रावण संहिता

बीमारियों से निपटने के लिए रावण संहिता में बताए गए हैं ये सरल उपाय

पंडित आशीष पाठक

हमारे पूर्वार्जित पाप कर्मों के फल ही समय समय पर विभिन्न रोगों के रूप में हमारे शरीर में प्रगट होते हैं। रावण सहिंता का यह श्लोक देखिये –
जन्मान्तर कृतं पापं व्याधिरुपेण बाधते।
तच्छान्तिरौषधैर्दानर्जपहोमसुरार्चनै:।।

अर्थात पूर्व जन्म में किया गया पाप कर्म ही व्याधि के रूप में हमारे शरीर में उत्पन्न होकर कष्टकारक होता है तथा औषध, दान, जप, होम व देवपूजा से रोग की शान्ति होती है। रावण संहिता में कर्मदोष को ही रोग की उत्पत्ति का कारण माना गया है। कर्म के तीन भेद कहे गए हैं.
१ सन्चित
२ प्रारब्ध
३ क्रियमाण
रावण संहिता के अनुसार संचित कर्म ही कर जन्य रोगों के कारण हैं जिनके एक भाग को प्रारब्ध के रूप में हम भोग रहे हैं। वर्तमान समय में किए जाने वाला कर्म ही क्रियमाण है। वर्तमान काल में मिथ्या आहार-विहार के कारण भी शरीर में रोग उत्पन्न हो जाता है। रावण संहिता के मतानुसार कुष्ठ, उदररोग,गुदर रोग, उन्माद, अपस्मार, पंगुता, भगन्दर, प्रमेह, अन्धता, अर्श, पक्षाघात, देह्क्म्प, अश्मरी, संग्रहणी, रक्तार्बुद, कान व वाणी दोष इत्यादि रोग, परस्त्रीगमन, ब्रहृम हत्या, परधन अपहरण, बालक-स्त्री-निर्दोष व्यक्ति की हत्या आदि दुष्कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। अतः मानव द्वारा इस जन्म या पूर्व जन्म में किया गया पापकर्म ही रोगों का कारण होता है। तभी तो ऐसे मनुष्य भी कभी-कभी कलिष्ट रोगों का शिकार होकर कष्ट भोगते हैं, जो खान-पान में सयंमी तथा आचार-विचार में पुरी तरह शुद्ध हैं।

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जन्मकुंडली से रोग व उसके समय का ज्ञान
जन्मकुंडली के माध्यम से यह जानना सम्भव है कि किसी मनुष्य को कब तथा क्या बीमारी हो सकती है। जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति, ग्रह गोचर तथा दशा-अन्तर्दशा से उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है, क्योंकि जन्म पत्रिका मनुष्यों के पूर्वजन्मों के समस्त शुभाशुभ कर्मों को दीपक के समान प्रगट करती हैं जिनका शुभाशुभ फल इस जन्म में प्राप्त होना होता है।
यदुपचित मन्य जन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मण: प्राप्तिम ।
व्यंज्ज्यती शास्त्र मेंत तमसि द्रव्याणि दीप इव ॥
(रावण संहिता)

रावण संहिता में रोगों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया है

१ सहज रोग :— जन्मजात रोगों को सहज रोगों के वर्ग में रखा गया है। अंग हीनता, जन्म से अंधापन, गूंगा व बहरापन, पागलपन, वक्र ता एवं नपुंसकता आदि रोग सहज रोग हैं जो जन्म से ही होते हैं । सहज रोगों का विचार अस्टमेश तथा आठवें भावः में स्थित निर्बल ग्रहों से किया जाता है । ये रोग प्राय: दीर्घ कालिक तथा असाध्य होते हैं ।

२ आगंतुक रोग :— चोट, अभिचार, महामारी, दुर्घटना ,शत्रु द्वारा घात आदि प्रत्यक्ष कारणों से तथा ज्वर, रक्त विकार, धातु रोग, उदर विकार, वात-पित्त- कफ की विकृति से होने वाले रोग जो अप्रत्यक्ष कारणों से होते हैं, आगंतुक रोग कहे गये हैं। इनका विचार षष्टेश, छ्टे भाव में स्थित निर्बल ग्रहों तथा जन्म कुंडली में पीड़ित राशि, पीड़ित भाव एवं पीड़ित ग्रहों से किया जाता है।

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रोग के प्रभाव का समय

पीड़ा कारक ग्रह अपनी ऋतु में, अपने वार में, मासेश होने पर अपने मास में, वर्षेश होने पर अपने वर्ष में, अपनी महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यंतर दशा व सूक्षम दशा में रोगकारक होते हैं। गोचर में पीड़ित भाव या राशि में जाने पर भी निर्बल व पाप ग्रह रोग उत्पन्न करते हैं। सूर्य २२वें, चन्द्र २४वें, मंगल २८ वें, बुध ३५वें, गुरु १६वें, शुक्र२५ वें, शनि ३६वें, राहु ४४वें तथा केतु ४८वें वर्ष में भी अपना शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं।

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रोग शान्ति के उपाय
ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग का पूर्वानुमान लगा कर पीडाकारक ग्रह या ग्रहों का दान, जप, होम व रत्न धारण करने से रोग टल सकता है या उसकी तीव्रता कम की जा सकती है। ग्रह उपचार से चिकित्सक की औषधि के शुभ प्रभाव में भी वृद्धि हो जाती है। औषधि का दान तथा रोगी की निस्वार्थ सेवा करने से व्यक्ति को रोग पीड़ा प्रदान नहीं करते। दीर्घकालिक एवं असाध्य रोगों की शान्ति के लिए रुद्र सूक्त का पाठ, श्री महामृत्युंजय का जप तुला दान, छाया दान, रुद्राभिषेक, पुरूष सूक्त का जप तथा विष्णु सहस्रनाम का जप लाभकारी सिद्ध होता है। रावण संहिता के अनुसार प्रायश्चित करने पर भी असाध्य रोगों की शान्ति होती है।

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