें व्याप्त रहने वाली देवी हैं। आप ही सूर्यकी किरणें हैं और आप ही अपने प्रपंच को प्रकाशित करने वाली हैं। ब्रह्माण्ड रूप शरीर में और जगत के जीवों में रहकर जो ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत की पुष्टि करती
हैं, उन आदि देवी को हम नमस्कार करते हैं। आप ही वेदमाता गायत्री हैं, आप ही सावित्री और सरस्वती हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत के लिये वार्ता नामक वृत्ति हैं और आप ही धर्मस्वरूपी वेदत्रयी हैं। आप ही सम्पूर्ण भूतोंमें निद्रा बनकर रहती हैं। उनकी क्षुधा और तृप्ति भी आप ही हैं। आप ही तृष्णा, कान्ति, छबि, तुष्टि और सदा सम्पूर्ण आनन्द को देने वाली हैं। आप ही पुण्यकर्ताओं के यहाँ लक्ष्मी बनकर रहती हैं और आप ही पापियों के घर सदा ज्येष्ठा (लक्ष्मी की बड़ी बहिन दरिद्रता)- के रूप में वास करती हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत की शान्ति हैं। आप ही धारण करने वाली धात्री एवं प्राणों का पोषण करने वाली शक्ति हैं। आप ही पाँचों भूतों के सारतत्त्व को
प्रकट करनेवाली तत्त्वस्वरूपा हैं। आप ही नीतिज्ञों की नीति तथा व्यवसायरूपिणी हैं। आप ही सामवेद की गीति हैं। आप ही ग्रन्थि हैं। आप ही यजुर्मन्त्रों की आहुति हैं। वेदकी मात्रा तथा अथर्ववेद की परम गति भी आप ही हैं। जो प्राणियों के नाक, कान, नेत्र, मुख, भुजा, वक्षःस्थल और हृदय में धृति रूप से स्थित हो सदा ही उनके लिये सुख का विस्तार करती हैं। जो निद्रा के
रूपमें संसार के लोगों को अत्यन्त सुभग प्रतीत होती हैं, वे देवी उमा जगत की स्थिति एवं पालन के लिये हम सब पर प्रसन्न हों।
इस प्रकार जगजननी सती-साध्वी महेश्वरी उमा की स्तुति करके अपने हृदय में विशुद्ध प्रेम लिये वे सब देवता उनके दर्शन की इच्छा से वहाँ खड़े हो गये।

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अध्याय 4: उमा देवी का दिव्य रूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना
अभिप्राय निवेदन करना

ब्रह्मा जी कहते हैं-नारद! देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर दुर्गम पीड़ा का नाश करने वाली जगजननी देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हुईं। वे परम अद्भुत दिव्य रत्नमय रथपर बैठी हुई थीं। उस श्रेष्ठ रथ में धुंधुरू लगे हुए थे और मुलायम बिस्तर बिछे थे। उनके श्रीविग्रह का एक-एक अंग करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान और रमणीय था। ऐसे अवयवों से वे अत्यन्त उद्धासित हो रही थी। सब ओर फैली हुई अपनी तेजोराशि के मध्य भाग में वे विराजमान थीं। उनका रूप बहुत ही सुन्दर था और उनकी छवि की कहीं तुलना नहीं थी। सदाशिव के साथ विलास करने वाली उन महामाया की किसी के साथ समानता नहीं थी। शिवलोक में निवास करने वाली वे देवी त्रिविध चिन्मय गुणों से युक्त थीं। प्राकृत गुणों का अभाव होने से उन्हें निर्गुणा कहा जाता है। वे नित्यरूपा हैं। वे दुष्टों पर प्रचण्डकोप करने के कारण चण्डी कहलाती हैं, परंतु स्वरूप से शिवा (कल्याणमयी)
हैं। सबकी सम्पूर्ण पीड़ाओं का नाश करने वाली तथा सम्पूर्ण जगत की माता हैं। वे ही प्रलय काल में महानिद्रा होकर सबको अपने अंक में सुला लेती हैं तथा वे समस्त स्वजनों (भक्तों) का संसार-सागर से उद्धार कर देती हैं। शिवादेवी की तेजोराशि के प्रभाव से देवता उन्हें अच्छी तरह देख न सके। तब उनके दर्शन की अभिलाषा से देवताओं ने फिर उनका स्तवन किया। तदनन्तर दर्शन की इच्छा रखने वाले विष्णु आदि सब देवता उन जगदम्बा की कृपा पाकर वहाँ उनका सुस्पष्ट दर्शन कर सके।
इसके बाद देवता बोले–अम्बिके! महादेवि! हम सदा आपके दास हैं। आप प्रसन्नतापूर्वक हमारा निवेदन सुनें। पहले आप दक्ष की पुत्री रूप से अवतीर्ण हो लोक में रुद्रदेव की वल्लभा हुई थी। उस समय आपने ब्रह्माजी के तथा दूसरे देवताओं के महान दुःख का निवारण किया था। तदनन्तर पिता से अनादर पाकर अपनी की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार अपने शरीर को त्याग दिया और स्वधाम में पधार आयीं। इससे भगवान् हरको भी बड़ा दुःख हुआ। महेश्वरि! आपके चले आने से देवताओं का कार्य पूरा नहीं हुआ। अतः हम देवता और मुनि व्याकुल होकर आपकी शरण में आये हैं। महेशानि! शिवे ! आप देवताओं का मनोरथ पूर्ण करें, जिससे सनत्कुमार का वचन सफल हो। देवि! आप भूतलपर अवतीर्ण हो पुनः रुद्रदेव की पत्नी होइये और यथायोग्य ऐसी लीला कीजिये, जिससे देवताओं को सुख प्राप्त हो। देवि! इससे कैलास पर्वत पर निवास करने वाले रुद्रदेव भी सुखी होंगे।
आप ऐसी कृपा करें, जिससे सब सुखी हों और सबका सारा दुःख नष्ट हो जाये।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर विष्णु आदि सब देवता प्रेम में मग्न हो गये और भक्ति से विनम्र होकर चुपचाप खड़े रहे। देवताओं की यह स्तुति सुनकर शिवा देवी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके हेतु का विचार करके अपने प्रभु शिव का स्मरण करती हुई भक्तवत्सला दयामयी उमादेवी उस समय विष्णु आदि देवताओं को सम्बोधित करके हँसकर बोलीं।
उमा ने कहा-हे हरे! हे विधे! और हे देवताओं तथा मुनियों! तुम सब लोग अपने मन से व्यथा को निकाल दो और मेरी बात सुनो। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसमें संशय नहीं है। सब लोग अपने-अपने स्थान को जाओ और चिरकाल तक सुखी रहो। मैं अवतार ले मैना की पुत्री होकर उन्हें सुख देंगी और रुद्रदेव की पत्नी हो जाऊँगी।
यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है। भगवान शिव की लीला अद्भुत है। वह ज्ञानियों को भी मोह में डालने वाली हैं। देवताओं! उस यज्ञ में जाकर पिता के द्वारा अपने स्वामी का अनादर देख जब से मैंने दक्ष जनित शरीर को त्याग दिया है, तभी से वे मेरे स्वामी कालाग्नि रुद्रदेव तत्काल दिगम्बर हो गये। वे मेरी ही चिन्ता में डूबे रहते हैं। उनके मन में यह विचार उठा करता है कि धर्म को जानने वाली सती मेरा रोष देखकर पिता के यज्ञ में गयी और वहाँ मेरा अनादर देख मुझमें प्रेम होने के कारण उसने अपना शरीर त्याग दिया। यही सोचकर वे घर-बार छोड़ अलौकिक वेष धारण करके योगी हो गये। मेरी स्वरूपभूता सती के वियोग को वे महेश्वर सहन न कर सके। देवताओं! भगवान रुद्र की भी यह अत्यन्त इच्छा है कि भूतल पर मैना और हिमाचल के घर में मेरा अवतार हो; क्योंकि वे पुनः मेरा पाणिग्रहण करने की अधिक अभिलाषा रखते हैं। अतः मैं रुद्रदेव के संतोष के लिये अवतार लूँगी और लौकिक गति का आश्रय लेकर हिमालय-पली मैना की पुत्री होऊँगी।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! ऐसा कहकर जगदम्बा शिवा उस समय समस्त देवताओं के देखते-देखते ही अदृश्य हो गयीं और तुरंत अपने लोक में चली गयीं। तदनन्तर हर्ष से भरे हुए विष्णु आदि समस्त देवता और मुनि उस दिशा को प्रणाम करके अपने- अपने धाम में चले गये।

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अध्याय 5: मैना को प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवा देवी का उन्हें अभीष्ट वरदान से संतुष्ट करना

ब्रह्माजी ने कहा-मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ विप्रवर नारद! जब विष्णु आदि देव समुदाय हिमालय और मैना को देवीकी आराधना का उपदेश दे चले गये, तब गिरिराज हिमाचल और मैना दोनों दंपत्ति ने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। वे दिन-रात शम्भु और शिवा का चिन्तन करते हुए भक्तियुक्त चित्त से नित्य उनकी सम्यक् रीति से आराधना करने लगे। हिमवान की पत्नी मैना बड़ी प्रसन्नता से शिव सहित शिवा देवी की पूजा करने लगीं। वे उन्हीं के संतोष के लिये सदा ब्राह्मणों को दान देती रहती थीं। मनमें संतान की कामना ले मैना चैत्रमास के आरम्भ से लेकर सत्ताईस वर्षा काल तक प्रतिदिन तत्परता पूर्वक शिवा- देवीकी पूजा और आराधना में लगी रहीं। वे अष्टमी को उपवास करके नवमी को लडू, बलि-सामग्री, पीठी, खीर और गन्ध-पुष्प आदि देवी को भेंट करती थीं। गंगा के किनारे औषधिप्रस्थ में उमा की मिट्टी की मूर्ति बनाकर नाना प्रकार की वस्तुएँ समर्पित
करके उसकी पूजा करती थीं। मैना देवी कभी निराहार रहतीं, कभी व्रतके नियमों का पालन करतीं, कभी जल पीकर रहतीं और कभी हवा पीकर ही रह जाती थीं। विशुद्ध तेज से दमकती हुई दीप्तिमयी मैना ने प्रेमपूर्वक शिवा में चित्त लगाये सत्ताईस वर्ष व्यतीत कर दिये। सत्ताईस वर्ष पूरे होने पर जगजननी शंकरकामिनी जगदम्बा उमा अत्यन्त प्रसन्न हुई। मैना की उत्तम भक्ति से संतुष्ट हो वे
परमेश्वरी देवी उनपर अनुग्रह करने के लिये उनके सामने प्रकट हुई। तेजोमण्डल के बीच में विराजमान तथा दिव्य अवयवों से संयुक्त उमा देवी प्रत्यक्ष दर्शन देकर मैना से हँसती हुई बोलीं।
देवी ने कहा–गिरिराज हिमालय की रानी महासाध्वी मैना! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, उसे कहो। मैना! तुमने तपस्या, व्रत और समाधि के द्वारा जिस-जिस वस्तु के लिये प्रार्थना की है, वह सब मैं तुम्हें दूंगी। तब मैना ने प्रत्यक्ष प्रकट हुई कालिका देवी को देखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा।

मेना बोलीं-देवि! इस समय मुझे आपके रूप का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। अतः मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूँ। कालिके! इसके लिये आप प्रसन्न हों।
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! मेनाके ऐसा कहने पर सर्वमोहिनी कालिका देवी ने मन में अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी दोनों बाहों से खींचकर मैना को हृदय से लगा लिया। इससे उन्हें तत्काल महाज्ञान की प्राप्ति हो गयी।
फिर तो मैनादेवी प्रिय वचनों द्वारा भक्ति-भाव से अपने सामने खड़ी हुई कालिका की स्तुति करने लगीं। मैना बोलीं जो मह्ममाया जगत्को धारण करने वाली चण्डिका, लोकधारिणी तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थों को देने वाली हैं, उन महादेवी को मैं प्रणाम करती हूं। जो नित्य आनन्द प्रदान करने वाली माया, योगनिद्रा, जगजननी तथा सुन्दर कमलों की माला से
अलंकृत हैं, उन नित्य-सिद्धा उमादेवी को मैं नमस्कार करती हूं। जो सबकी मातामही, नित्य आनन्दमयी, भक्तों के शोक का नाश करने वाली तथा कल्पपर्यन्त नारियों एवं प्राणियों की बुद्धिरूपिणी हैं, उन देवी को मैं प्रणाम करती हूं। आप यतियोंके अज्ञानमय बन्धन के नाश की हेतुभूता ब्रह्मविद्या हैं। फिर मुझ जैसी नारियां आपके प्रभाव का क्या वर्णन कर सकती हैं। अथर्ववेद की जो हिंसा (मारण आदिका प्रयोग) है, वह आप ही हैं। देवि ! आप मेरे अभीष्ट फल को सदा प्रदान कीजिये। भावहीन (आकार रहित) तथा अदृश्य नित्यानित्य तन्मात्राओं से आप ही पंचभूतों के समुदाय को संयुक्त करती हैं। आप ही उनकी शाश्वत शक्ति हैं। आपको स्वरूप नित्य है। आप समय-समय पर योगयुक्त एवं समर्थ नारी के रूप में प्रकट होती हैं। आप ही जगत की योनि और
आधार-शक्ति हैं। आप ही प्राकृत तत्त्वों से परे नित्या प्रकृति कही गयी हैं। जिसके द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को वश में किया जाता (जाना जाता) है, वह नित्या विद्या आप ही हैं। हे मात! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। आप ही अग्नि के भीतर व्याप्त उग्र दाहिका शक्ति हैं। आप ही सूर्य-किरणों में स्थित प्रकाशिका शक्ति हैं। चन्द्रमा में जो आह्लादिका शक्ति है, वह भी आप ही हैं। ऐसी आप चण्डी- देवी का मैं स्तवन और वन्दन करती हैं। आप स्त्रियों को बहुत प्रिय हैं। ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियों की ध्येयभूता नित्या ब्रह्म शक्ति भी आप ही हैं। सम्पूर्ण जगत्की वांछा तथा श्रीहरिकी माया भी आप ही हैं। जो देवी इच्छानुसार रूप धारण करके सृष्टि, पालन और संहारमयी हो उन कार्यों का सम्पादन करती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रके शरीर की भी हेतुभूता हैं, वे आप ही हैं। देवि! आज आप मुझपर प्रसन्न हों। आपको पुनः मेरा नमस्कार है।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! मैना के इस प्रकार स्तुति करने पर दुर्गा कालिका ने पुनः उन मैना देवी से कहा-‘तुम अपना मनोवांछित वर माँग लो। हिमाचलप्रिये! तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह माँगो। उसे मैं निश्चय ही दे दूंगी। तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।’ महेश्वरी उमा का यह अमृत के समान मधुर वचन सुनकर हिमगिरिकामिनी मैना बहुत संतुष्ट हुई और इस प्रकार बोलीं- ‘शिवे! आपकी जय हे, जय हो। उत्कृष्ट ज्ञान वाली महेश्वरि! जगदम्बि के! यदि मैं वर पाने के योग्य हैं तो फिर आपसे श्रेष्ठ वर माँगती हूँ। जगदम्बे! पहले तो मुझे सौ पुत्र हों। उन सबकी बड़ी आयु हो। वे बल- पराक्रम से युक्त तथा ऋद्धि-सिद्धिसे सम्पन्न हों। उन पुत्रों के पश्चात मेरे एक पुत्री हो, जो स्वरूप और गुणों से सुशोभित होने वाली हो; वह दोनों कुलोंको आनन्द देनेवाली तथा तीनों लोकों में पूजित से। जगदम्बिके! शिवे! आप ही देवताओंका कार्य सिद्ध करने के लिये मेरी पुत्री तथा रुद्रदेव की पत्नी होइये और तदनुसार लीला कीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! मैना की बात सुनकर प्रसनदया देवी उमा ने उनके मनोरथको पूर्ण करने के लिये मुस्करा कर कहा।
देवी बोली-पहले तुम्हें सौ बलवान पुत्र प्राप्त होंगे। उनमें भी एक सबसे अधिक बलवान और प्रधान होगा, जो सबसे पहले उत्पन्न होगा। तुम्हारी भक्ति से संतुष्ट हो मैं स्वयं तुम्हारे यहाँ पुत्री के रूप में अवतीर्ण होऊँगी और समस्त देवताओं से सेवित हो उनका कार्य सिद्ध करूंगी। ऐसा कहकर जगद्धात्री परमेश्वरी कालिका शिवा मैना के देखते-देखते वहीं अदृश्य हो गयीं। तात! महेश्वरी से अभीष्ट वर पाकर मैना को भी अपार हर्ष हुआ। उनका तपस्याजनित सारा क्लेश नष्ट हो गया। मुने! फिर कालक्रम से मैना के गर्भ रहा और वह प्रतिदिन बढ़ने लगा। समयानुसार उसने एक उत्तम पुत्र को उत्पन्न किया, जिसका नाम मैनाक था। उसने समुद्र साथ उत्तम मैत्री बाँधी। वह अद्भुत पर्वत नागवधुओं के उपभोग का स्थल बना हुआ है। उसके समस्त अंग श्रेष्ठ हैं। हिमालय के
सौ पुत्रों में वह सबसे श्रेष्ठ और महान बल-पराक्रम से सम्पन्न है। अपने से या अपने बाद प्रकट हुए समस्त पर्वतों में एकमात्र मैनाक ही पर्वतराज के पद पर प्रतिष्ठित है।

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अध्याय 6: देवी उमा का हिमवान के हृदय तथा मैना के गर्भ में आना, गर्भस्था देवी का
देवताओं द्वारा स्तवन

ब्रह्मा जी कहते हैं-नारद! तदनन्तर मैना और हिमालय आदरपूर्वक देवकार्य की सिद्धि के लिये कन्या प्राप्ति के लिए वहाँ जगजननी भगवती उमा का चिन्तन करने लगे। जो प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली हैं, वे महेश्वरी उमा अपने पूर्ण अंश से गिरिराज हिमवान के
चित्त में प्रविष्ट हुई। इससे उनके शरीर में अपूर्व एवं सुन्दर प्रभा उतर आयी। वे आनन्दमग्न हो अत्यन्त प्रकाशित होने लगे। उस अद्भुत तेजोराशि से सम्पन्न महामना हिमालय अग्नि के समान अदृश्य हो गये थे। तत्पश्चात सुन्दर कल्याणकारी समय में गिरिराज हिमालय ने अपनी प्रिया मैना के उदर में शिवा के उस परिपूर्ण अंश का आधान किया। इस तरह गिरिराज की पत्नी मैना ने हिमालय के हृदय में विराजमान करुणानिधान देवी की कृपा से सुखदायक गर्भ धारण किया। सम्पूर्ण जगत की निवासभूता देवी के गर्भ में आने से गिरिप्रिया मैना सदा तेजोमण्डल के बीच में स्थित होकर अधिक शोभा पाने लगीं। अपनी प्रिया शुभांगी मेनाको देखकर गिरिराज हिमवान बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करने लगे। गर्भ में जगदम्बा के आ जाने से वे महान तेज से सम्पन्न हो गयी थीं। मुने! उस अवसर में विष्णु आदि देवता और मुनियों ने वहाँ आकर गर्भ में निवास करने वाली शिवा- देवीकी स्तुति की और तदनन्तर महेश्वरी की नाना प्रकार से स्तुति करके प्रसन्नचित्त हुए ।

वे सब देवता अपने-अपने धामको चले गये। जब नवाँ महीना बीत गया और दसवां माह भी पूरा हो चला, तब जगदम्बा कालिका ने समय पूर्ण होने पर गर्भस्थ शिशु की जो गति होती है, उसी को धारण किया अर्थात जन्म ले लिया। उस अवसर पर आद्याशक्ति सती-साध्वी शिवा पहले मैना के
सामने अपने ही रूप से प्रकट हुई। वसन्त- ऋतु में चैत्र मास की नवमी तिथि को मृगशिरा नक्षत्र में आधी रात के समय चन्द्र मण्डल से आकाश गंगा की भाँति मेनका के उदर से देवी शिवा का अपने ही स्वरूप में प्रादुर्भाव हुआ। उस समय सम्पूर्ण संसार में प्रसन्नता छा गयी। अनुकूल हवा चलने लगी, जो सुन्दर, सुगन्धित एवं गम्भीर थी। उस समय जल वर्षा के साथ फूलों की वृष्टि हुई। विष्णु आदि सब देवता वहाँ आये। सबने सुखी होकर प्रसन्नता के साथ जगदम्बा के दर्शन किये और शिवलोक में निवास करने वाली दिव्यरूपा महामाया शिवकामिनी मंगलमयी कालिका माता का स्तवन किया।
नारद! जब देवतालोग स्तुति करके चले गये, तब मेनका उस समय प्रकट हुई नील कमल-दलके समान कान्तिवाली श्यामवर्णा देवी को देखकर अतिशय आनन्द का अनुभव करने लगीं। देवी के उस दिव्य रूपका दर्शन करके गिरिप्रिया मैना को ज्ञान प्राप्त हो गया। वे उन्हें परमेश्वरी समझकर अत्यन्त हर्ष से उल्लसित हो उठीं और संतोषपूर्वक बोली।
मैना ने कहा-जगदम्बे ! महेश्वरि! आपने बड़ी कृपा की, जो मेरे सामने प्रकट हुईं। अम्बिके! आपकी बड़ी शोभा हो रही है। शिवे! आप सम्पूर्ण शक्तियों में आद्याशक्ति तथा तीनों लोकों की जननी हैं। देवि! आप भगवान शिव को सदा ही प्रिय हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं से प्रशंसित पराशक्ति हैं। महेश्वरि! आप कृपा करें और इसी रूप से मेरे ध्यान में स्थित हो जायें। साथ ही मेरी पुत्री के अनुरूप प्रत्यक्ष दर्शनीय रूप धारण करें।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! पर्वत पत्नी मैना की यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई शिवादेवी ने उस गिरिप्रिया को इस प्रकार उत्तर दिया।
देवी बोलीं-मैना! तुमने पहले तत्परतापूर्वक मेरी बड़ी सेवा की थी। उस समय तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हो मैं वर देने के लिये तुम्हारे निकट आयी। ‘वर माँगो’ मेरी इस वाणी को सुनकर तुमने जो वर माँगा, वह इस प्रकार है-‘महादेवि! आप मेरी पुत्री हो जायें और देवताओं का हित साधन करें।’ तब मैंने ‘तथास्तु’ कहकर तुम्हें सादर यह वर दे दिया और मैं अपने धाम को चली गयी। गिरिकामिनि! उस वरके अनुसार समय पाकर आज मैं तुम्हारी पुत्री हुई हूँ।
आज मैंने जो दिव्य रूपका दर्शन कराया है, इसका उद्देश्य इतना ही है कि तुम्हें मेरे स्वरूप का स्मरण हो जाय; अन्यथा मनुष्य- रूप में प्रकट होने पर मेरे विषय में तुम अनजान ही बनी रहतीं। अब तुम दोनों दंपत्ति पुत्री भाव से अथवा दिव्यभाव से मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मुझमें स्नेह रखो। इससे मेरी उत्तम गति प्राप्त होगी। मैं पृथ्वी पर अद्भुत लीला करके देवताओं का कार्य सिद्ध करूंगी। भगवान शम्भु की पत्नी होऊँगी और सज्जनों का संकट से उद्धार करूंगी। ऐसा कहकर जगमाता शिवा चुप हो गयीं और उसी क्षण माताके देखते-देखते प्रसन्नतापूर्वक नवजात पुत्री के रूप में परिवर्तित हो गयीं।

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अध्याय 7: पार्वती का नामकरण और विद्याध्ययन

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मैना के सामने महातेजस्विनी कन्या होकर लौकिक गति का आश्रय ले वह रोने लगी। उसका मनोहर रुदन सुनकर घर की सब स्त्रियाँ हर्षसे खिल उठीं और बड़े वेगसे प्रसन्नता पूर्वक वहाँ आ पहुँचीं। नील कमल-दलके समान श्याम कान्तिवाली उस परम तेजस्विनी और
मनोरम कन्या को देखकर गिरिराज हिमालय अतिशय आनन्दमें निमग्न हो गये। तदनन्तर सुन्दर मुहूर्त में मुनियों के साथ हिमवान ने अपनी पुत्री के काली आदि सुखदायक नाम रखे। देवी शिवा गिरिराज के भवन में दिनोंदिन बढ़ने लगी-ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा के समय में गंगाजी की जलराशि और शरद ऋतु के शुक्ल पक्ष में चाँदनी बढ़ती है। सुशीलता आदि गुणों से संयुक्त तथा
बन्धुजनों की प्यारी उस कन्या को कुटुम्ब के लोग अपने कुल के अनुरूप पार्वती नाम से
पुकारने लगे। माता ने कालिका को ‘उमा’ (अरी! तपस्या मत कर) कहकर तप करने से रोका था। मुने! इसलिये वह सुन्दर मुखवाली गिरिराजनन्दिनी आगे चलकर लोक में उमा के नाम से विख्यात हो गयी।
नारद! तदनन्तर जब विद्या के उपदेश का समय आया, तब शिवा देवी अपने चित्त को एकाग्र करके बड़ी प्रसन्नता के साथ श्रेष्ठ गुरुसे विद्या पढ़ने लगीं। पूर्वजन्म की सारी विद्याएँ उन्हें उसी तरह प्राप्त हो गयीं, जैसे शरद काल में हंसों की पाँत अपने-अपने स्वर्गगा के तटपर पहुँच जाती है और रात्रि में अपना प्रकाश स्वतः महौषधियों को प्राप्त हो जाता है। मुने! इस प्रकार मैंने शिवा की
किसी एक लीला का ही वर्णन किया है।
अब अन्य लीला का वर्णन करूँगा, सुनो। एक समय की बात है तुम भगवान शिव की प्रेरणा से प्रसन्नतापूर्वक हिमाचल के घर गये। मुने! तुम शिवतत्व के ज्ञाता और उनकी लीला के जानकारों में श्रेष्ठ हो। नारद! गिरिराज हिमालय ने तुम्हें घर पर आया देख प्रणाम करके तुम्हारी पूजा की और अपनी पुत्री को बुलाकर उससे तुम्हारे चरणों में प्रणाम करवाया। मुनीश्वर! फिर स्वयं ही तुम्हें नमस्कार करके हिमाचल ने अपने सौभाग्यकी सराहना की और अत्यन्त मस्तक झुका हाथ जोड़कर तुमसे कहा। हिमालय बोले-हे मुने नारद! हे ब्रह्मपुत्रों में श्रेष्ठ ज्ञानवान प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं और कृपा पूर्वक दूसरों के उपकार में लगे रहते हैं। मेरी पुत्री की जन्मकुण्डली में जो गुण-दोष हो, उसे बताइये। मेरी बेटी किसकी सौभाग्यवती प्रिय पत्नी होगी।
ब्रहाजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ! तुम बातचीत में कुशल और कौतुकी तो हो ही, गिरिराज हिमालय के ऐसा कहने पर तुमने कालिका का हाथ देखा और उसके सम्पूर्ण अंगों पर विशेष रूप से दृष्टिपात करके हिमालय से इस प्रकार कहना आरम्भ किया। नारद बोले-शैलराज और मेना ! आपकी
यह पुत्री चन्द्रमा की आदिकला के समान बढ़ी है। समस्त शुभ लक्षण इसके अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। यह अपने पति के लिये अत्यन्त सुखदायिनी होगी और माता- पिता की भी कीर्ति बढ़ायेगी। संसार की समस्त नारियों में यह परम साध्वी और स्वजनों को सदा महान आनन्द देने वाली
होगी। गिरिराज! तुम्हारी पुत्री के हाथ में सब उत्तम लक्षण ही विद्यमान हैं। केवल एक रेखा विलक्षण है, उसका यथार्थ फल सुनो। इसे ऐसा पति प्राप्त होगा, जो योगी, नंग-धड्ग रहने वाला, निर्गुण और निष्काम होगा। उसके न माँ होगी न बाप। उसे मान- सम्मान का भी कोई खयाल नहीं रहेगा और वह सदा अमंगल वेष धारण करेगा।
ब्रह्मा जी कहते हैं—नारद! तुम्हारी इस बात को सुन और सत्य मानकर मेना तथा हिमाचल दोनों पति-पत्नी बहुत दुःखित हुए, परंतु जगदम्बा शिवा तुम्हारे ऐसे वचन को सुनकर और लक्षणों द्वारा उस भावी पति को शिव मानकर मन-ही-मन हर्षसे खिल उठीं। ‘नारदजी की बात कभी झूठ नहीं हो सकती’ यह सोचकर शिवा भगवान शिव के युगलचरणों में सम्पूर्ण हृदय से अत्यन्त स्नेह करने लगीं। नारद! उस समय मन-ही-मन दुःखी हो हिमवान ने तुमसे कहा-‘मुने! उस रेखा को फल सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ है। मैं अपनी पुत्री को उससे बचाने के लिये क्या उपाय करू?’
‘मुने! तुम महानतम कौतुक करने वाले और वार्तालाप-विशारद से।’ हिमवान की बात सुनकर अपने मंगलकारी वचनों द्वारा उनका हर्ष बढ़ाते हुए तुमने इस प्रकार कहा।
नारद बोले-गिरिराज! तुम स्नेहपूर्वक सुनो, मेरी बात सच्ची है। वह झूठ नहीं होगी। हाथ की रेखा ब्रह्मा जी की लिपि है। निश्चय ही वह मिथ्या नहीं हो सकती। अतः शैलप्रवर! इस कन्या को वैसा ही पति मिलेगा, इसमें संशय नहीं। परंतु इस रेखा के कुफल से बचने के लिये एक उपाय भी है,
उसे प्रेमपूर्वक सुनो। उसे करने से तुम्हें सुख मिलेगा। मैंने जैसे वरका निरूपण किया है, वैसे ही भगवान शंकर हैं। वे सर्वसमर्थ हैं और लीला के लिये अनेक रूप धारण करते रहते हैं।

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अध्याय 8

उनमें समस्त कुलक्षण सद्गुणों के समान हो जायँगे। समर्थ पुरुष में कोई दोष भी हो तो वह उसे दु:ख नहीं देता। असमर्थ के लिये ही वह दुःखदायक होता है। इस विषय में सूर्य, अग्नि और
गंगा का दृष्टान्त सामने रखना चाहिये। इसलिये तुम विवेकपूर्वक अपनी कन्या शिवा को भगवान शिव के हाथ में सौंप दो।
भगवान शिव सबके ईश्वर, सेव्य, निर्विकार, सामर्थ्यशाली और अविनाशी हैं। वे जल्दी ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः शिवा को ग्रहण कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है। विशेषतः वे तपस्या से वश में हो जाते हैं। यदि शिवा तप करे तो सब काम ठीक हो जायगा। सर्वेश्वर शिव सर्व प्रकार से समर्थ हैं। वे
इन्द्र के वज्र का भी विनाश कर सकते हैं। ब्रह्माजी उनके अधीन हैं तथा वे सबको सुख देने वाले हैं। पार्वती भगवान शंकर की प्यारी पत्नी होगी। वह सदा रुद्रदेव के अनुकूल रहेगी; क्योंकि यह महासाध्वी और उत्तम व्रत का पालन करने वाली है तथा माता- पिताके सुख को बढ़ाने वाली है। यह तपस्या करके भगवान शिवके मनको अपने वश में कर लेगी और वे भगवान भी इसके सिवा
किसी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं करेंगे। इन दोनों का प्रेम एक दूसरे के अनुरूप है। वैसा उच्चकोटि का प्रेम न तो किसी का हुआ है, न इस समय है और न आगे होगा। गिरिश्रेष्ठ! इन्हें देवताओं के कार्य करने हैं। उनके जो-जो काम नष्टप्राय हो गये हैं, उन सबका इनके द्वारा पुनः उज्जीवन या उद्धार होगा।
अद्रिराज! आपकी कन्याको पाकर ही भगवान् हर अर्द्धनारीश्वर होंगे। इन दोनों का पुनः हर्षपूर्वक मिलन होगा। आपकी यह पुत्री अपनी तपस्या के प्रभाव से सर्वेश्वर महेश्वर को संतुष्ट करके उनके शरीर के आधे भाग को अपने अधिकार में कर लेगी, उनका अर्धांग बन जायगी। गिरिश्रेष्ठ!
तुम्हें अपनी यह कन्या भगवान शंकर के सिवा दूसरे किसी को नहीं देनी चाहिये। यह देवताओं का गुप्त रहस्य है, इसे कभी प्रकाशित नहीं करना चाहिये।
हिमालय ने कहा-ज्ञानी मुने नारद! मैं आपको एक बात बता रहा है, उसे प्रेमपूर्वक सुनिये और आनन्द का अनुभव कीजिये। सुना जाता है, महादेवजी सब प्रकार को आसक्तियों का त्याग करके अपने मन को संयम में रखते हुए नित्य तपस्या करते हैं। देवताओं की भी दृष्टि में नहीं आते। देवर्षे! ध्यान मार्ग में स्थित हुए वे भगवान शम्भु परब्रह्म में लगाये हुए अपने मन को कैसे
हटायेंगे ? ध्यान छोड़कर विवाह करने को कैसे उद्यत होंगे? इस विषय में मुझे महान संदेह है। दीपक की लौ के समान प्रकाशमान, अविनाशी, प्रकृतिसे परे, निर्विकार, निर्गुण, सगुण, निर्विशेष और निरीह जो परब्रह्म है, वही उनका अपना सदाशिव नामक स्वरूप हैं। अतः वे उसी का सर्वत्र साक्षात्कार करते हैं, किसी बाह्य-अनात्मवस्तुपर दृष्टि नहीं डालते। मुने! यहाँ आये हुए किनरों के
मुखसे उनके विषय में नित्य ऐसी ही बात सुनी जाती है। क्या वह बात मिथ्या ही है। विशेषतः यह बात भी सुनने में आती है कि भगवान हर ने पूर्वकाल में सती के समक्ष एक प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने कहा था- ‘दक्ष कुमारी प्यारी सती ! मैं तुम्हारे सिवा दूसरी किसी स्त्री को अपनी पत्नी बनाने के लिये न वरण करूँगा न ग्रहण। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ।’ इस प्रकार सती के
साथ उन्होंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है। अब सती के मर जाने पर वे दूसरी किसी स्त्री को कैसे ग्रहण करेंगे?
यह सुनकर तुम (नारद)-ने कहा- महामते ! गिरिराज! इस विषय में तुम्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम्हारी यह पुत्री काली ही पूर्वकाल में दक्ष कन्या सती हुई थी। उस समय इसीका सदा
सर्वमंगलदायी सती नाम था। वे सती दक्ष कन्या होकर रुद्र की प्यारी पनी हुई थीं। उन्होंने पिता के यज्ञ में अनादर पाकर तथा भगवान शंकर का भी अपमान हुआ देख क्रोधपूर्वक अपने शरीर को त्याग दिया था। वे ही सती फिर तुम्हारे घरमें उत्पन्न हुई हैं। तुम्हारी पुत्री साक्षात जगदम्बा शिवा है।
यह पार्वती भगवान हर की पली होगी, इसमें संशय नहीं है। नारद! ये सब बातें तुमने हिमवान को विस्तारपूर्वक बतायीं। पार्वतीका वह पूर्वरूप और चरित्र प्रीति को बढ़ाने वाला है। काली के उस सम्पूर्ण पूर्व वृत्तान्त को तुम्हारे मुख से सुनकर हिमवान अपनी पत्नी और पुत्र के साथ तत्काल संदेह रहित हो गये। इसी तरह तुम्हारे मुखसे अपनी उस पूर्वकथा को सुनकर काली ने लज्जा के मारे मस्तक झुका लिया और उसके मुखपर मन्द मुसकान की प्रभा फैल गयी। गिरिराज हिमालय पार्वती के
उस चरित्रको सुनकर उसके माथे पर हाथ फेरने लगे और मस्तक मुँधकर उसे अपने आसन के पास ही बैठा लिया।
नारद! इसके पश्चात तुम उसी क्षण प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोक को चले गये और गिरिराज हिमवान भी मन-ही-मन आनन्दसे युक्त हो अपने सर्वसम्पत्तिशाली मनोहर भवन में प्रविष्ट हो गये।

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अध्याय 9: मैना और हिमालय की बातचीत, पार्वती तथा हिमवान के स्वपन

ब्रह्मा जी कहते हैं-नारद! जब तुम स्वर्गलोक को चले गये, तबसे कुछ काल और व्यतीत हो जाने पर एक दिन मैना ने हिमवान ने निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया। फिर खड़ी हो वे गिरिकामिनी मैना अपने पति से विनयपूर्वक बोलीं।
मैना ने कहा-प्राणनाथ! उस दिन नारद मुनिने जो बात कही थी, उसको स्त्री-स्वभाव के कारण मैंने अच्छी तरह नहीं समझा; मेरी तो यह प्रार्थना है कि आप कन्या का विवाह किसी सुन्दर वर के साथ कर दीजिये। वह विवाह सर्वथा अपूर्व सुख देनेवाला होगा गिरिजा का वर शुभ लक्षणों से सम्पन्न और कुलीन होना चाहिये। मेरी बेटी मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। वह उत्तम वर पाकर जिस प्रकार भी प्रसन्न और सुखी हो सके, वैसा कीजिये। आपको मेरा नमस्कार है। ऐसा कहकर मैना अपने पति के चरणोंपर गिर पड़ीं। उस समय उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी।
प्राज्ञ शिरोमणि हिमवान्ने उन्हें उठाया और यथावत समझाना आरम्भ किया।
हिमालय बोले-देवि मैना ! मैं यथार्थ और तत्व की बात बताता हूँ सुनो ! भ्रम छोड़ो। मुनि की बात कभी झूठी नहीं हो सकती। यदि बेटीपर तुम्हें स्नेह है तो उसे सादर शिक्षा दो कि वह भक्तिपूर्वक सुस्थिर चित्त से भगवान शंकर के लिये तप करे।
मैना ! यदि भगवान शिव प्रसन्न होकर काली का पाणिग्रहण कर लेते हैं तो सब शुभ ही होगा। नारदजी का बताया हुआ अमंगल या अशुभ नष्ट हो जायगा। शिव के समीप सारे अमंगल सदा मंगलरूप हो जाते हैं। इसलिये तुम पुत्री को शिव की प्राप्ति के लिये तपस्या करने की शीघ्र शिक्षा दो।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! हिमवान की यह बात सुनकर मैना को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे तपस्या में रुचि उत्पन्न करने के लिये पुत्री को उपदेश देने के निमित्त उसके पास गयीं। परंतु बेटी के सुकुमार अंग पर दृष्टिपात करके मैना के मन में बड़ी व्यथा हुई। उनके दोनों नेत्रों में तुरंत आँसू भर आये। फिर तो गिरिप्रिया मैना में अपनी पुत्री को उपदेश देने की शक्ति नहीं रह गयी अपनी माता की उस चेष्टा को पार्वतीजी शीघ्र ही ताड़ गयीं। तब वे सर्वज्ञ परमेश्वरी कालिका देवी माता को बारंबार आश्वासन दे तुरंत बोलीं ।
पार्वती ने कहा— मेरी यह बात सुनो। आज पिछली रात्रि के समय ब्राह्म मुहूर्त में मैंने एक स्वप्न
देखा है, उसे बताती हूँ। माताजी ! स्वप्न में एक दयालु एवं तपस्वी ब्राह्मण ने मुझे शिव की प्रसन्नता के लिये उत्तम तपस्या करने का प्रसन्नतापूर्वक उपदेश दिया है नारद! यह सुनकर मैना ने शीघ्र अपने पति को बुलाया और पुत्री के देखे हुए स्वप्न को पूर्णत: कह सुनाया। मैना के मुख से पुत्री के स्वप्न को सुनकर गिरिराज हिमालय बड़े प्रसन्न हुए और अपनी प्रिय पत्नी को समझाते हुए बोले।
गिरिराज ने कहा-प्रिये! पिछली रात में मैंने भी एक स्वप्न देखा है। मैं आदरपूर्वक उसे बताता हूँ। तुम प्रेमपूर्वक उसे सुनो। एक बड़े उत्तम तपस्वी थे। नारद जी ने वर के जैसे लक्षण बताये थे, उन्हीं लक्षणों से युक्त शरीर को उन्होंने धारण कर रखा था। वे बड़ी प्रसन्नता के साथ मेरे नगर के निकट तपस्या करनेके लिये आये। उन्हें देखकर मुझे बड़ा हर्व हुआ और मैं अपनी पुत्री को साथ लेकर उनके पास गया। उस समय -माँ ! तुम बड़ी समझदार मुझे ज्ञात हुआ कि नारदजीके बताये हुए वर भगवान शम्भु ये ही हैं। तब मैंने उन तपस्वी की सेवा के लिये अपनी पुत्री को उपदेश देकर उनसे भी प्रार्थना की कि वे इसकी सेवा स्वीकार करें । परंतु उस समय उन्होंने मेरी बात नहीं मानी, इतने में ही वहाँ सांख्य और वेदान्त के अनुसार बहुत बड़ा विवाद छिड़ गया। तदनन्तर उनकी आज्ञा से मेरी बेटी वहीं रह गयी और अपने हृदय में उन्हीं की कामना रखकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगी। सुमुखि! यही मेरा देखा हुआ स्वप्न है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया।
अत: प्रिये मेने! कुछ काल तक इस स्वप्न के फल की परीक्षा या प्रतीक्षा करनी चाहिये, इस समय यही उचित जान पड़ता है। तुम निश्चित सभझो, यही मेरा विचार है।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर नारद!
ऐसा कहकर गिरिराज हिमवान और मैना शुद्ध हृदय से उस स्वप्न के फल की परीक्षा एवं प्रतीक्षा करने लगे।
देवर्षे! शिवभक्तशिरोमणे ! भगवान शंकर का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्धक और उत्तम है। तुम इसे आदरपूर्वक सुनो। दक्ष-यज्ञ से अपने निवास स्थान कैलास पर्वत पर आकर भगवान शंभु प्रिया विरह से कातर हो गये और प्राणों से भी अधिक प्यारी सतीदेवी का हृदय से चिन्तन करने
लगे। अपने पार्षदों को बुलाकर सती के लिये शोक करते हुए उनके प्रेमवर्द्धक गुणों का अत्यन्त प्रीतिपूर्वक वर्णन करने लगे। यह सब उन्होंने सांसारिक गति को दिखाने के लिये किया। फिर, गृहस्थ- आश्रम की सुन्दर स्थिति तथा नीति-रीति का परित्याग करके वे दिगम्बर हो गये और
सब लोकों में उन्मत्त की भाँति भ्रमण करने लगे। लीलाकुशल होने के कारण विरही की अवस्था का प्रदर्शन करने लगे। सतीके विरह से दुःखित हो कहीं भी उनका दर्शन न पाकर भक्तकल्याणकारी भगवान शंकर पुन: कैलासगिरि पर लौट आये और मन को एकाग्र करके उन्होंने समाधि लगा ली, जो समस्त दुःखों का नाश करने वाली है। समाधि में वे अविनाशी स्वरूप का दर्शन करने लगे। इस तरह तीनों गुणों से रहित हो वे भगवान शिव चिरकाल तक सुस्थिरभाव से समाधि लगाये बैठे रहे। वे प्रभु स्वयं ही माया के अधिपति निर्विकार परब्रह्म हैं। तदनन्तर जब असंख्य वर्ष व्यतीत हो गये, तब उन्होंने समाधि छोड़ी। उसके बाद तुरंत ही जो चरित्र हुआ, उसे मैं तुम्हें बताता हूँ।
भगवान शिव के ललाट से उस समय श्रमजनित पसीने की एक बूंद पृथ्वीपर गिरी और तत्काल एक शिशु के रूप में परिणत हो गयी। मुने! उस बालक के चार भुजाएँ थीं, शरीर की कान्ति लाल थी और आकार मनोहर था। दिव्य द्युति से दीप्तिमान वह शोभाशाली बालक अत्यन्त दुस्सह तेज से
सम्पन्न था, तथापि उस समय लोकाचार- परायण परमेश्वर शिव के आगे वह साधारण शिशुकी भाँति रोने लगा यह देख पृथ्वी भगवान शंकर से भय मान उत्तम बुद्धि से विचार करने के पश्चात सुन्दरी स्त्री का रूप धारण करके वहीं प्रकट हो गयीं उन्होंने उस सुन्दर बालक को तुरंत उठाकर अपनी गोद में रख लिया और अपने ऊपर प्रकट होने वाले दूध को ही स्तन्य के रूप में उसे पिलाने लगीं। उन्होंने स्नेह से उसका मुँह चूमा और अपना ही बालक मान हँस- हँसकर उसे खिलाने लगीं। परमेश्वर शिव का हित साधन करने वाली पृथ्वी देवी सच्चे भावसे स्वयं उसकी माता बन गयीं।

संसार की सृष्टि करने वाले, परम कौतुकी एवं विद्वान अन्तर्यामी शम्भु वह चरित्र देखकर हँस पड़े और पृथ्वी को पहचान कर – उनसे बोले-‘धरणि! तुम धन्य हो! मेरे इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह श्रेष्ठ शिशु मुझ महातेजस्वी शम्भु के श्रमजल (पसीने) से तुम्हारे ही ऊपर उत्पन्न हुआ
है। वसुधे! यह प्रियकारी बालक यद्यपि मेरे श्रमजल से प्रकट हुआ है, तथापि तुम्हारे नाम से तुम्हारे ही पुत्र के रूप में इसकी ख्याति होगी। यह सदा त्रिविध तापों से रहित होगा। अत्यन्त गुणवान् और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख प्रदान करेगा। तुम इसे अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण करो।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! ऐसा कहकर भगवान शिव चुप हो गये उनके हृदय से विरह का प्रभाव कुछ कम हो गया। उनमें विरह क्या था, वे लोकाचार का पालन कर रहे थे। वास्तव में सत्पुरुषों के प्रिय श्रीरुद्रदेव निर्विकार परमात्मा ही हैं। शिव की उपर्युक्त आज्ञा को शिरोधार्य करके पुत्र सहित पृथ्वी देवी शीघ्र ही अपने स्थान को चली गयीं। वह – बालक ‘भौम’ नाम से प्रसिद्ध हो युवा होने पर
तुरंत काशी चला गया और वहाँ उसने दीर्घकालतक भगवान शंकर की सेवा की। विश्वनाथजी की कृपा से ग्रह की पदवी पाकर वे भूमिकुमार शीघ्र ही श्रेष्ठ एवं दिव्यलोक में चले गये, जो शुक्रलोक से परे है।

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अध्याय 10 : भगवान शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिये आना

पुत्री लोक पूजित शक्ति स्वरूपा पार्वती हिमालयके घर में रहकर बढ़ने लगीं जब उनकी अवस्था आठ वर्ष की हो गयी, तब सती के विरह से कातर हुए शम्भु को उनके जन्म का समाचार मिला। नारद! उस अद्भुत बालिका पार्वती को हृदय में रखकर वे मन- ही-मन बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे।
इसी बीच में लौकिक गति का आश्रय ले शम्भु ने अपने मन को एकाग्र करने के लिये तप करने का विचार किया। नन्दी आदि कुछ शान्त पार्षदों को साथ ले वे हिमालय के उत्तम शिखर पर गंगावतार नामक तीर्थ में चले आये, जहाँ पूर्वकाल में ब्रह्मधाम से च्युत होकर समस्त पापराशिका विनाश करने के लिये चली हुई परम पावनी गंगा पहले- पहल भूतल पर अवतीर्ण हुई थीं। जितेन्द्रिय शिव ने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की। वे आलस्य रहित हो चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य, ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्द- स्वरूप, द्वैतहीन तथा आश्रय रहित अपने आत्मभूत परमात्मा का एकाग्रभाव से चिन्तन करने लगे। भगवान शिव के ध्यान परायण होने पर नन्दी-भृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यान में तत्पर हो गये। उस समय कुछ ही प्रमथगण परमात्मा शम्भु की सेवा करते थे। वे सब-के सब मौन रहते और एक शब्द भी नहीं बोलते थे। कुछ द्वारपाल हो गये थे।
इसी समय गिरिराज हिमवान उस औषधि-बहुल शिखर पर भगवान शंकर का शुभागमन सुनकर उनके प्रति आदर की भावना से वहाँ आये। आकर सेवकों सहित गिरिराज ने भगवान रुद्र को प्रणाम किया, उनकी पूजा की और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़ उनका सुन्दर स्तवन किया। फिर हिमालय ने कहा-‘प्रभो! मेरे सौभाग्य का उदय हुआ है, जो आप यहाँ पधारे हैं। आपने मुझे सनाथ कर वर्णन किया है कि आप दीनवत्सल हैं। आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरा जीवन सफल हुआ और आज मेरा सब कुछ सफल हो गया; क्योंकि आपने यहाँ पदार्पण करने का कष्ट उठाया है। महेश्वर! आप मुझे अपना दास समझकर शान्तभाव से मुझे सेवा के लिये आज्ञा दीजिये। मैं बड़ी प्रसन्नता से अनन्यचित्त होकर आपकी सेवा करुँगा।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! गिरिराज का यह वचन सुनकर महेश्वर ने किंचित आँखें खोलीं और सेवकों सहित हिमवान को देखा। सेवकों सहित गिरिराज को उपस्थित देख ध्यानयोग में स्थित हुए जगदीश्वर वृषभध्वज ने मुस्कराते हुए-से कहा। महेश्वर बोले-शैलराज! मैं तुम्हारे शिखर पर एकान्त में तपस्या करने के लिये आया हूँ। तुम ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे कोई भी मेरे निकट न आ सके। तुम महात्मा हो, तपस्याके धाम हो तथा मुनियों, देवताओं, राक्षसों और अन्य महात्माओं को भी सदा आश्रय देने वाले हो। द्विज आदि का तुम्हारे ऊपर सदा ही निवास रहता है। गंगासे अभिषिक्त होकर सदा के लिये पवित्र हो गये हो। दूसरों का उपकार करने वाले तथा सम्पूर्ण पर्वतों के सामर्थ्यशाली राजा हो। गिरिराज! मैं यहाँ गंगावतरण-स्थल में तुम्हारे आश्रित होकर आत्म संयमपूर्वक बड़ी प्रसन्नताके साथ तपस्या करूँगा शैलराज! गिरिश्रेष्ठ ! जिस साधन से यहाँ मेरी तपस्या बिना किसी विघ्न-बाधा के चालू रह सके, उसे इस समय प्रयत्नपूर्वक करो। पर्वतप्रवर ! मेरी यही सबसे बड़ी सेवा है। गंगावतरण नामक स्थान में, जो मेरे पृष्ठ- भाग में ही है, मेरी आज्ञा मानकर न जाये। यह मैं सच्ची बात कहता हूँ। यदि कोई वहाँ जायेगा तो उस महादुष्ट को मैं विशेष दण्ड दूँगा। मुने! इस प्रकार अपने समस्त गणों को शीघ्र ही नियंत्रित करके हिमवान ने
विघ्न निवारण के लिये जो सुन्दर प्रयत्न किया, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो।

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अध्याय 11: हिमवान का पार्वती को शिव की सेवा में रखने के लिये उनसे आज्ञा माँगना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! तदनन्तर शैलराज हिमालय उत्तम फल-फूल लेकर अपनी पुत्री के साथ हर्ष पूर्वक भगवान शिव के समीप गये। वहाँ जाकर उन्होंने ध्यान- परायण त्रिलोकीनाथ शिव को प्रणाम किया और अपनी अद्भुत कन्या काली को हृदय से उनकी सेवा में अर्पित कर दिया। फल-फूल आदि सारी सामग्री उनके सामने रखकर पुत्री को आगे करके शैलराज ने शम्भु से कहा-‘भगवन ! मेरी पुत्री आप भगवान चन्द्रशेखर की सेवा करने के लिये उत्सुक है। अत: आपके आराधन की इच्छा से मैं इसको साथ लाया हूँ। यह अपनी दो सखियों के साथ सदा आप शंकर की ही सेवा में रहे।
नाथ! यदि आपका मुझपर अनुग्रह है तो इस कन्या को सेवा के लिये आज्ञा दीजिये।’ तब भगवान शंकरने उस परम मनोहर कामरूपिणी कन्या को देखकर आँखें बंद कर ली लीं और अपने त्रिगुणातीत, अविनाशी, परमतत्वमय उत्तम रूप का ध्यान आरम्भ किया। उस समय सर्वेश्वर एवं सर्वव्यापी जटाजूटधारी वेदान्तवेद्य चन्द्रकला विभूषण शम्भु उत्तम आसन पर बैठकर नेत्र बंद किये तप (ध्यान)-में ही लग गये। यह देख हिमाचल ने मस्तक झुकाकर पुनः उनके चरणों में प्रणाम किया। यद्यपि उनके हृदय में दीनता नहीं थी, तो भी वे उस समय इस संशय में पड़ गये कि न जाने भगवान मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे या नहीं। वक्ताओं में श्रेष्ठ गिरिराज हिमवान ने जगत के एकमात्र बन्धु भगवान शिव से इस प्रकार कहा।
हिमालय बोले-देवदेव! महादेव! करुणाकर! शंकर! विभो! मैं आपकी शरण में आया हूँ। आँखें खोलकर मेरी ओर देखिये। शिव ! शर्व! महेशान! जगत को आनन्द प्रदान करने वाले प्रभो! महादेव! आप सम्पूर्ण आपत्तियों का निवारण करने वाले हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। स्वामिन!
प्रभो! मैं अपनी इस पुत्री के साथ प्रतिदिन आपका दर्शन करनेके लिये आऊँगा। इसके लिये आदेश दीजिये। उनकी यह बात सुनकर देवाधिदेव महेश्वर ने आँखें खोलकर ध्यान छोड़ दिया और कुछ सोच-विचार कर कहा।
महेश्वर बोले-गिरिराज! तुम अपनी इस कुमारी कन्या को घर में रखकर ही नित्य मेरे दर्शन को आ सकते हो, अन्यथा मेरा दर्शन नहीं हो सकता। महेश्वर की ऐसी बात सुनकर पार्वती के पिता हिमवान मस्तक झुकाकर उन भगवान शिव से बोले-‘प्रभो! यह तो बताइये, किस कारण से मैं इस कन्या के साथ आपके दर्शन के लिये नहीं आ सकता। क्या यह आपकी सेवा के योग्य नहीं है? फिर इसे नहीं लाने का क्या कारण है, यह मेरी समझ में नहीं आता। यह सुनकर भगवान वृषभध्वज शंभु हँसने लगे और विशेषतः दुष्ट योगियों को लोकाचार का दर्शन कराते हुए वे हिमालय से बोले-‘शैलराज! यह कुमारी सुन्दर कटिप्रदेश से सुशोभित, तन्वंगी, चन्द्रमुखी और शुभ लक्षणों से सम्पन्न है। इसलिये इसे मेरे समीप तुम्हें नहीं लाना चाहिये।
इसके लिये मैं तु्हें बारंबार रोकता हूँ । वेद के पारंगत विद्वानों ने नारी को मायारूपिणी कहा है। विशेषत: युवती स्त्री तो तपस्वीजनों के तप में विघ्न डालने वाली ही होती है। गिरिश्रेष्ठ! मैं तपस्वी, योगी और सदा मायासे निर्लिप्त रहने वाला हूँ। मुझे युवती स्त्री से क्या प्रयोजन है तपस्वियों के श्रेष्ठ आश्रय हिमालय! इसलिये फिर तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये, क्योंकि तुम
वेदोक्त धर्ममें प्रवीण, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और विद्वान हो। अचलराज! स्त्री के संग से मन में शीघ्र ही विषय वासना उत्पन्न हो जाती है। उससे वैराग्य नष्ट होता है और वैराग्य न होने से पुरुष उत्तम तपस्या से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिये शैल! तपस्वी को स्त्रियों का संग नहीं करना चाहिये; क्योंकि स्त्री महाविषय-वासना की जड़ एवं ज्ञान-वैराग्य का विनाश करने वाली होती है।”
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इस तरह की बहुत-सी बातें कहकर महायोगी शिरोमणि भगवान महेश्वर चुप हो गये देवर्षि! शम्भु का यह निरामय, नि:स्पृह और निष्ठुर वचन सुनकर कालीके पिता हिमवान चकित, कुछ-कुछ व्याकुल और चुप हो गये तपस्वी शिव की कही हुई बात सुनकर और गिरिराज हिमवान को चकित हुआ जानकर भवानी पार्वती उस समय भगवान शिव को प्रणाम करके विशद वचन बोलीं।

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अध्याय 12 : पार्वती और शिव का दार्शनिक संवाद, पार्वती द्वारा शिव की सेवा करना

भवानी ने कहा-योगिन्! आपने तपस्वी होकर गिरिराज से यह क्या बात कह डाली? प्रभो! आप ज्ञानविशारद हैं, तो भी अपनी बात का उत्तर मुझसे सुनिये। शम्भो! आप तप:शक्ति से सम्पन्न होकर ही बड़ा भारी तप करते हैं। उस शक्ति के कारण ही आप महात्मा को तपस्या करने का विचार हुआ है। सभी कर्मो को करने की जो वह शक्ति है, उसे ही प्रकृति जानना चाहिये। प्रकृति से
ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार होते हैं। भगवन्! आप कौन हैं? और सूक्ष्म प्रकृति क्या है? इसका विचार कीजिये। प्रकृति के बिना लिंगरूपी महेश्वर कैसे हो सकते हैं? आप सदा प्राणियों के लिये जो अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं, वह प्रकृति के ही कारण हैं। इस बात को हृदय से विचार कर ही आपको जो कहना हो, वह सब कहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! पार्वतीजी के इस वचन को सुनकर महती लीला करने में लगे हुए प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसते हुए बोले।
महेश्वर ने कहा-मैं उत्कृष्ट तपस्या द्वारा ही प्रकृति का नाश करता हूँ और तत्वत: प्रकृति रहित शम्भु के रूप में स्थित होता हूँ। अत: सदपुरुषों को कभी या कहीं प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिये। लोकाचार से दूर एवं निर्विकार रहना चाहिये।
नारद ! जब शम्भु ने लौकिक व्यवहार के अनुसार यह बात कही, तब काली मन ही मन हँसकर मधुर वाणी में बोलीं।
काली ने कहा-कल्याणकारी प्रभो! योगिन्! आपने जो बात कही है, क्या वह वाणी प्रकृति नहीं है? फिर आप उससे परे क्यों नहीं हो गये? (क्यों प्रकृति का सहारा लेकर बोलने लगे?) इन सब बातों को विचार करके तात्वित दृष्टि से जो यथार्थ बात हो, उसीको कहना चाहिये। यह सब कुछ सदा प्रकृति से बँधा हुआ है। इसलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना-सब व्यवहार प्राकृत ही है। आप अपनी बुद्धिसे इसको समझिये। आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृति का ही कार्य है। झूठे वाद-विवाद करना व्यर्थ है। प्रभो! शम्भो! यदि आप प्रकृति से परे हैं तो इस समय इस हिमवान पर्वत पर आप तपस्या किस लिये करते हैं? हर! प्रकृति ने आपको निगल लिया है। अत: आप अपने स्वरूप को नहीं जानते। ईश! आप यदि अपने स्वरूप को जानते हैं तो किस लिये तप करते हैं ? योगिन्! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होने पर विद्वान पुरुष अनुमान प्रमाण को नहीं मानते। जो कुछ प्राणियों की इन्द्रियों का विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषों को बुद्धि से विचार कर प्राकृत ही मानना चाहिये। योगीश्वर! बहुत कहने से क्या लाभ? मेरी उत्तम बात सुनिये। मैं प्रकृति हूँ। आप पुरुष हैं। यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। मेरे अनुग्रह से ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना तो आप निरीह हैं। कुछ भी नहीं कर सकते हैं। आप जितेन्द्रिय होने पर भी प्रकृति के अधीन हो सदा नाना प्रकार के कर्म करते रहते हैं। फिर निर्विकार कैसे हैं? और मुझ से लिप्त कैसे नहीं? शंकर! यदि आप प्रकृति से परे हैं और यदि आपका यह कथन सत्य है तो आपको मेरे समीप रहने पर भी डरना नहीं चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-पार्वती का यह सांख्य- शास्त्र के अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान शिव वेदान्तमत में स्थित हो उनसे यों बोले।
श्रीशिवने कहा-सुन्दर भाषण करने वाली गिरिजे ! यदि तुम सांख्य-मत को धारण करके ऐसी बात कहती हो तो प्रतिदिन मेरी सेवा करो; परंतु वह सेवा शास्त्रनिषिद्ध नहीं होनी चाहिये। गिरिजा से ऐसा कहकर भक्तों पर अनुग्रह और उनका मनोरंजन करने वाले भगवान शिव हिमवान से बोले।
शिव ने कहा- हे गिरिराज! मैं यहीं तुम्हारे अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखर की भूमि पर उत्तम तपस्या तथा अपने आनन्दमय परमार्थ स्वरूप का विचार करता हुआ विचरूँगा। पर्वतराज! आप मुझे यहाँ तपस्या करने की अनुमति दें। आपकी अनुज्ञा के बिना कोई तप नहीं किया जा सकता।
देवाधिदेव शूलधारी भगवान शिव का यह कथन सुनकर हिमवान ने उन्हें प्रणाम करके कहा‘महादेव! देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत तो आपका ही है। मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ?’
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! गिरिराज हिमवान के ऐसा कहने पर लोक कल्याणकारी भगवान शंकर हँस पड़े और आदरपूर्वक उनसे बोले-‘अब तुम जाओ।’ शंकर की आज्ञा पाकर हिमवान अपने घर लौट गये। वे गिरिजा के साथ प्रतिदिन उनके दर्शन के लिये आते थे। काली अपने पिता के बिना भी दोनों सखियों के साथ नित्य शंकर जी के पास जातीं और भक्तिपूर्वक उनकी सेवा में लगी रहतीं। नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकता नहीं था। तात! महेश्वर के आदेश से ही ऐसा होता था। प्रत्येक गण पवित्रतापूर्वक रहकर उनकी आज्ञा का पालन करता था। जो विचार करने से परस्पर अभिन्न सिद्ध होते हैं, उन्हीं शिवा और शिव ने सांख्य और वेदान्त-मत में स्थित हो जो कल्याण दायक संवाद किया, वह सर्वदा सुख देने वाला है। वह संवाद मैंने यहाँ कह सुनाया। इन्द्रियातीत भगवान शंकर ने गिरिराज के कहने से उनका गौरव मानकर उनकी पुत्री को अपने पास रहकर सेवा
करने के लिये स्वीकार कर लिया। काली अपनी दो सखियों के साथ चन्द्रशेखर महादेवजी की सेवा के लिये प्रतिदिन आती-जाती रहती थीं। वे भगवान शंकर के चरण धोकर उस चरणामृत का पान करती थीं। आगसे तपाकर शुद्ध किये हुए वस्त्र से (अथवा गरम जल से धोये हुए वस्त्र के द्वारा) उनके शरीर का मार्जन करतीं, उसे मलती-पोंछती थीं। फिर सोलह उपचारों से विधिवत शिव की पूजा करके बारंबार उनके चरणों में प्रणाम करने के पश्चात प्रतिदिन पिता के घर लौट जाती रहीं। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार ध्यानपरायण शंकर की सेवा में लगी हुई शिवा का महान समय व्यतीत हो गया, तो भी वे अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर पूर्ववत उनकी सेवा करती रहीं। महादेवजी ने जब फिर उन्हें अपनी सेवा में नित्य तत्पर देखा, तब वे दयासे द्रवित हो उठे और इस प्रकार विचार करने लगे-‘यह काली जब तपश्चर्याव्रत करेगी और इसमें गर्व का बीज नहीं रह जायगा, तभी मैं इसका पाणिग्रहण करूँगा। ऐसा विचार करके महालीला करने वाले महायोगीश्वर भगवान भूतनाथ तत्काल ध्यानमें स्थित हो गये मुने! परमात्मा शिव जब ध्यान में लग गये, तब उनके हृदय में दूसरी कोई चिन्ता नहीं रह गयी। काली प्रतिदिन महात्मा शिव के रूप का निरन्तर चिन्तन करती हुई उत्तम भक्तिभाव से उनकी सेवा में लगी रही। ध्यानपरायण भगवान शिव शुद्धभाव से वहाँ रहती हुई काली को नित्य देखते थे। फिर भी पूर्व चिन्ता को भुलाकर उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे।
इसी बीचमें इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियों ने ब्रह्माजी की आज्ञा से कामदेव को वहाँ आदरपूर्वक भेजा। वे कामकी प्रेरणा से काली का रुद्र के साथ संयोग कराना चाहते थे। उनके ऐसा करने में कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुर से वे बहुत पीड़ित थे (और शंकरजी से किसी महान बलवान पुत्र की उत्पत्ति चाहते थे)। कामदेव ने वहाँ पहुँचकर अपने सब उपायों का प्रयोग किया, परंतु महादेवजी के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उलटे उन्होंने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया। मुने! तब सती पार्वती ने भी गर्वरहित हो उनकी आज्ञा से बहुत बड़ी तपस्या करके शिव को पतिरूप में प्राप्त किया। फिर वे पार्वती और परमेश्वर परस्पर अत्यन्त प्रेम से और प्रसन्नता पूर्वक रहने लगे। उन दोनों ने परोपकार में तत्पर रहकर देवताओं का महान कार्य सिद्ध किया।

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अध्याय 13-16: तारकासुर के सताये देवताओं का ब्रह्माजी को अपनी कष्टकथा सुनाना,

सूतजी कहते हैं-तदनन्तर नारद जी के पूछने पर पार्वती के विवाह के विस्तृत प्रसंग को उपस्थित करते हुए ब्रह्मा जी ने तारकासुर की उत्पत्ति, उसके उग्र तप, मनोवांछित वर प्राप्ति तथा देवता और असुर-सबको जीतकर स्वयं इन्द्रपद पर प्रतिष्ठित हो जाने की कथा सुनायी।

तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने कहा-तारकासुर तीनों लोकों को अपने वश में करके जब स्वयं इन्द्र हो गया, तब उसके समान दूसरा कोई शासक नहीं रह गया। वह जितेन्द्रिय असुर त्रिभुवन का एकमात्र स्वामी होकर अद्भुत ढंग से राज्य का संचालन करने लगा उसने समस्त देवताओं को निकालकर उनकी जगह दैत्यों को स्थापित कर दिया और विद्याधर आदि देवयोनियों को स्वयं अपने कर्में लगाया। मुने! तदनन्तर तारकासुर के सताये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अत्यन्त व्याकुल और अनाथ होकर मेरी शरण में आये। उन सबने मुझ प्रजापति को प्रणाम करके बड़ी भक्ति से मेरा स्तवन किया और अपने दारुण दुःख की बातें बताकर कहा-‘प्रभो! आप ही हमारी गति हैं। आप ही हमें कर्तव्य का उपदेश देने वाले हैं और आप ही हमारे धाता एवं उद्धारक हैं। हम सब देवता तारकासुर
नामक अग्निमें जलकर अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं। जैसे संनिपात रोग में प्रबल औषधें भी निर्बल हो जाती हैं, उसी प्रकार उस असुर ने हमारे सभी क्रूर उपायों को बलहीन बना दिया है। भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र पर ही हमारी विजय की आशा अवलम्बित रहती है। परंतु वह भी उसके कण्ठ पर कुण्ठित हो गया। उसके गले में पड़कर वह ऐसा प्रतीत होने लगा था, मानो उस असुर को फूल की माला पहनायी गयी हो।
मुने! देवताओं का यह कथन सुनकर मैंने उन सबसे समयोचित बात कही-‘देवताओ! मेरे ही वरदान से दैत्य तारकासुर इतना बढ़ गया है। अत: मेरे हाथों ही उसका वध होना उचित नहीं। जो जिससे
पलकर बढ़ा हो, उसका उसीके द्वारा वध होना योग्य कार्य नहीं है। विष के वृक्ष को भी यदि स्वयं सींचकर बड़ा किया गया हो तो उसे स्वयं काटना अनुचित माना गया है। तुम लोगों का सारा कार्य करनेके योग्य भगवान शंकर हैं किंतु वे तुम्हारे कहने पर भी स्वयं उस असुर का सामना नहीं कर
होगा। मैं जैसा उपदेश करता हूँ, तुम वैसा कार्य करो। मेरे वरके प्रभावसे न मैं तारकासुर का वध कर सकता हूँ, न भगवान विष्णु कर सकते हैं और न भगवान शंकर ही उसका वध कर सकते हैं। दूसरा कोई वीर पुरुष अथवा सारे देवता मिलकर भी उसे नहीं मार सकते, यह मैं सत्य कहता हूँ।
देवताओं! यदि शिवजी के वीर्य से कोई पुत्र उत्पन्न हो तो वही तारक दैत्य का वध कर सकता है, दूसरा नहीं। सुरश्रेष्ठगण! इसके लिये जो उपाय मैं बताता हूँ, उसे करो। महादेवजी की कृपा से वह उपाय अवश्य सिद्ध होगा। पूर्वकाल में जिस दक्ष कन्या सतीने दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर को त्याग
दिया था, वही इस समय हिमालय पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई है। यह बात तुम्हें भी विदित ही है। महादेवजी उस कन्याका पाणिग्रहण अवश्य करेंगे, तथापि देवताओं! तुम स्वयं भी इसके लिये प्रयत्न करो। तुम अपने यत्न से ऐसा उद्योग करो, जिससे मैना कुमारी पार्वती में भगवान शंकर अपने वीर्य का आधान कर सकें। भगवान् शंकर ऊर्ध्वरेता हैं (उनका वीर्य ऊपर की ओर उठा हुआ है), उनके वीर्य को प्रस्खलित करने में केवल पार्वती ही समर्थ हैं। दूसरी कोई अबला अपनी शक्ति से ऐसा नहीं कर सकती। गिरिराज की पुत्री वे पार्वती इस समय युवावस्था में प्रवेश कर चुकी हैं और हिमालय पर तपस्या में लगे हुए महादेवजी की प्रतिदिन सेवा करती हैं। अपने पिता हिमवान के कहने से काली शिवा अपनी दो सखियों के साथ ध्यान परायण परमेश्वर शिव की साग्रह सेवा करती हैं। तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दरी पार्वती शिव के सामने रहकर प्रतिदिन उनकी पूजा करती हैं, तथापि वे ध्यानमग्न महेश्वर मन से भी ध्यानहीन स्थिति में नहीं आते। अर्थात ध्यान न भंग करके पार्वती की ओर देखने का विचार भी मन में नहीं लाते देवताओं! चन्द्रशेखर शिव जिस प्रकार काली को अपनी भार्या बनाने की इच्छा करें, वैसी चेष्टा तुमलोग शीघ्र ही प्रयत्नपूर्वक करो। मैं उस दैत्य के स्थान पर जाकर तारकासुर को बुरे हठ से हटाने की चेष्टा करूँगा। अत: अब तुम लोग अपने स्थान को जाओ।’
नारद! देवताओंसे ऐसा कहकर मैं शीघ्र ही तारकासुर से मिला और बड़े प्रेम से बुलाकर मैंने उससे इस प्रकार कहा- ‘तारक! यह स्वर्ग हमारे तेज का सारतत्व है। परंतु तुम यहाँ के राज्य का पालन कर रहे हो । जिसके लिये तुमने उत्तप तपस्या की थी, उससे अधिक चाहने लगे हो। मैंने तुम्हें इससे छोटा ही वर दिया था स्वर्ग का राज्य कदापि नहीं दिया था। इसलिये तुम स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर राज्य करो। असुरश्रेष्ठ! देवताओं के योग्य जितने भी कार्य हैं, वे सब तुम्हें वहीं सुलभ होंगे। इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा कहकर उस असुर को समझाने के
बाद मैं शिवा और शिव का स्मरण करके वहाँ से अदृश्य हो गया। तारकासुर भी स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर आ गया और शोणितपुर में रहकर वह राज्य करने लगा। फिर सब देवता भी मेरी बात सुनकर मुझे प्रणाम करके इन्द्र के साथ प्रसन्नतापूर्वक बड़ी सावधानी के साथ इन्द्रलोक में गये।
वहाँ जाकर परस्पर मिलकर आपस में सलाह करके वे सब देवता इन्द्र से प्रेम पूर्वक बोले-‘भगवन! शिव की शिवा में जैसे भी काममूलक रुचि हो, वैसा ब्रह्मा जी का बताया हुआ सारा प्रयत्न
आपको करना चाहिये।’
इस प्रकार देवराज इन्द्र से सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन करके वे देवता प्रसन्नतापूर्वक सब अपने अपने स्थान पर चले गये।

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अध्याय 17: इन्द्र द्वारा काम का स्मरण, बातचीत तथा काम का शिव को मोहने के लिये प्रस्थान

ब्रह्मा जी कहते हैं-नारद! देवताओं के चले जाने पर दुरात्मा तारक दैत्य से पीड़ित हुए इन्द्र ने कामदेव का स्मरण किया। कामदेव तत्काल वहाँ आ पहुँचा। तब इन्द्र ने मित्रता का धर्म बतलाते हुए कामसे कहा-‘मित्र! कालवशात मुझपर असाध्य दुःख आ पड़ा है। उसे तुम्हारे बिना कोई भी दूर नहीं कर सकता। दाता की परीक्षा दुर्भिक्ष में, शूरवीर की परीक्षा रणभूमि में, मित्र की परीक्षा आपत्तिकाल में तथा स्त्रियों के कुल की परीक्षा पति के असमर्थ हो जाने पर होती है। तात! संकट पड़ने पर विनय की परीक्षा होती है और परोक्ष में सत्य एवं उत्तम स्नेह की, अन्यथा नहीं। यह मैंने सच्ची बात कही है। मित्रवर! इस समय मुझ पर विपत्ति आयी है, उसका निवारण दूसरे किसी से नहीं हो सकता। अत: आज तुम्हारी परीक्षा हो जायगी। यह कार्य केवल मेरा ही है और मुझे ही सुख देने वाला है, ऐसी बात नहीं। अपितु यह समस्त देवता आदि का कार्य है, इसमें संशय नहीं है। इन्द्र की यह बात सुनकर कामदेव मुस्कराया और प्रेमपूर्ण गम्भीर वाणी में बोला। जो काम ने कहा-देवराज! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? मैं आपको उत्तर नहीं दे रहा हूँ (आवश्यक निवेदनमात्र कर रहा हूँ)। लोक में कौन उपकारी मित्र है और कौन बनावटी-यह स्वयं देखने की वस्तु है, कहने की नहीं। जो संकटके समय बहुत बातें करता है, वह काम क्या करेगा? तथापि महाराज ! प्रभो! मैं कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। मित्र! जो आपके इन्द्रपद को छीनने के लिये दारुण तपस्या कर रहा है, आपके उस शत्रु को मैं सर्वथा तपस्या से भ्रष्ट कर दूँगा। जो काम जिससे पूरा हो सके, बुद्धिमान पुरुष उसे उसी काम में लगाये। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह सब
आप मेरे जिम्मे कीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-कामदेव का यह कथन सुनकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। कामिनियों को सुख देने वाले काम को प्रणाम करके उससे इस प्रकार बोले।
इन्द्र ने कहा-तात! मनोभव! मैंने अपने मन में जिस कार्य को पूर्ण करने का उद्देश्य रखा है, उसे सिद्ध करने में केवल तुम्हीं समर्थ हो। दूसरे किसीसे उस कार्यका होना सम्भव नहीं है। मित्रवर! मनोभव काम! जिसके लिये आज तुम्हारे सहयोग की अपेक्षा हुई है, उसे ठीक-ठीक बता रहा हूँ; सुनो। तारक नाम से प्रसिद्ध जो महान दैत्य है, वह ब्रह्माजी का अद्भुत वर पाकर अजेय हो गया है और सभीको दुःख दे रहा है। वह सारे संसार को पीड़ा दे रहा है। उसके द्वारा बारंबार धर्म का नाश हुआ है। उससे सब देवता और समस्त ऋषि दुःखी हुए हैं। सम्पूर्ण देवताओं ने पहले उसके साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया था; वे परंतु उसके ऊपर सबके अस्त्र-शस्त्र निष्फल हो गये। जल के स्वामी वरुण का पाश टूट गया। श्रीहरि का सुदर्शन चक्र भी वहाँ सफल नहीं हुआ। श्रीविष्णु ने उसके कण्ठ पर चक्र चलाया, किंतु वह वहाँ कुण्ठित हो गया। ब्रह्माजी ने महायोगीश्वर भगवान शम्भु के वीर्य से उत्पन्न हुए बालक के हाथ से इस दुरात्मा दैत्य की मृत्यु बतायी है। यह कार्य तुम्हें अच्छी तरह और प्रयत्नपूर्वक करना है। मित्रवर! उसके हो जाने से हम देवताओं को बड़ा सुख मिलेगा। भगवान शम्भु गिरिराज हिमालय पर उत्तम तपस्या में लगे हैं वे हमारे भी प्रभु हैं, कामना के वश में नहीं हैं, स्वतन्त्र परमेश्वर हैं। मैंने सुना है कि गिरिराज नन्दिनी पार्वती पिता की आज्ञा पाकर अपनी दो सखियों के साथ उनके समीप रहकर उनकी सेवा में रहती हैं। उनका यह प्रयत्न महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करने के लिये ही है। परंतु भगवान शिव अपने मन को संयम-नियम से वश में रखते हैं। जिस तरह भी उनकी पार्वती में अत्यन्त रुचि हो जाय, तुम्हें वैसा ही प्रयत्न करना चाहिये। यही कार्य करके तुम कृतार्थ हो जाओगे और हमारा सारा दुःख नष्ट हो जायेगा। इतना ही नहीं, लोक में तुम्हारा स्थायी प्रताप फैल जायगा।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इन्द्र के ऐसा कहने पर कामदेव का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठा। उसने देवराज से प्रेमपूर्वक कहा-‘मैं इस कार्य को करुँगा इसमें संशय नहीं है।’ ऐसा कहकर शिव की माया से मोहित हुए कामदेव ने उस कार्य के लिये स्वीकृति दे दी और शीघ्र ही उसका भार ले लिया। वह अपनी पत्नी रति और वसन्त को साथ ले बड़ी प्रसन्नता के साथ उस स्थान पर गया, जहाँ साक्षात योगीश्वर शिव उत्तम तपस्या कर रहे थे।

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अध्याय 18-19: शिवजी द्वारा कामदेव को भस्म करना

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने! काम अपने साथी वसन्त आदि को लेकर वहाँ पहुँचा। उसने भगवान शिव पर अपने बाण चलाये। तब शंकरजी के मन में पार्वती के प्रति आकर्षण होने लगा और उनका धैर्य छूटने लगा। अपने धैर्य का ह्रास होता देख महायोगी महेश्वर अत्यन्त विस्मित हो पड़ते ही परमात्मा गिरीश को तत्काल रोष चढ़ आया। मुने! उधर आकाश में बाणसहित धनुष लिये खड़े हुए कामदेव ने भगवान शंकर पर अपना अमोघ अस्त्र छोड़ दिया, जिसका निवारण करना बहुत कठिन था। परंतु
परमात्मा शिव पर वह अमोघ अस्त्र भी मोघ (व्यर्थ) हो गया, कुपित हुए परमेश्वर के पास जाते ही शान्त हो गया। भगवान शिव पर अपने अस्त्र के व्यर्थ हो जाने पर मन्मथ (कामदेव) को बड़ा भय हुआ। भगवान मृत्युंजय को सामने देखकर वह काँप उठा और इन्द्र आदि समस्त देवताओं का स्मरण करने लगा। मुनिश्रेष्ठ! अपना प्रयास निष्फल हो जाने पर कामदेव भय से व्याकुल हो उठा
था। मुनीश्वर! कामदेव के स्मरण करने पर वे इन्द्र आदि सब देवता वहाँ आ पहुँचे और शम्भु को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। देवता स्तुति कर ही रहे थे कि कुपित हुए भगवान शिव के ललाट के मध्य भाग में स्थित तृतीय नेत्र से बड़ी भारी आग तत्काल प्रकट होकर निकली। उसकी ज्वालाएँ ऊपर की ओर उठ रही थीं। वह आग धूं-धूं करके जलने लगी। उसकी प्रभा प्रलयाग्नि के समान जान पड़ती थी। वह आग तुरंत ही आकाश में उछली और पृथ्वी पर गिर पड़ी। फिर अपने चारों ओर चक्कर काटती हुई धराशायिनी हो गयी। साधो!’ भगवन! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये
यह बात जब तक देवताओं के मुख से निकली, तब तक ही उस आग ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया। कामदेव के मारे जाने पर देवताओं को बड़ा दुःख हुआ। वे व्याकुल हो ‘हाय! यह क्या हुआ?’ ऐसा कह-कहकर जोर-जोरसे चीत्कार करते रोने-बिलखने लगे। उस समय विकृत चित्त हुई पार्वती का सारा शरीर सफेद पड़ गया-काटो तो खून नहीं। वे सखियोंको साथ ले अपने भवन को चली गयीं। कामदेव के जल जाने पर रति वहाँ एक क्षण तक अचेत पड़ी रही। पति की मृत्यु के दुःख से वह इस तरह पड़ी थी, मानो मर गयी हो। थोड़ी देर में जब होश हुआ, तब अत्यन्त व्याकुल हो रति उस समय तरह-तरह की बातें कहकर विलाप करने लगी। रति बोली-हाय! मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? देवताओं ने यह क्या किया। मेरे उद्दण्ड स्वामी को बुलाकर नष्ट करा दिया। हाय! हाय! नाथ! स्मर! स्वामिन! प्राणप्रिय! हे मुझे सुख देने वाले प्रियतम! हे प्राणनाथ! यह यहाँ क्या हो गया?
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इस प्रकार रोती, बिलखती और अनेक प्रकार की बातें कहती हुई रति हाथ-पैर पटकने और अपने सिर के बालों को नोचने लगी। उस समय उसका विलाप सुनकर वहाँ रहने वाले समस्त वनवासी जीव तथा वृक्ष आदि स्थावर प्राणी भी बहुत दुःखी हो गये। इसी बीच में
इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता महादेवजी का स्मरण करते हुए रति को आश्वासन दे इस प्रकार बोले।
देवताओं ने कहा-तुम कामदेव के शरीर का थोड़ा-सा भस्म लेकर उसे यत्नपूर्वक रखो और भय छोड़ो। हम सबके स्वामी महादेवजी कामदेव को पुन: जीवित कर देंगे और तुम फिर अपने प्रियतम को प्राप्त कर लोगी। कोई किसी को न तो सुख देने वाला है और न कोई दुःख ही देनेवाला है सब लोग अपनी-अपनी करनीका फल भोगते हैं। तुम देवताओं को दोष देकर व्यर्थ ही शोक करती हो।
इस प्रकार रति को आश्वासन दे सब देवता भगवान शिव के पास आये और उन्हें भक्तिभाव से प्रसन्न करके यों बोले।
देवताओं ने कहा-भगवन! शरणागत, वत्सल महेश्वर! आप कृपा करके हमारे इस शुभ वचन को सुनिये। शंकर! आप कामदेव की करतूत पर भलीभाँति प्रसन्न्ता पूर्वक विचार कीजिये। महेश्वर! कामदेव ने जो यह कार्य किया है, इसमें इसका कोई स्वार्थ नहीं था। दुष्ट तारकासुर से पीड़ित हुए हम सब देवताओं ने मिलकर उससे यह काम कराया है। नाथ! शंकर! इसे आप अन्यथा न समझें। सब कुछ देने वाले देव! गिरीश ! सती-साध्वी रति अकेली अति दुःखी होकर विलाप कर रही है।
आप उसे सान्त्वना प्रदान करें। शंकर! यदि इस क्रोध के द्वारा आपने कामदेव को मार डाला तो हम यही समझेंगे कि आप देवताओं सहित समस्त प्राणियों का अभी संहार कर डालना चाहते हैं। रति का दुःख देखकर देवता नष्टप्राय: हो रहे हैं; इसलिये आपको रति का शोक दूर कर देना चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! सम्पूर्ण देवताओंका यह वचन सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो उनसे इस प्रकार बोले।
शिव ने कहा-देवताओं और ऋषियों! तुम सब आदरपूर्वक मेरी बात सुनो। मेरे क्रोध से जो कुछ हो गया है, वह तो अन्यथा नहीं हो सकता, तथापि रति का शक्तिशाली पति कामदेव तभी तक अनंग (शरीर रहित) रहेगा, जबतक रुक्मिणी पति श्रीकृष्ण का धरती पर अवतार नहीं हो जाता। जब
श्रीकृष्ण द्वारका में रहकर पुत्रों को उत्पन्न करेंगे; तब वे रुक्मिणी के गर्भ से कामदेव को भी जन्म देंगे। उस काम का ही नाम उस समय ‘प्रद्युम्न’ होगा–इसमें संशय नहीं है। उस पुत्र के जन्म लेते ही शम्बरासुर उसे हर लेगा। हरण के पश्चात दानव शिरोमणि शरम्बासुर उस शिशु को समुद्र में डाल देगा। फिर वह मूढ़ उसे मरा हुआ समझकर अपने नगर को लौट जायगा। रते! उस समय तक तुम्हें
शम्बरासुर के नगर में सुखपूर्वक निवास करना चाहिये। वहीं तुम्हें अपने पति प्रद्युप्न की प्राप्ति होगी। वहाँ तुमसे मिलकर काम युद्धमें शम्बरासुर का वध करेगा और सुखी होगा। देवताओं! प्रद्युम्नाम धारी काम अपनी कामिनी रति को तथा शम्बरासुर के धन को लेकर उसके साथ पुनः नगर में जायगा। मेरा यह कथन सर्वथा सत्य होगा।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! भगवान शिव की यह बात सुनकर देवताओं के चित्त में कुछ उल्लास हुआ और वे उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ विनीतभाव से बोले।
देवताओं ने कहा-देवाधिदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! आप कामदेव को शीघ्र जीवन-दान दें तथा रति के प्राणों की रक्षा करें। देवताओं की यह बात सुनकर सबके स्वामी करुणासागर परमेश्वर शिव पुनः प्रसन्न होकर बोले- ‘देवताओं! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं कामदेव को सबके ह्रदय में जीवित
कर दँगा। वह सदा मेरा गण होकर विहार करेगा। अब अपने स्थान को जाओ। मैं तुम्हारे दुःख का सर्वथा नाश करूँगा।’ ऐसा कहकर रुद्रदेव उस समय स्तुति करने वाले देवताओं के देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। देवताओं का विस्मय दूर हो गया और वे सब-केसब प्रसन्न हो गये मुने!तदनन्तर रुद्र की बात पर भरोसा करके स्थिर रहने वाले देवता रति को उनका कथन सुनाकर आश्वासन दे अपने-अपने स्थान को चले गये। मुनीश्वर! कामदेव की पत्नी रति शिव के बताये हुए शम्बरनगर को चली गयी तथा रुद्रदेव ने जो समय बताया था, उसकी प्रतीक्षा करने लगी।

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