अयोध्याकांड
अयोध्याकांड में श्रीराम वनगमन से लेकर श्रीराम-भरत मिलाप तक के घटनाक्रम आते हैं।
द्वितीय सोपान-मंगलाचरण
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्॥1॥
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥2॥
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥2॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥3॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥4॥
राम राज्याभिषेक की तैयारी, देवताओं की व्याकुलता तथा सरस्वती से उनकी प्रार्थना
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥1॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा॥3॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥4॥
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमार अरि मित्र उदासी॥1॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं॥2॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥4॥
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥1॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥2॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥3॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥4॥
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥1॥
बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥3॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥4॥
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥1॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥2॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥3॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥4॥
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥1॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥2॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥3॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ हृदय जेहि भाँती॥4॥
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥1॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥2॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥3॥
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥1॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥2॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥3॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं। सेवकु लइह स्वामि सेवकाईं॥4॥
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥2॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥3॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥4॥
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥2॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥3॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥4॥
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥1॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥2॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥3॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥4॥
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सरस्वती का मन्थरा की बुद्धि फेरना, कैकेयी-मन्थरा संवाद, प्रजा में खुशी
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥1॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥2॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥3॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥4॥
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥1॥
देखहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥2॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥3॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥4॥
तिय बिसेषि पुनिचेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥1॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥2॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥3॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥4॥
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥1॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥2॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥3॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥4॥
सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि॥16॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥1॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥2॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते॥3॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥4॥
मन मलीन मुँह मीठ नृपु राउर सरल सुभाउ॥17॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानब रउरें॥1॥
सालु तुमर कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होई जनाई॥2॥
रचि प्रपंचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥3॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥4॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥
का पूँछहु तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥1॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥2॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ। तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥3॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥4॥
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥1॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥2॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥3॥
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥1॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥2॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥3॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥4॥
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥
लखइ ना रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥1॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥2॥
सुतहि राजु रामहि बनबासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू॥3॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥4॥
कैकेयी का कोपभवन में जाना
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कई भइसि अधारा॥1॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनी कैकेई॥2॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥3॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥4॥
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23।
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥2॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥3॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥4॥
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥2॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना॥3॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥4॥
दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल में भेजना
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
कहु केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥2॥
जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥3॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥4॥
भूषन सजति बिलोकिमृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥2॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥3॥
कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥4॥
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥2॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥
बाद दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥4॥
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
भावार्थ:-राजा का मनोरथ सुंदर वन है, सुख सुंदर पक्षियों का समुदाय है। उस पर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥28॥
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥3॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥4॥
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥2॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥3॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥4॥
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥1॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥2॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरु साखी॥3॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥4॥
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥2॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥3॥
जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥4॥
जेहिं देखौं अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥1॥
सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥2॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥3॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥4॥
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥1॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनूकूला॥2॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥3॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥4॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥2॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥3॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥4॥
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥2॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥3॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारू लागी॥4॥
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥1॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥2॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥3॥
तेहि निसि नीद परी नहिं काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥4॥
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥
धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥2॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई॥3॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूँछी॥4॥
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ ना मरमु महीसु॥38॥
चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥2॥
राम सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥3॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥4॥
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥1॥
श्री राम-कैकेयी संवाद
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥2॥
सुनहु राम सबु कारनु एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू॥3॥
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥4॥
सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥1॥
सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥2॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥3॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥4॥
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥1॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥2॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥3॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥4॥
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥1॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥2॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥3॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥4॥
श्री राम-दशरथ संवाद, अवधवासियों का विषाद, कैकेयी को समझाना
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥1॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥2॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥3॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥4॥
बचनु मोर तजि रहहिं घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥1॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥2॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥3॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥4॥
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥2॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥3॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥4॥
मनहुँ करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥2॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥3॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥4॥
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥1॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥2॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥3॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥4॥
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥1॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताहीं॥2॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥3॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥4॥
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥2॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥3॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥4॥
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन समुझि धौं जियँ भामनी॥
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥1॥
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं॥2॥
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥3॥
श्री राम-कौसल्या संवाद
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥4॥
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥2॥
सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥3॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥4॥
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥2॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥3॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥4॥
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥53॥
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी॥2॥
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥3॥
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥4॥
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥2॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥3॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥4॥
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥55॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥2॥
जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥3॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥4॥
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥2॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥3॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥4॥
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥57॥
बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥2॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥3॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सास ससुर परिजनहि पिआरी॥4॥
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥2॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥4॥
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥2॥
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥3॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥4॥
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥
श्री सीता-राम संवाद
राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥2॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥3॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥4॥
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥
काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥2॥
चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥3॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥4॥
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥2॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥4॥
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥
सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥2॥
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥3॥
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥2॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥3॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥4॥
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥
छिनु-छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥2॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥3॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥4॥
दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान॥66॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥4॥
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥67॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥2॥
श्री राम-कौसल्या-सीता संवाद
बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥3॥
सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥4॥
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥1॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥2॥
सुनिसिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥3॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥4॥
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
श्री राम-लक्ष्मण संवाद
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥2॥
राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेहसब सन तृनु तोरें॥3॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥4॥
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥
भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥1॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥2॥
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥3॥
सिअरें बचन सूखि गए कैसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥4॥
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥2॥
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥3॥
मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥4॥
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥1॥
श्री लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥2॥
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥3॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥4॥
जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥2॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥3॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥4॥
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
श्री रामजी, लक्ष्मणजी, सीताजी का महाराज दशरथ के पास विदा माँगने जाना, दशरथजी का सीताजी को समझाना
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥4॥
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥76॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥1॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥2॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥3॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥4॥
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥77॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥1॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥2॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥3॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥4॥
सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥2॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥3॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥4॥
श्री राम-सीता-लक्ष्मण का वन गमन
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥1॥
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥2॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाईं॥3॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥4॥
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥80॥
गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥1॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥2॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं॥3॥
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥4॥
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥2॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥3॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥4॥
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥2॥
घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥3॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥4॥
पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥2॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥3॥
राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥4॥
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥84॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥1॥
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥2॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥3॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥4॥
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85॥
रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥1॥
एकहि एक देहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू॥2॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥3॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥4॥
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥86॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥1॥
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥2॥
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥3॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥4॥
श्री राम का श्रृंगवेरपुर पहुँचना, निषाद के द्वारा सेवा
चरितकरत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥87॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥1॥
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥2॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥3॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥4॥
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥2॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥3॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥4॥
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥89॥
कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥1॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥2॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥3॥
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥4॥
पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥90॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥1॥
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी॥2॥
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥3॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥4॥
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥
लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता से सुमन्त्र का संवाद, सुमंत्र का लौटना
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥1॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥3॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥4॥
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥93॥
भावार्थ:-वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥93॥
मासपारायण, पंद्रहवाँ विश्राम
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥1॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा॥3॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥4॥
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥94॥
मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥1॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥2॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥3॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहउँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥4॥
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥2॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥3॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥4॥
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥2॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥3॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥4॥
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥97॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥2॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥3॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥4॥
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥1॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥2॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥3॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥4॥
देखि निषाद बिषाद बस धुनहिं सीस पछिताहिं॥99॥
केवट का प्रेम और गंगा पार जाना
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥
पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥
प्रयाग पहुँचना, भरद्वाज संवाद, यमुनातीर निवासियों का प्रेम
सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ॥104॥
प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥1॥
चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥2॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥3॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥4॥
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥105॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥2॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥3॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥4॥
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥106॥
कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥2॥
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥3॥
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥4॥
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥107॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥1॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥2॥
भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए॥3॥
देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥4॥
चले सहितसिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ॥108॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥1॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहिं मगु दीख हमारा॥2॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥3॥
होहिं सनाथ जनम फलु पाई। फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥4॥
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥109॥
लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥1॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥2॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥3॥
तापस प्रकरण
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥4॥
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4॥
यमुना को प्रणाम, वनवासियों का प्रेम
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥111॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥1॥
राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥2॥
अगमु पंथु गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥3॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥4॥
कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥112॥
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥1॥
पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥2॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥3॥
परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥4॥
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥113॥
सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥1॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥2॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥3॥
एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥4॥
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिंकि प्रात॥114॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥1॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा॥2॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा॥3॥
मुनि पट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥4॥
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥115॥
राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥1॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥2॥
राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं॥3॥
राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥4॥
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥
भावार्थ:-श्याम और गौर वर्ण है, सुंदर किशोर अवस्था है, दोनों ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं। शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान इनके मुख और शरद ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं॥116॥
मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, चौथा विश्राम
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥2॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥3॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥4॥
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥117
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥1॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥2॥
सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥3॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥4॥
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥2॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥3॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥4॥
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥119॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥1॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥2॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥3॥
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥4॥
किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥120॥
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥1॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥2॥
जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥3॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥4॥
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥121॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥1॥
कहहिं परसपर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं॥2॥
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ-जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥3॥
राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥4॥
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥122॥
उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥1॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥2॥
सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥3॥
खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥4॥
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥123॥
राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहु मुनि कोई॥1॥
तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥2॥
श्री राम-वाल्मीकि संवाद
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥3॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥4॥
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥124॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥1॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥2॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥3॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥4॥
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥125॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥1॥
मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥2॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥3॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥4॥
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।126॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥4॥
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥127॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥1॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥2॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥3॥
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥4॥
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥128॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥1॥
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥2॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥3॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥4॥
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥129॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥2॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥3॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥4॥
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥130॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥1॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥2॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥3॥
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥4॥
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥131॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥1॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥2॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥3॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥4॥
चित्रकूट में निवास, कोल-भीलों के द्वारा सेवा
आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥132॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥1॥
चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥2॥
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना॥3॥
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥4॥
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥133॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी सुंदर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसंत ऋतु के साथ सुशोभित हो॥133॥
मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥1॥
करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥2॥
आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥3॥
सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥4॥
करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥134॥
कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥1॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥2॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥3॥
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिंकर जोरी॥4॥
भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥135॥
धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥1॥
कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥2॥
बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥3॥
हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥4॥
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥136॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥2॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु बलित बर बेलि बिताना॥3॥
गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥4॥
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥137॥
फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी॥1॥
सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥2॥
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥3॥
बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥4॥
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥138॥
परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥1॥
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥2॥
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होहिं सहसानन॥3॥
सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥4॥
करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥139॥
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥1॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥2॥
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥3॥
लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥4॥
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥140॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥1॥
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥2॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥3॥
लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥4॥
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥141॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥2॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥3॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥4॥
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥142॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥2॥
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥3॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भाँती॥4॥
सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना और सर्वत्र शोक देखना
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥143॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥1॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥2॥
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥3॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥4॥
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥144॥
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥1॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥2॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥3॥
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥4॥
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥145॥
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥1॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥2॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥3॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥4॥
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु॥146॥
बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥1॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा॥2॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए॥3॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैसें। निघटत नीर मीनगन जैसें॥4॥
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु॥147॥
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा॥1॥
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा॥2॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥3॥
राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही॥4॥
दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥148॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥4॥
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥2॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥150॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥2॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू॥3॥
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥4॥
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥2॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥3॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लारिकाई॥4॥
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥1॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥2॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥3॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥4॥
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥1॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥2॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥3॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥4॥
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥2॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥3॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमितल बारहिं बारा॥2॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥3॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥4॥
मुनि वशिष्ठ का भरतजी को बुलाने के लिए दूत भेजना
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥2॥
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥3॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥4॥
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥157॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥2॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥3॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥4॥
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥
श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥1॥
भरत दुखित परिवारु निहारा॥ मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥2॥
सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥3॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥4॥
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥2॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥3॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥4॥
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥
तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥2॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥3॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥4॥
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥161॥
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा॥1॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥2॥
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥4॥
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥162॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥1॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुँह भर महि करत पुकारा॥2॥
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥3॥
भरत दयानिधि दीन्हि छुड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥4॥
भरत-कौसल्या संवाद और दशरथजी की अन्त्येष्टि क्रिया
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥163॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥1॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥2॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥3॥
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥4॥
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥164॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥1॥
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पोछिं मृदु बचन उचारे॥2॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानी॥3॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥4॥
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर॥165॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥1॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई॥2॥
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें॥3॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना॥4॥
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु ॥166॥
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥1॥
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी॥2॥
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥3॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता॥4॥
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥167॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥1॥
पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा॥2॥
जे न भजहिं हरि नर तनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥3॥
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥4॥
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥168॥
बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥1॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥2॥
करत बिलाप बहुत एहि भाँती। बैठेहिं बीति गई सब राती॥3॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥4॥
वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥169॥
गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥1॥
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥2॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥3॥
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥4॥
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥170॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥1॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥2॥
भूप धरमुब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥3॥
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥4॥
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥
तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥1॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥2॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥3॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥4॥
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥1॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥2॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥3॥
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥173॥
यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥1॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥2॥
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥3॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥4॥
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥
सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥2॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥3॥
सौंपेहु राजु राम के आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥4॥
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥1॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥2॥
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू॥3॥
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥4॥
लोचन सरोरुह स्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि॥176॥
भावार्थ:-धैर्य की धुरी को धारण करने वाले भरतजी धीरज धरकर, कमल के समान हाथों को जोड़कर, वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे-॥176॥
मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥1॥
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥2॥
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोष न जी कें॥3॥
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू॥4॥
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु॥177॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥1॥
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्मबिचारू॥2॥
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई॥3॥
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू॥4॥
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज॥178॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥1॥
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा॥2॥
बिन रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू॥3॥
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई॥4॥
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥179॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥1॥
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू॥2॥
ऐहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका॥3॥
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई॥4॥
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥1॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥2॥
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥4॥
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥1॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥2॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥3॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥4॥
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥1॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी॥2॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥3॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥4॥
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस॥183॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥1॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥2॥
जो पावँरु अपनी जड़ताईं। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाईं॥3॥
अहि अघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥4॥
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥1॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥2॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥3॥
अयोध्यावासियों सहित श्री भरत-शत्रुघ्न आदि का वनगमन
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥1॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई॥2॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥3॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे॥4॥
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥1॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥2॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥3॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥4॥
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥1॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥2॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू॥3॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥4॥
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥
निषाद की शंका और सावधानी
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥2॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥3॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥4॥
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥2॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥4॥
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥2॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥3॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥4॥
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥4॥
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥2॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥3॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥4॥
भरत-निषाद मिलन और संवाद और भरतजी का तथा नगरवासियों का प्रेम
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥193॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥1॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥2॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥3॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥4॥
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं॥1॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥2॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥3॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥4॥
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं॥2॥
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी॥3॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥4॥
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥2॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी॥3॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥4॥
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ॥197॥
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥1॥
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥2॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥3॥
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥4॥
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥198॥
चरन देख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥1॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥2॥
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥3॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाईं॥4॥
बिहरत हृदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि॥199॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे॥1॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥2॥
पुरजन परिजन गुरु पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥3॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥4॥
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥
धिग कैकई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥2॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥3॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥4॥
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥201॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥